सुनपेड़ा में मजमा
लगा है नेताओं का...सियासतदानों का...कांग्रेस, बीजेपी, बीएसपी, सीपीएम, इनेलो
जैसी तमाम राष्ट्रीय और क्षेत्रीय पार्टियों के नेताओं और प्रमुखों का जमावड़ा लगा
है...सब के सब चीख रहे हैं...एक दूसरे को दोषी ठहरा रहे हैं...लेकिन कोई नहीं कहता
की वो खुद इस घटना का जिम्मेदार है...कोई कहे भी कैसे..क्योंकि यही तो वो दर्द की भट्टी
है जिस पर सियासी रोटियां बड़ी करारी सिकती हैं...क्या कोई भी पार्टी देश में अमन
चैन चाहती नहीं हैं! यदि ऐसा नहीं होता तो देश प्रदेश को दंगों का दंश नहीं झेलना पड़ता! अब नेता झूठा दिखावा
कर रहे हैं...घड़ियाली आंसू बहा रहे हैं...छाती पीट पीट कर दबंगों को कोस रहे हैं
सरकार और पुलिस प्रशासन को कोस रहे हैं...सियासी सहानुभूति दिखा रहे हैं...लेकिन सच
तो ये है कि इसकी जरा भी उन्हे चिंता नहीं है...चिंता है तो सिर्फ वोट बैंक की...फरीदाबाद
के बल्लभगढ़ के सुनपेड़ा में दबंगों ने दलित परिवार को जिंदा आग में झोंक दिया गया...जिसमें
दो बच्चों की मौत हो गयी...जबकि पति पत्नी का गंभीर अवस्था में दिल्ली के सफदरगंज
में इलाज चल रहा है...ये घटना निश्चित रूप से निंदनीय है...मानवता को शर्मसार करने
वाली है...जिसने दिल दिमाग को पूरी तरह से झकझोर कर रख दिया है...इस घटना ने 21
अप्रैल 2010 के घाव को ताजा कर दिया...जब हिसार के मिर्चपुर गांव में दबंगों ने
दलित बस्ती को आग के हवाले कर दिया था...उनके पुनर्वास की व्यवस्था की गई है...फिर
भी दबंगों के डर से दलित समुदाय गांव में जाने से घबराते हैं...लेकिन इस घटना के पीछे
की कहानी कुछ और ही है...दरअसल 5 अक्टूबर 2014 को सुनपेड़ में मामूली मोबाइल विवाद
में गांव के सरपंच और पूर्व सरपंच के बीच जानलेवा वॉर शुरू हो गया...जिसमें अब के
आरोपी परिवार के तीन लोगों की हत्या कर दी गई थी...जिसमें करीब 13 दोषी ठहराए गए..उनमें
से 7 लोग अब भी जेल में बंद हैं...तब से वहां पुलिस तैनात है...फिर पुलिस की
मौजूदगी में हुई ये घटना व्यवस्था पर सवाल उठाती है...कि आखिर इसके पीछे किसी की
साजिश तो नहीं है...इस घटना को उसी क्रिया की प्रतिक्रिया के रूप में देखा जा रहा
है...जो आज दलित के नाम पर रोना रो रहे हैं...तब उनमें इतनी ताकत कहां से आ गयी थी
जब उन्होने तथाकथित दबंगों को मौत के घाट उतार दिया था...ये दलितों का विरोध नहीं
है बल्कि एक जायज सवाल है।
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Wednesday 21 October 2015
Wednesday 20 May 2015
कलम की आवाज: नया नेतृत्व, नई क्रांति
कलम की आवाज: नया नेतृत्व, नई क्रांति: इतिहास के पन्नों को पलटकर देखा जाय , तो उस दौर में न बीजेपी दिखाई पड़ती थी और ना ही कांग्रेस...बस इकलौता एक क्षेत्रीय दल था , जिसने उत...
नया नेतृत्व, नई क्रांति
इतिहास के पन्नों को
पलटकर देखा जाय, तो उस दौर में न
बीजेपी दिखाई पड़ती थी और ना ही कांग्रेस...बस इकलौता एक क्षेत्रीय दल था, जिसने उत्तरांचल
की आजादी की जंग छेड़ी और आज के उत्तराखंड के लिए उत्तराखंडियों के बीच अलख जगाई
थी। लोगों के दिलों में गुस्सा था। मन में सुनहरे उत्तराखंड का सपना, मानो बेहतर
प्रदेश की सूरत हिचकोले ले रही थी। उस दौर की लड़ाई में वहां रहने वालों को बस
आजादी के सिवाय कुछ और नहीं दिखता था। अलग राज्य की धधकती ज्वाला में मानो एक दल
तप रहा था। उसी तपन, दिल की धड़कन और
आजादी की दीवानगी ने एक दल को जन्म दिया। जिसका सरोकार भी क्रांति से था, लिहाजा उसका
नामकरण भी ठीक वैसे ही हुआ,
जैसा उसका स्वभाव
था। ‘उत्तराखंड
क्रांति दल’ इस क्रांति की
ज्वालामुखी में सारे जुल्मों सितम जलकर खाक हो गए। केंद्र से राज्य तक ने घुटने
टेक दिए, मसलन तत्कालीन
अटल बिहारी वाजपेयी सरकार को अलग उत्तरांचल का एलान करने के लिए मजबूर होना पड़ा।
तब आजाद उत्तराखंड की सुहानी सुबह में धीरे धीरे क्रांति की आग शांत होने लगी।
क्योंकि उत्तराखंड आजाद हो गया था। वहां की हुकूमत पर किसी की सियासत नहीं चलती
थी। लिहाजा खुशी में धीरे धीरे पुराने जख्म भरने लगे। और उत्तराखंड क्रांति दल
सियासत के मैदान से दूर अपने अंत को तलाश रहा था। इस बीच ऐसा लगा कि मानो
उत्तराखंड पर काबिज बीजेपी और कांग्रेस ने फिर से उत्तराखंड को जंजीरों में जकड़
लिया हो। उत्तराखंड को बेड़ियों में जकड़ता देख उत्तराखंड क्रांति दल मानो जख्मी
शेर की तरह दहाड़ मारने लगा। जिसने बीजेपी, कांग्रेस तक की नींव हिला दी। क्योंकि उक्रांद की बहादुरी
त्याग और बलिदान से सियासत के सूरमा भलिभांति परिचित थे। लिहाजा उसकी दहाड़ सुन
सबके कान खड़े हो गए।
मुमकिन था कि ये दल लोगों
के लिए सूबे में तब पहला विकल्प था। लेकिन आपसी लड़ाई ने इस दल के रुप को कुरूप कर
दिया। तमाम रेखाओं को मिटा डाला, पदचिन्हों तक को मिटा दिया। इस दल की अवधारणा तब हुई थी। जब
यूपी के पहाड़ी जिलों को राज्य बनाने की बात चल रही थी। लेकिन किसी भी कीमत पर
यूपी को ये बंटवारा मंजूर नहीं था। मसलन जंग का आगाज होना लाजमी था। जिसके लिए
साहसी लोगों की जरुरत थी। इस जरुरत को पूरा करने के लिए 26 जुलाई 1979 को आजादी के
मतवालों ने उत्तराखंड क्रांति दल का गठन किया। तब से शुरू ये जंग अब तक समाप्त नहीं
हो पाई है। बस कुछ समय के लिए शांत जरूर हो जाती है। मसलन अब ये जंग फिर से उफान
पर है। और इस बार इस दल ने बाकी राजनीतिक दलों को उत्तराखंड से खदेड़ने की जंग
छेड़ दी है। उत्तराखंड क्रांति दल लंबे समय से उपेक्षित हिमालयी क्षेत्र के विकास
के लिए एक सफल आंदोलन के रूप में उभरा। जिसका मकसद उत्तराखंडियों की आवाज बुलंद
करना था। उनको उनका अधिकार दिलाने का था। जब लोगों की भावनाओं का हनन होने लगा।
सूबे के लोगों पर आंच आने लगी, अधिकारों पर डाका पड़ने लगा। तो, यहां टकराना
जरुरी था।
जंग की आहट सुनाई पड़ी तो
मानो उत्तराखंड क्रांति दल भी नींद से जाग गया। क्योंकि आजाद हवा में सांस लेने
वाले मतवालों को गुलामी की बेड़ियां कैसे जकड़ पाती। अब जाग गये तो बस जाग ही गए, फिर नींद कहां
आने वाली है और अंगड़ाई लेने के साथ ही नई उर्जा के संचार के लिए इस क्रांति की
जिम्मेदारी मजबूत और नौजवान कंधों पर डाल दी। इससे पहले काशी सिंह एरी जैसे कुशल
रणनीतिकार के जिम्मे थी। जो अब पार्टी को और मजबूती देना चाहते थे। लिहाजा दल को
नई उर्जा देने की जिम्मेदारी, दल को सजाने संवारने की जिम्मेदारी युवा कुशल और होनहार
पुष्पेश त्रिपाठी को सौंपी गई। अब उम्मीद है कि इस दल की क्रांति फिर से एक नई
क्रांति लाएगी और उत्तराखंड और उत्तराखंडियों को अपने सपनों का उत्तराखंड मिलेगा।
नोट- ये मेरे निजी विचार
हैं।
Thursday 14 May 2015
कलम की आवाज: केजरीवाल को चिठ्ठी
कलम की आवाज: केजरीवाल को चिठ्ठी: दिल्ली का के ’ जरी ’ वार इतना निकम्मा हो जाएगा। किसी ने चुनाव के वक्त ऐसा नहीं सोचा था, लेकिन सत्ता है ये, सियासत में ऐसा होता है। जब सि...
केजरीवाल को चिठ्ठी
दिल्ली का के’जरी’ वार इतना निकम्मा हो जाएगा। किसी ने चुनाव के
वक्त ऐसा नहीं सोचा था, लेकिन सत्ता है ये, सियासत में ऐसा होता है। जब सियासत का
रंग चढ़ता है, तो घोड़ों, गधों को भी अपनी जमात में शामिल कर लेता है। सब पर एक ही
रंग चढ़ जाता है। अपार बहुमत मिल जाए, तो जुबान और दिल दिमाग पर तानाशाही कुंडली
मारकर बैठ जाती है। ऐसे में केजरीवाल भला आलोचना कैसे बर्दाश्त कर सकते हैं। दिल्ली
सरकार, आम आदमी पार्टी और अपनी नाकामियों, मनमानियों को दिखाने पर मीडिया की हत्या
करने पर उतारू हो गए। बाकायदा सर्कुलर जारी कर मीडिया को खुलेआम धमकी दी, कि यदि किसी
भी माध्यम से सरकार की छवि खराब की गयी तो, उस संस्थान, पत्रकार पर मानहानि का
दावा करेंगे। खैर, बेचारे केजरीवाल को जनता ने सरताज तो बना दिया। लेकिन सुप्रीम
कोर्ट ने उसके अरमानों पर पानी फेर दिया। कोर्ट ने मीडिया के खिलाफ जारी सर्कुलर
पर रोक लगा दी। अब क्या करे बिचारा केजरीवाल, ये तो वही हाल हुआ, खिसियानी बिल्ली
खंभा नोचे। कान खोल कर सुन लो अरविंद केजरीवाल, मीडिया आपकी बपौती नहीं है। तुम्हारे
इशारों पर नाचने वाली कठपुतली नहीं है। प्रजातंत्र का महत्वपूर्ण अंग है मीडिया, या
कहें कि चौथा स्तंभ है। जिसके बिना लोकतंत्र अपाहिज हो जाता है। एक केजरीवाल के
लिए 125 करोड़ जनता को बेवकूफ नहीं बना सकती है मीडिया। ये काम तो सिर्फ केजरीवाल
और उनकी पार्टी को शोभा देता है। क्योंकि जो अधिकार पत्रकार के पास है, वो अधिकार
देश के हर नागरिक के पास है। मीडिया केजरीवाल जैसा बेईमान नहीं है। जो सत्ता की
लालच में अपने आदर्शों की बलि चढ़ा दे। अपने मार्गदर्शक को कुचल कर उसकी लाश पर
खड़ा हो जाए। वो भी विलासिता पूर्ण जीवन के लिए, तानाशाही के लिए। ये वही केजरीवाल
हैं जो दिल्ली के खंभों पर चढ़कर तार काटते थे, आए दिन खुलासा करते थे। तब मीडिया
पूरे देश को बताती थी। ईमानदारी की चादर ओढ़े बेईमान भेड़िए की कहानी। वरना आज कुछ
लोगों को छोड़कर कोई नहीं जानता, कि ये केजरीवाल है कौन, किस खेत की मूली है।
मीडिया की पैदाइश आम आदमी पार्टी है। दिल्ली की सरकार है। याद रखना जो किसी को बनाने
का माद्दा रखता है वो बिगाड़ने का माद्दा भी रखता है।
क्या सत्ता का नशा ऐसा ही होता है, जब मिलता है
तो उसकी मद में इंसान अंधा हो जाता है। हो ना हो, लेकिन आप को देखकर ऐसा ही लगता
है। कि आप में अरविंद केजरीवाल जैसा ईमानदार कोई और नहीं है। हां कुछ उनके भड़वें
भी हैं, जिन्हे केजरीवाल ने ईमानदारी का लाइसेंस दिया है। वरना पहले वसंत से पहले
पतझड़ की बहार नहीं आती, कितनों ने केजरीवाल की तानाशाही से तंग आकर पार्टी से
तौबा कर लिया। लेकिन रस्सी जल गई पर बल नहीं गया। अपने खून पसीने से सींचने वाले कितने
कार्यकर्ता, नेता पार्टी से नाता तोड़ गए। लेकिन केजरीवाल की अकड़ कम नहीं हुई। उपर
से जिस स्वराज का जिक्र करते थे हर समय, जिस स्वराज के दम पर बड़ी बड़ी पार्टियों
को चुनौती देते थे। उसका भी कत्ल कर आए। अब केजरीवाल की ये काली करतूत मीडिया दिखाए।
तो भला उन्हे रास कैसे आए, वो भी जब अपार बहुमत वाली सरकार की मुखालफत के बदले
खिलाफत कर रही हो मीडिया। इसलिए केजरीवाल ने भी मीडिया को पाबंद करना ही उचित
समझा। ताकि उनकी करनी उजागर ना हो। ये वही केजरीवाल है जो मुझे चाहिए पूरी आजादी,
मुझे चाहिए स्वराज की टोपी लगाकर चलता था। जनता की बात करता था। अब जनता की आजादी,
सहूलियत की बात नहीं सिर्फ अपनी सहूलियत की बात करता है। विनाश काले विपरीत
बुद्धि। ये तुगलकी फरमान ही केजरीवाल की बरबादी की नींव है। अब नींव तो पड़ गयी है
बस इमारत बनने की देर है। वैसे भी मीडिया को बैन करना इतना आसान नहीं है अरविंद
केजरीवाल। जय हो मीडिया, जय हो अदालत, सच्चे का बोलबाला झूठे का मुंह काला।
Wednesday 6 May 2015
कलम की आवाज: 13 साल बाद जीता इंसाफ
कलम की आवाज: 13 साल बाद जीता इंसाफ: आज फिर इंसाफ जीत गया, लेकिन लंबे वक्त ने इस जीत की खुशी को काफूर कर दिया। 13 साल से पीड़ितों के जख्मों को जिस कदर कुरेदा गया। इंसाफ मिलन...
13 साल बाद जीता इंसाफ
आज फिर इंसाफ जीत गया,
लेकिन लंबे वक्त ने इस जीत की खुशी को काफूर कर दिया। 13 साल से पीड़ितों के
जख्मों को जिस कदर कुरेदा गया। इंसाफ मिलने के बाद भी उसकी भरपाई नहीं हो सकती,
फिर भी उन्हे संतोष तो करना ही पड़ेगा। क्योंकि गरीब के हिस्से में सिर्फ संतोष कि
सिवा कुछ आता नहीं। मुंबई की चमचमाती सड़कें, चकाचौंध रातें, आलीशान महलों में
रहने वालों को गरीबी का मोल। तेरह साल बाद सलमान खान को कोर्ट ने पांच साल की कैद
और 25 हजार रूपए जुर्माना देने का फरमान सुना दिया। जिन धाराओं में आरोप साबित
हुआ, उसमें दस साल की सजा का प्रावधान है। लेकिन कोर्ट ने देश सजा कम कर दी, इस
बिनाह पर कि सलमान ने 600 बच्चों का इलाज कराया, 42 करोड़ रूपए चैरिटी को दिए। इस
सबसे उन मजलूमों का क्या नाता, जो 13 साल से हर पल कार के नीचे रौंदे जाते रहे, हर
पल तिल तिल कर मरते रहे, उनकी जिंदगी उन पर बोझ बन गयी। किसी के बहन की शादी नहीं
हुई तो कोई जिंदगी भर के लिए अपाहिज हो गया। लेकिन कोर्ट भी उनकी बेबसी पर
धृतराष्ट्र बन गया।
खैर सलमान का आशियाना अब
ऑर्थर रोड जेल बन गया है। उनके वकील जमानत के लिए हाई कोर्ट पहुंच गए, लेकिन सजा
सुनते ही सलमान की आखें आसुओं से डबडबा गयीं। जुबान पर ताला लगा लिया, लेकिन आंखों
से सबकुछ बयां करते रहे और सिर झुकाकर स्वीकार करते रहे। कोर्ट का फैसला
सुन उनकी मां बेहोश हो गयी। बहनें आंसू बहाती रही और भाई भारी मन से अदालत के बाहर
निकल गए।
फैसला सुनकर उनके परिवार
सदमें में पहुंच गया। लेकिन वो पल वो लोग भूल गए जब सलमान की लापरवाही ने बच्चों
को अनाथ कर दिया। गरीबों के पेट की रोटी छीन ली। बहन कुंआरी रह गयी। गरीबी का बोझ
ढोने की ताकत क्षीण कर दी। जब शराब के नशे में चूर सलमान को सड़क और इंसान में
फर्क करना नहीं आया। उनकी मौजमस्ती ने कितनों का निवाला छीन लिया।
कोर्ट को ये साबित करने
में 27 गवाहों के बयान दर्ज करने पड़े, 13 साल तक सुनवाई करनी पड़ी, नतीजा अब आपके
सामने है। खैर कोर्ट के फैसले से लोगों में कानून के प्रति सम्मान तो बढ़ा है।
लेकिन इस फैसले का हात तो उसी कहावत को चरितार्थ करती है कि ‘का वर्षा जब कृषि
सुखानी’ उपर से इस सजा से उन गरीबों का पेट तो भरने से
रहा, जिस पर कोर्ट ने गौर नहीं किया। जबकि हिंदुस्तान की न्याय व्यवस्था इतनी
बोरिंग है कि जिंदगी गुजर जाती है, पीढ़ीयां खत्म हो जाती हैं। आरोपी दुनिया छोड़
देता है, लेकिन न्यायिक लड़ाई अपनी रफ्तार से चलती रहती है। इस व्यवस्था में बदलाव
नहीं किया गया तो। ये कानून भी बस जिंदगी चलाने की सांस जैसी हो जाएगी। जो सिर्फ नाम
के लिए रहेगी, पर वो जिंदगी रहकर भी मौत से बदसूरत लगती है।
Monday 27 April 2015
तबाही के तीन दिन
आज मन बहुत उदास है, दिल दुखी है, क्योंकि चारों
ओर बस चीख ही चीख सुनाई पड़ रही है। लाशों का ढेर लगा है, मलबों से मुर्दे चीख रहे
हैं। नजर जिधर पड़ती, बस तबाही के सिवा कुछ नहीं दिखता। मकान जमींदोज, मंदिर धराशाई
और सड़कों में भूस्खलन। जो जिंदगी बची भी है। ना जाने किस कदम पर मौत के मुंह में
समा जाए। क्योंकि हर कदम पर मौत की आहट सुनाई पड़ रही है। इस त्रासदी में इंसान तो
इंसान भगवान भी खुद को नहीं बचा पाए। हे भगवान ये कैसा न्याय है।
शनिवार को कुपित शनिदेव ने तबाही का ऐसा खेल
खेला कि जो गए सो गए, जो बचे हैं उस तबाही की चीख उनके कानों में ताउम्र सुनाई
पड़ेगी। दिन में करीब 12 बजे भूकंप ने जो तांडव मचाया, उससे हजारों जिंदगियां मौत
की आगोश में समा गयीं। हंसता, मुस्कराता काठमांडू कब्रिस्तान बन गया। इस जलजले में
जो बचे भी वो राहत के अभाव में दम तोड़ गए। आर्थिक रूप से कमजोर छोटे से नेपाल के
लिए कुदरत ही जालिम बन गयी। ऐसा मंजर किसी ने शायद ही देखा हो, क्योंकि 81 साल
पहले इस तरह का जलजला आया था। लेकिन इस जलजले ने काठमांडू के खूबसूरत चेहरे को
इतना बदसूरत बना दिया कि उसका नाम लेने मात्र से ही रूह तक कांप उठती है।
इस संकट से नेपाल की चीख जैसे ही हिंदुस्तान के
कानों में पड़ी। पीड़ितों को बचाने के लिए भारत सरकार ने धरती से आसमान तक को एक
कर दिया। जहां से और जैसे भी संभव हो मदद किया। ये मदद नहीं मानवता का धर्म कहिए,
पड़ोसी होने का फर्ज कहिए, सच्ची दोस्ती की अच्छी तस्वीर कहिए। दोस्ती की नई
परिभाषा कहिए, नेपाल की ओर मदद का हाथ बढ़ाने वाले पहले मुल्क हिंदुस्तान की
दुनिया में जय जयकार हो रही है। प्रधानमंत्री की तत्परता का गुणगान हो रहा है।
जबकि भारत की दरियादिली देख दुनिया के कई मुल्क शर्म से पानी पानी हैं और नेपाल की
मदद को सामने आ रहे हैं, भूकंप के तुरंत बाद भारत सरकार ने फौरन NDRF के कई दस्तों को नेपाल रवाना
किया, वायुसेना के हेलीकॉप्टर आसमान में उड़ने लगे। सरकारी और गैर सरकारी टेलीकॉम
कंपनियों ने कम दर में और मुफ्त में नेपाल बात करने की छूट दी। यूपी सहित कई
राज्यों ने सैकड़ों ट्रक राहत सामग्री भेजकर पीड़ितों की मदद की। त्रासदी पीड़ितों
की रक्षा के लिए हिंदु, मुस्लिम, सिख, ईसाई सभी के हाथ दुआओं के लिए उठे। किसी ने पूजा
की, तो किसी ने खुदा से रहम करने की गुजारिश की। खैर ये सब तो चलता रहा, और भूकंप
लुका छिपी का खेल खेलता रहा। लोगों के दिलों में दहशत इस कदर समा गयी कि जो घर
उन्हे स्वर्ग से भी सुंदर लगता था। वही कब्रिस्तान लगने लगा। प्रधानमंत्री हर दिन
समीक्षा बैठक करते, हर समय फोन से जानकारी जुटाते रहते। सोमवार को जब संसद की
कार्यवाही शुरू हुई। दोनों सदनों में सन्नाटा था, सबकी आंखें नम थी, सत्ता पक्ष और
विपक्ष सब के सब त्रासदी पर मौन थे, मृतकों को श्रद्धांजलि देने के लिए। मौन टूटा,
कार्यवाही शुरू हुई, तो तबाही के इस मंजर को सबने अपने अपने तरीके से बयां किया।
सरकार की तरफ से संसदीय कार्यमंत्री वैंकैया नायडू ने सभी सांसदों से एक महीने की
तनख्वाह पीड़ितों के नाम करने की अपील की। जिसका करीब सभी सदस्यों ने समर्थन किया।
खैर ऐसा कम ही होता है, जब निजी स्वार्थ को छोड़कर, बिना शोर शराबे के किसी मुद्दे
पर सभी सदस्य एकमत हों, लेकिन यहां सभी संसदों ने मानवता का फर्ज अपनी तनख्वाह
देकर निभाया और ऐसा करके हिंदुस्तान ने अपनी ताकत का अहसास कराया कि हम फिर से
विश्व गुरू बनकर रहेंगे। कहते हैं कि जाके पांव न फटी बिवाई वो का जाने पीर पराई।
लेकिन ये तो हिंदुस्तान है जो सेवा को परम धर्म मानता है। इसलिए अपनों के साथ साथ औरों
को भी संकट से उबारने में धरती आसमान एक कर दिया।
Friday 24 April 2015
सिर्फ फाइलों में सिसक कर दम तोड़ रही शिक्षा की सूरत
परिस्थितियां बदलीं, लोग बदले, क्या शिक्षा का
वो स्वरुप बदला जिसके बल पर एक सामाजिक स्वरुप का ताना बाना बुनने की कल्पना किए
बैठे हैं हम सभी? शायद नहीं ! आज
के इस भौतिक, आधुनिकता रुपी
वातावरण में शिक्षा का स्वरुप ही बदल चुका है। शिक्षा की परिभाषा ही बदल चुकी है।
अगर हम शिक्षा के मूल स्वरुप की व्याख्या करें तो हमेशा से ही इसमें रोजी, रोटी और रोजगार
के साथ-साथ मानवीय समाजिक कर्तव्य भी मुख्य रुप से समाहित रहा है, पर आज के इस
उदारीकरण, निजीकरण, वैश्वीकरण रुपी
परिवेश में हमने जिस शिक्षा की व्याख्या की उसमें केवल मात्र रोजी, रोटी एवं रोजगार
को समाहित किया है और इसके मूल आधार जैसे व्यक्त्वि का विकास, नैतिकता, समाजिक दायित्व, मानवीय कर्तव्य
आदि की पूर्णरुपेण अनदेखी कर दी। आज इस शिक्षा पद्धति का परिणाम हम सबों के सामने
है।
शिक्षा का मूल मंत्र केवल आर्थिक संवृद्धि तक सिमट चुका है। आज के मां बाप अपने बच्चों को वैसी शिक्षा देने को आतुर नजर आते हैं। जिससे ये अधिक से अधिक आर्थिक संवृद्धि प्राप्त कर सकें, जिसके सहारे ये बच्चे अपनी सारी भौतिक सुख सुविधाओं का लाभ उठा सकें। अगर देखा जाऐ तो आखिर ये क्या है, शिक्षा के व्यवसायीकरण के सिवाय। अब हम सभी सहज ही अंदाजा लगा सकते हैं, कि ये बच्चे जब ऐसी शिक्षा प्राप्त कर समृद्धि की ओर कदम बढ़ाऐंगे तब इनका लक्ष्य एवं उद्देश्य क्या होगा? सिर्फ पैसा कमाना, ज्यादा से ज्यादा भौतिक सुख सुविधा की प्राप्ति। फिर ऐसी, शिक्षा प्राप्त युवाओं से आगे चलकर मौलिकता, नैतिकता, उत्तरदायित्व, समाजिक-सांस्कृतिक सरोकार आदि से आस लगाऐ रखना, ये कहां तक जायज होगा, किस हद तक सही माना जाऐगा, ये सोचने वाली बात है।
शिक्षा का मूल मंत्र केवल आर्थिक संवृद्धि तक सिमट चुका है। आज के मां बाप अपने बच्चों को वैसी शिक्षा देने को आतुर नजर आते हैं। जिससे ये अधिक से अधिक आर्थिक संवृद्धि प्राप्त कर सकें, जिसके सहारे ये बच्चे अपनी सारी भौतिक सुख सुविधाओं का लाभ उठा सकें। अगर देखा जाऐ तो आखिर ये क्या है, शिक्षा के व्यवसायीकरण के सिवाय। अब हम सभी सहज ही अंदाजा लगा सकते हैं, कि ये बच्चे जब ऐसी शिक्षा प्राप्त कर समृद्धि की ओर कदम बढ़ाऐंगे तब इनका लक्ष्य एवं उद्देश्य क्या होगा? सिर्फ पैसा कमाना, ज्यादा से ज्यादा भौतिक सुख सुविधा की प्राप्ति। फिर ऐसी, शिक्षा प्राप्त युवाओं से आगे चलकर मौलिकता, नैतिकता, उत्तरदायित्व, समाजिक-सांस्कृतिक सरोकार आदि से आस लगाऐ रखना, ये कहां तक जायज होगा, किस हद तक सही माना जाऐगा, ये सोचने वाली बात है।
आज इतने समृद्ध होने के
बावजूद इन युवाओं में अनैतिकता, अव्यवहारिकता देखने एवं सुनने को मिल रही है, तो इनमे इनका
क्या दोष। हमने ऐसी ही पौध तैयार की है, हमने केवल मात्र व्यक्तिगत स्वार्थ की पूर्ति के आधार पर
अपनी शिक्षा प्रणाली को परिभाषित किया है जो मानवीय विचारों को बहुकेंन्द्रित होने
की जगह आत्मकेंन्द्रित कर रही है।
जो गरीब हैं, पिछड़े हैं उनकी
बात छोड़िये उन बेचारों को वहीं लुंज-पुंज अव्यवस्थित सरकारी स्कूलों में पढ़ना
पड़ता है, जहां ना कोई
उद्देश्य है और ना कोई लक्ष्य, जो इनकी मजबूरी है। अगर इन स्कूलों से कोई बच्चा शिक्षित
बनकर निकलता है तो ये उनका अहो भाग्य है। नहीं तो ज्यादातर साक्षर भी नहीं बन पाते
इन स्कूलों में। फिर इनसे समाजिक, मानवीय कर्तव्य की कल्पना करना शायद उचित नहीं होगा।
लेकिन जो साधन संपन्न है, जिन्होंने आज के
वातावण के अनुकूल व्यवसायिकता से परिपूर्ण रोजगार परक शिक्षा प्राप्त की है। वो
मानवीय, समाजिक
उत्तरदायित्व के दायरे में कहां तक आते हैं? आज इसका परिणाम सबके सामने है। भौतिकता, आधुनिकता से
लवरेज ये युवा आज हैरान और परोशान क्यों हैं? साधन संपन्नता के बावजूद चेहरे पर वो मुस्कुराहट क्यों नहीं
है? घर से लेकर दफ्तर
तक क्यों मानसिक उलझन में फंसे दिखाई पड़ रहे हैं? महानगरों में रहने वाले ये युवा, सारी भौतिक
इच्छाओं की पूर्ति करने में सक्षम ये युवा बात-बात पर क्यों आक्रोशित हो रहे हैं? बात-बात पर हिंसक
हो रहे हैं, या तो वो खुद को
नुकसान पहुंचाते हैं या फिर दूसरों को। युवओं की वो धैर्य, सहनशीलता, संघर्ष करने की
क्षमता, आत्मविश्वास, ईमानदारी, स्पष्टता आखिर
चली कहां गई? क्या कभी गौर
किया है हम सभी ने इन बातों पर। बिल्कुल नहीं, क्योंकि हम सबों ने शिक्षा को सिर्फ व्यवसायिकता के सांचे
में समाहित किया, इसे ही सर्वोपरि
माना। क्योंकि एक प्रचलित कहावत है कि बोऐ पेंड़ बबूल का तो आम कहां से होय।
आज शिक्षा की यही संकुचित
व्याख्या समाज को कमजोर कर रही है, समाजिक मूल्यों एवं नैतिकता के दायरे को समेटती चली जा रही
है। लोग भौतिक सुख साधनों मे ही अपने-अपने समाजिक सरोकार, मानवीय संवेदनाएं, समाजिक भावनाएं
ढ़ूंढ रहे हैं। यही सोच कहीं ना कहीं शिक्षित एवं साक्षर के बीच एक सीमा रेखा
खींचती है।
आश्चर्य होता है, जब समाज के कुछ
प्रबुद्ध वर्ग भौतिक शैक्षणिक पद्धति को समय की मांग के आधार पर जायज ठहराने की
कोशिश करते नजर आते हैं। इनका तर्क होता है, कि आज का युवा हाईटेक हो गया है, बड़ी तीव्र गति
के साथ आगे बढ़ रहा है।
ये बात सत्य है, युवा भौतिक रुप से हाईटेक दिख रहा है, पर क्या मानसिक रुप से भी है, वैचारिक रुप से, समाजिक-सांस्कृतिक रुप से, मानवीय रुप से ये युवा आज भी हाईटेक हो पाया है? खासकर शहरों में रहने वाले उन युवाओं के युवा रुपी परिवेश में दिन प्रतिदिन घटित हो रही घटनाओं पर नजर दौड़ाएंगे। तो साफ पता चल जाएगा। मैं इस लेख के माध्यम से इस प्रकार का प्रश्न संपूर्ण युवा रुपी सोच पर नहीं उठा रहा हूं। आज भी बहुत से युवा ऐसे हैं जो हाईटेक होने के साथ-साथ, आर्थिक संमृद्धि पाने के साथ-साथ अपने समाजिक सरोकारों को नहीं भूले, वो भली भांति अपने कर्तव्यों को मुस्कुराते हुए निभा रहे हैं। ये तो इनकी अपनी क्षमता है जिसके कारण व्यवसायिक, शैक्षणिक पद्धति में अपने सोच की व्यापकता को हमेशा बनाऐ रखा। पर सभी युवाओं में क्या ऐसी क्षमता हो सकती है, बिल्कुल नहीं, इसलिए महत्वपूर्ण प्रश्न खड़ा होता है इस शिक्षा पद्धति की दशा दिशा को लेकर।
ये बात सत्य है, युवा भौतिक रुप से हाईटेक दिख रहा है, पर क्या मानसिक रुप से भी है, वैचारिक रुप से, समाजिक-सांस्कृतिक रुप से, मानवीय रुप से ये युवा आज भी हाईटेक हो पाया है? खासकर शहरों में रहने वाले उन युवाओं के युवा रुपी परिवेश में दिन प्रतिदिन घटित हो रही घटनाओं पर नजर दौड़ाएंगे। तो साफ पता चल जाएगा। मैं इस लेख के माध्यम से इस प्रकार का प्रश्न संपूर्ण युवा रुपी सोच पर नहीं उठा रहा हूं। आज भी बहुत से युवा ऐसे हैं जो हाईटेक होने के साथ-साथ, आर्थिक संमृद्धि पाने के साथ-साथ अपने समाजिक सरोकारों को नहीं भूले, वो भली भांति अपने कर्तव्यों को मुस्कुराते हुए निभा रहे हैं। ये तो इनकी अपनी क्षमता है जिसके कारण व्यवसायिक, शैक्षणिक पद्धति में अपने सोच की व्यापकता को हमेशा बनाऐ रखा। पर सभी युवाओं में क्या ऐसी क्षमता हो सकती है, बिल्कुल नहीं, इसलिए महत्वपूर्ण प्रश्न खड़ा होता है इस शिक्षा पद्धति की दशा दिशा को लेकर।
शिक्षा का तात्पर्य है
सर्वांगीण विकास अर्थात आर्थिक संवृद्धि के साथ-साथ समाजिक–सांस्क़तिक
संवृद्धि। किसी एक को छोड़ कर हम शिक्षा की सही परिभाषा नहीं गढ़ सकते हैं, अगर परिभाषित
करने की कोशिश की तो इसमें विकृति आ जाएगी। जिसका परिणाम बड़ा भयावह होगा। जिसकी
कल्पना करना शायद किसी के बस की बात ना हो।
आधुनिकता की व्याख्या आज
हम ठीक इसी आधार पर करते दिख रहे हैं। क्या केवल मात्र भौतिक सुख साधन की प्राप्ति
ही आधुनिकता है, बिल्कुल नहीं।
आधुनिकता एक व्यापक शब्द है, जो मानवीय मानसिकता से जुड़ी होती है आपकी सोचने समझने की
क्षमता, आपकी कल्पनाशीलता, दूरदर्शिता, अपने कर्तव्यों
उत्तरदायित्वों को समझना,
सही क्या है गलत
क्या है संपूर्ण मानवीय परिवेश में महसूस करना, यही तो सच्ची आधुनिकता है। आधुनिकता को आप सभ्यता से जोड़
सकते हैं जो कभी नहीं बदलता पर भौतिक सुख साधन संस्कृति से जुड़ा प्रश्न है जो समय, स्थान, परिवेश के अनुसार
बदलता रहता है पर दोनों एक–दूसरे के बिना
अधूरे हैं।
आज हम सबों को समझना होगा, शिक्षा के इस मूल
मंत्र को। इसकी इनदेखी ही समाज में नैतिक मूल्यों में गिरावट के रुप में देखने को
मिल रही है। समाज जात, धर्म, क्षेत्र, लिंग में बंटा
दिख रहा है। भ्रष्टाचार शिष्टाचार का रुप धारण कर चुका है। जिसके परिणाम स्वरुप
मंहगाई, बेरोजगारी, अव्यवस्था अपना
मुंह बाएं खड़ी है।
आज हम इसी व्यवसायिक
शिक्षा के आधार पर आर्थिक सम्पन्नता का आंकड़ा प्रस्तुत कर रहे हैं। कुछ मुट्ठी भर
लोगों के आर्थिक हित को पूरे देश का आर्थिक हित बतलाते हैं। आज इसी का परिणाम है
कि हम अपनी सोच को एक सीमित दायरे से बाहर नहीं निकाल पाते हैं। ज्ञान तो है
काबिलियत तो है, पर वो शैक्षणिक
परिवेश, वो शैक्षणिक
ढ़ांचा नहीं है जिसके बल पर एक व्यापक दृष्टिकोण प्रस्तुत कर सकें।
आज जरुरत है फिर देश को
संमूर्ण शिक्षा पद्धति पर गौर करने की, इसको लेकर एक व्यापक सहमति बनाने की एवं एक जरुरी कदम उठाने
की। ताकि शिक्षित एवं साक्षर के बीच जो अंतर है वो समाप्त हो जाऐ। जिसके बल पर हम
सभी एक संतुलित आर्थिक मानवीय परिवेश की स्थापना कर सकें।
आकुल व्याकुल मन में जगी
जानने की अभिलाषा ।
भारतीय जन मानस में क्या
है शिक्षा की परिभाषा ?
गुरु वचन को धारण कर
बरसात में खेत को जाना ।
शिष्य खोज में व्याकुल
होकर वत्स वत्स चिल्लाना ॥
जल धारा रोकने हेतु आरुणी
का मेड़ पर लेट जाना ।
भक्ति भावना से आह्लादित
शिष्य को गले लगाना ॥
गुरु के सानिध्य में
प्रेम पूर्वक जहां बुझे जिज्ञासा ।
भारतीय जन मानस में शिक्षा
की यही परिभाषा ॥
Thursday 5 March 2015
मुर्दा कानून में नहीं विश्वास
हिंदुस्तान की आंखों का
पानी शर्म से सूख गया है...वो भी महज इसलिए की न्याय व्यवस्था की रफ्तार इतनी
सुस्त है कि आज दुनिया के सामने शर्मिंदा होना पड़ रहा है...16 दिसंबर 2012 की वो
काली रात, दिल्ली में चलती बस में
हुए गैंगरेप ने देश की आत्मा तक को झकझोर दिया...देर तो आए, फिर भी दुरूस्त नहीं
आए...दामिनी के दरिंदों को फांसी दिलाने की मांग देश के हर कोने से उठी...लेकिन
भारत में कानूनी लड़ाई इतनी लंबी है...कि आरोपी बेझिझक वारदात को अंजाम देने में
नहीं हिचकता..दामिनी के लिए संसद से सड़क तक कोहराम मचा रहा...महीनों तक सड़कें
आंदोलनकारियों से पटी रहीं...इंडिया गेट तो मानों दामिनी की समाधि बन गयी थी...हर
शाम जगह जगह कैंडल मार्च ने देश को जगा दिया...सरकार ने मजबूरी में ही सही महिला
सुरक्षा कानून को कठोर बना दिया...लेकिन दामिनी के दरिंदे फिर भी इस कानून से बच
निकले...कानून तो कठोर बन गया...लेकिन महिला सुरक्षा का कोई पुख्ता इंतजाम नहीं हो
पाया...इससे भी अधिक अफसोस तब होता है...जब अरुणा शानबाग का नाम सुनते हैं...दिल
और रूह तक कांप जाती है...उसके साथ हुई हैवानियत को सुनकर...जिसने उसे जिंदा लाश
बना दिया...चालीस साल से अस्पताल में पड़ी मौत का इंतजार कर रही है और आरोपी सात
साल बाद ही जेल से छूट गया..तब से आजाद घूम रहा है...मौत की आस में सुप्रीम कोर्ट
तक से न्याय की गुहार लगा चुकी है..लेकिन कोई भी उसकी आवाज सुनने वाला नहीं
है...जबकि महिला अपराध के खिलाफ बढ़ते आक्रोश का नमूना नागालैंड में देखने को
मिला...दिल को बड़ी तसल्ली मिली की कम से कम मुर्दा कानून की कोई जरूरत तो नहीं
पड़ी...जनता ने ही फैसला कर दिया...दीमापुर में एक आदिवासी लड़की से कई बार
बलात्कार करने वाले आरोपी को भीड़ ने पीट पीट कर मार डाला...फिर भी भीड़ का गुस्सा
शांत नहीं हुआ और 7 किलोमीटर तक घसीटते रहे इसके बाद
भी चौराहे पर सरेआम सूली पर लटका दिया...ये सरकारों की आंख खोलने के लिए काफी
है...सरकारों को चिंतन करना चाहिए की आखिर क्यों भीड़ हो गयी हत्यारी...इसलिए की
हिंदुस्तान की कानून व्यवस्था की कछुए जैसी चाल को खरगोश से भी तेज करना
होगा...तभी कानून के प्रति लोगों का विश्वास जिंदा होगा...नहीं तो अब जनता खुद ही
फैसला करेगी...अभी तो एक बीबीसी को भारत सरकार नहीं रोक पाई वो भी महज एक
डॉक्यूमेंट्री प्रसारित करने से...खैर वैसे भी प्रसारण रोक कर सरकार क्या दिखाना
चाहती है...शेर की खाल पहनने से गीदड़ कभी शेर नहीं बन जाता..जरूरत है कि भारत
सरकार चिंतन करे मंथन करे न्याय व्यवस्था को मजबूत करे...ताकि न्याय प्रणाली में
लोग विश्वास करें...संसद में महिला
सुरक्षा कानून भी बन गया...लेकिन स्थिति वही ढाक के तीन पात...कानूनी लड़ाई की
सुस्त रफ्तार के चलते आरोपियों के मन में खौफ नहीं है...अब भी सरकार की नींद नहीं
टूटी तो इस चिनगारी के साथ कारवां जुड़ता चला जाएगा...फिर कानून की अहमियत शून्य
हो जाएगी...अच्छा होगा कि सरकार समय रहते अंधे कानून के आंखों का इलाज करा ले...
वरना अंजाम क्या हो सकता है उसका ट्रेलर सबके सामने है..
Sunday 1 March 2015
मुफ्ती का दर्द जनता की अरदास
अभी चलना ही शुरू किया कि कदम
लड़खड़ा गए
कदम तो संभल गए साहब पर जुबान नहीं
संभली
6 साल साथ चलने का आइना पल भर में टूट
गया
10 साल बाद फिर दिल का दर्द छलक आया
कब तक जोड़ेंगे भविष्य के आइने को
अपने गम से
फिर पता चला की आइना तो बना ही है टूटने
की खातिर
अमन की अरदास और जिंदा कैसे रहे विकास
की रफ्तार
कुदरत की खूबसूरती को राजनीति ने
बदसूरत बना दिया
जमीं के जन्नत को भी अपने पराए में
बांट दिया
इंसानियत के लहू पर धर्म का मुलम्मा
चढ़ा दिया
कुर्सी की लालसा ने भाई को भाई का
कातिल बना दिया
सियासत के साजो सामान ने जनता को
आलसी बना दिया
मुफ्त बांटने की घोषणा ने अवाम को
काहिल बना दिया
हमें बख्श दो हिंदुस्तान की राजनीति
के रणनीतिकारों
अब हिंदू मुसलमां में न बांटो, हरे-लाल
रंग में न बांटो
मेरे दिल में हिंदुस्तान और हाथों
में तिरंगा रहने दो
Saturday 28 February 2015
बजट ने काटी जेब
ये है मोदी
सरकार...पूर्ण बहुमत की सरकार...विकास करने वाली सरकार...महंगाई कम करने वाली
सरकार...लेकिन जनता को सरकार कम, बोझ
अधिक लग रही है...बोझ लगे भी क्यों ना...कहते हैं कि सत्ता का नशा शराब से कई गुना
अधिक होता है...मोदी सरकार भी पिछले साल आम चुनाव में मिली एतिहासिक जीत से अहंकार
के सातवें आसमान पर पहुंच गयी...उससे भी अधिक उड़ान तब मिली जब ताबड़तोड़ हरियाणा, महाराष्ट्र, झारखंड
और जम्मू कश्मीर में शानदार प्रदर्शन किया तो अहंकार की सीमा पाताल में पहुंच
गयी...लेकिन देश की राजधानी दिल्ली जो खुद पूरा नहीं बल्कि अधूरा है और पार्टी जो
पुरानी नहीं बिल्कुल नई और अनुभवहीन रही...उसने तो हिंदुस्तान में दूसरे नंबर की
पार्टी बीजेपी को ऐसी पटखनी दी...जो इतिहास के पन्ने में हमेशा के लिए दर्ज हो
गया...वहां ना मोदी का जादू का चला..ना बीजेपी की आंधी...वहां तो आम आदमी ने पूरी
तरह से झाड़ू चलाकर कईयों की जमानत पर ताला लगा दिया...उस ताले को खोलने के लिए
बीजेपी के पास भी कोई चाबी नहीं है...
खैर जनता
की अरदास को उस समय गहरी ठेस पहुंची...जब वित्त मंत्री अरुण जेटली ने लोकसभा में
अपनी पोटली खोली...पोटली खुली तो कही खुशी कहीं गम से माहौल सराबोर हो गया और जनता
के अच्छे दिनों की आरजू का ख्वाब चकनाचूर हो गया...सर्विस टैक्स को 12.36% से
बढ़ाकर 14% कर जनता की जेब पर डाका डाला...7.4 फीसदी सकल घरेलू उत्पाद को बढ़ाकर
दो अंकों में पहुंचाने का लक्ष्य है...लक्ष्य कुछ भी हो ये तो आप ही जानते हैं
साहब...राजकोषीय घाटा, विदेशी
मुद्रा भंडार का लक्ष्य पूरा करना सरकार की जिम्मेदारी है...लेकिन उसका ये मतलब
कतई नहीं निकलता कि आम आदमी की जेब पर डाका डालकर उसकी भरपाई की जाय...आम आदमी
आंकड़ों की बाजीगरी को नहीं जानता...आम आदमी को सिर्फ इससे मतलब होता है...चावल, दाल और आटे के दाम में कितनी कटौती की गयी
है...लेकिन यहां तो सरकार ने छल छद्म का ऐसा खेल खेला...जिसे समझने में जनता के भी
पसीने छूट जाएंगे और सरकार आंकड़ों की जादूगरी का डंका पीट रही है...जबकि दिन में
जेब काटने से भी संतोष नहीं हुआ और शाम को डकैती डाल कर जनता को लूट लिया...पहले
बजट का शॉट देने के बाद डीजल पेट्रोल की कड़वी घूंट पिलाकर बेहोश कर दिया..फिर
क्या जी भर कर लूटपाट मचाया...अब जनता करे भी क्या...अच्छे दिन आने से रहे...हां
महंगाई के अच्छे दिन जरूर आ गए....
Monday 23 February 2015
काशी को खांसी
मंदिरों और घाटों की छटा पर इतराती काशी लंबे
वक्त से खांसी से परेशान है..लेकिन इसकी तरफ देखने की जहमत कोई नहीं उठाना
चाहता...धार्मिक नगरी काशी में बाबा विश्वनाथ और काशी हिन्दू विश्वविद्यालय सारनाथ
समेत प्राकृतिक सौंदर्य हर किसी को बरबस ही खींच लाता है...लेकिन वाराणसी में जिस
तरह की लूट खसोट मची है...उससे परिचित शख्स कभी काशी में कदम नहीं रखेगा...स्टेशन
पर उतरते ही ठगों का जाल काम करने लगता है...एक के बाद एक ठग बारी बारी से पास
जाते रहते हैं...और जेब तो दूर गला काटने से भी परहेज नहीं करते...इस काम में
उत्तर प्रदेश की मक्कार पुलिस भी बखूबी साथ निभाती है...वाराणसी से नरेंद्र मोदी
के चुनाव जीतने और प्रधानमंत्री बनने के बाद थोड़ी उम्मीद जगी थी कि शायद अब काशी
के माथे से दगाबाजी का कलंक मिट जाएगा...लेकिन ये तो और तेजी से पनपने लगा...अब तो
झूठ पर झूठ बोला जाता है...दस रूपए का सामान बताकर 40 रूपए वसूलने का सिलसिला हर
दिन उड़ान भरता है...काशी प्रशासन से लेकर यूपी सरकार और केंद्र सरकार तक सब मौन
है...यूपी सरकार तो पर्यटन का ढिंढोरा पीटते नहीं थकती...लेकिन कभी पर्यटकों को
होने वाली परेशानी पर चिंतन मंथन नहीं करती...करे भी क्यों और कैसे...जिसके जिम्मे
सेवा सद्भाव सुरक्षा की जिम्मेदारी है वही लुटेरा बन गया है तो फिर भगवान ही बचाए
राहुल की छुट्टी
दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के मंदिर में पूजा
शुरू हो गयी है...लेकिन इस पूजा में कांग्रेसी युवराज राहुल गांधी गैरहाजिर
रहेंगे...रहें भी क्यों ना ये तो उनकी मर्जी है...जनता ने तो वोट देकर भेजा था...कि
संसद में उनके हित की वकालत करेंगे...लेकिन ये साहब तो अपना हित साधने के लिए छुट्टी
पर निकल पड़े...वैसे भी संसद के सत्र के दौरान खर्राटे भरते रहे हैं...तो ऐसे में
रहे या न रहें क्या फर्क पड़ता है...कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी कोप भवन में चले गए हैं...वो भी ऐसे समय
में, जब संसद का बजट सत्र चल रहा है...लेकिन राहुल कैकेयी के रोल में नहीं
है...बल्कि चुनावी हार पर चिंतन और मंथन के लिए छुट्टी पर जा रहे हैं...कांग्रेस
की हार का सिलसिला यूं तो पिछले साल से बदस्तूर जारी है...लेकिन दिल्ली चुनाव के
नतीजों ने मुंह छुपाने को मजबूर कर दिया है...तो उनके भरोसेमंद सिपाही उनके बचाव
में खड़े हो गए...कांग्रेस के युवराज मन बहलाने के लिए छुट्टी पर हैं...ये बात
सत्तारूढ़ दल को हजम नहीं हो रही...कि आखिर सत्र के दौरान मन बहलाना जरूरी क्यों
हो जाता है...जब जनहित के मुद्दों पर सदन में चर्चा हो रही हो...भला राहुल को इसी
वक्त छुट्टी की जरूरत क्यों पड़ी...क्या कांग्रेस में सबकुछ ठीक नहीं चल
रहा...सवाल है कि क्या राहुल नाराज होकर छुट्टी पर गए हैं...या पार्टी में राहुल
को उतनी छूट नहीं मिल रही है जैसा वो चाहते हैं?...क्या कांग्रेस के
बड़े नेता उनके खिलाफ षड़यंत्र करते हैं...या पार्टी की गुटबाजी से परेशान हैं?...क्योंकि हर हार के
बाद कांग्रेस दफ्तर के बाहर ‘प्रियंका लाओ कांग्रेस बचाओ’ के पोस्टर से राहुल आहत हैं...कांग्रेस के इस जख्म पर बीजेपी नमक
छिड़कने में पीछे कैसे रहती और व्यंग करते हुए कहा कि संसद में राहुल गांधी का काम
ही कुछ नहीं तो फिर छुट्टी पर रहें या कोपभवन में कोई फर्क नहीं पड़ता..
Saturday 31 January 2015
राहुल पर लेटर बम
ये
हिंदुस्तान की राजनीति है...यहां हर नेता सियासी रसूख का भूखा है...सियासी चमक से
ही उसकी भूख मिटती है...प्यास बुझती है...उस रसूख के लिए कुछ भी कर गुजरता है...जिससे
उनके दिल को सुकून मिलता है...फिर क्या अपना और क्या पराया...जब दिल भर जाए तो
नीति और नीयत अपने आप ही बदल जाती है...30 सालों से कांग्रेस की सेवा करने वाली
जयंती नटराजन का दिल भी पार्टी से भर गया तो...पत्रों के जरिए अपने दिल का दर्द
बयां कर रहीं हैं...दर्द नहीं सह पाई तो कांग्रेस को ही अलविदा कह दिया...नटराजन
तो बिना नया ठिकाना ढूंढे पुराना घर छोड़ चलीं...उनका कद भी इतना छोटा नहीं है...कि
कोई उन्हें पनाह देने से मना कर सके...कांग्रेस का मजबूत पाया हटा तो पूरी इमारत
हिल गयी...अब सत्तारूढ़ बीजेपी कांग्रेसी किला ढहाने को तैयार है...जयंती पर अब
सीबीआई का फंदा भी पड़ सकता है...कांग्रेस पर हमले को आतुर बीजेपी को मौका क्या
मिला पूरी पार्टी एक साथ कांग्रेस पर हल्ला बोलकर पूर्व यूपीए सरकार के कार्यकाल
में कामकाज के तरीकों पर सवाल उठा रही है...जयंती अब राहुल के गले की फांस बन गयी
है... क्योंकि कांग्रेस की बची कुची इज्जत को भी बाजार में सरेआम कर दिया...वैसे
भी पार्टी की कश्ती मझधार में हिलोरे ले रही है...अब तो लगता है कि कश्ती मझधार
में ही रह जाएगी क्योंकि जिसके सहारे कश्ती थी एक एक कर दूर होते चले जा रहे हैं...और
ये लेटर बम कितने लोगों को उठाता है...ये तो वक्त ही बताएगा...लेकिन राहुल
गांधी पर जो आरोप लगा है...उससे बीजेपी को ऐसा अस्त्र मिल गया है जिससे वो चुनाव
क्या, हर दिन-दिनदहाड़े कांग्रेस का कत्ल करेगी और कांग्रेस को बचाने के लिए न तो
पुलिस होगी और न ही कचहरी...अवसरवाद के बिना राजनीति का वजूद अधूरा लगता है...यही
वजह है कि कांग्रेस का पेड़ अपने सियासी बुढ़ापे की ओर क्या बढ़ा...कि पहले एक-एक कर उसके पत्ते गिरे तो अब टहनियां भी पेड़ का साथ छोड़ने लगी हैं.
कांग्रेस के इस बगीचे और इन गिरते पेड़ों को संभालने की जिम्मेदारी जिस माली और
बाग की देखभाल जिस चौकिदार के कंधों पर थी ... वो जिम्मेदार लोग ही देश के सबसे
पुराने बगीचे को उजाड़ने में लगे हैं...अब बाग के चौकिदार “राहुल” को इस बाग की मकड़ी “जंयती नटराजन” ने अपने मकड़जाल में फंसाया है...तो
चौकिदार “राहुल” के कई चूहे “दिग्विजय सिंह” उस मकड़जाल को कुतरने कि कोशिश कर रहें हैं..लेकिन उस चूहे “दिग्विजय सिंह” के दांतों में वो दम नहीं हैं कि
वो उस जाल को काट सकें... मकड़ी “जंयती नटराजन” को उस बाग में परेशानियां हुई तो उसने बाग को छोड़ने की
रणनीति बनाई और एक मकड़जाल बनाया... मकड़ी के जाल से 130 साल पुराने बाग की बुनियाद
तक हिल गयी...
Thursday 8 January 2015
कलम की आवाज: मीडियाः तब और अब
कलम की आवाज: मीडियाः तब और अब: तब दौर कलम कॉलम का था, भाव समर्पण का था अब दौर कंप्यूटर, टैब का है, भाव स्वार्थ का है तब कलम में जान थी, अब कलम बे-जान है तब पत्रक...
मीडियाः तब और अब
तब दौर कलम-कॉलम का था, भाव समर्पण का था
अब दौर कंप्यूटर-टैब का है, भाव स्वार्थ का है
तब कलम में जान थी, अब कलम बे-जान है
तब पत्रकारिता की नीयत थी, अब पैसों की नीयत है
तब सच लिखते-दिखाते थे, अब सच बेचते हैं
तब समाज का दर्पण था, अब सरकारों को समर्पण है
तब खबरों के पीछे भागते थे, अब खबर से भागते हैं
तब दौर इज्जत कमाने का था, अब दौर TRP पाने का है
तब दौर कामदारों का था, अब दौर कामचोरों का है
तब दौर पत्रकारिता का था, अब दौर चाटुकारिता का है
हिन्दुस्तान दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है, स्वस्थ लोकतंत्र का दिल है मीडिया। लेकिन अब न पहले जैसे तपस्वी पत्रकार हैं और न ही पत्रकारिता का समर्पण। राजनेता तो 100 फीसदी धर्मांतरण कर गए, तीनों के बीच एक-दूसरे की स्वार्थसिद्धि के लिए खुले आम खरीद-फरोख्त का खेल चल रहा है, ये रूकना चाहिए और मीडिया का सिविल सोसाइटी से जुड़ाव भी बढ़ना चाहिए, एक समय था जब मीडिया लोकतंत्र का जागरूक प्रहरी माना जाता था, आज इसकी स्थिति किसी सौतेले बेटे जैसी हो गयी है।
हर सरकार सार्वजनिक रूप से मीडिया को स्वीकार तो करती है, लेकिन उसके व्यवहार में दमन चक्र बंद नहीं होता, जितना भारी बहुमत, उतना ही बड़ा अहंकार और उतना ही भारी दमन चक्र। जनता के द्वारा, जनता का, जनता के लिए स्थापित लोकतंत्र चुनावी-घोषणाओं में ही दब कर रह जाता है, मीडिया साधन होता है सत्ता प्राप्ति का ? पर सत्ता मिलने के बाद मीडिया बोझ लगने लगता है, हालांकि जब मीडिया सरकार के आगे नतमस्तक हो जाती है तब सरकारें उस बोझ को कुछ हल्का महसूस करती हैं, नहीं तो आधिपत्य की स्वतंत्रता छीनने वाला मालूम पड़ता है।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने मंत्रिमण्डल के सदस्यों को शुरूआती सलाह में ये ज्ञान दिया था कि मीडिया के साथ अनावश्यक संवाद न बनाएं, बल्कि उचित दूरी भी रखें। अब सवाल ये है कि ऐसी स्थिति आखिर बनी क्यों और इससे बाहर निकलने का रास्ता क्या है? हां, कुछ बीमार ऐसे भी होते हैं, जिनको इलाज कराने में भी आनंद आने लगता है और वे बीमार रहने को असहज नहीं मानते, प्रेस की स्वतंत्रता और गुणवत्ता का अभाव उनको दु:खी नहीं करता, पिछली पीढ़ी में अधिकांश प्रेस मालिक स्वयं ही लिखते भी थे, सम्पादक थे, उनकी अपनी छवि थी।
आगे की पीढ़ियों में व्यापार का भाव प्रधान हो रहा है। अकेले मीडिया कर्म के भरोसे कोई घराना रातों-रात अरबपति भी नहीं हो सकता, ये आज की स्थिति है। सब धन के पीछे भागने वाले हो गए हैं, किसी भी युग में पत्रकार, साहित्यकार, कवि समृद्ध नहीं हुए, वे संकल्प के साथ जीते थे और लक्ष्य कर्म का होता था। पुरूषार्थी भी थे, मुफ्त का खाना उनको स्वीकार्य नहीं होता था, खुद्दार थे, देश सेवा, समाज सेवा उनकी प्राथमिकता थी। अपने अस्तित्व को सदा गौण ही रखते थे, ऐसे लोग ही बीज बनकर वृक्ष का रूप धारण कर लेते थे। उनके ही फल आज हम खा रहे हैं, इसके विपरीत आज का पत्रकार स्वयं अपने फल खाना चाहता है, जोकि प्रकृति के नियम-विरूद्ध है, लोकतंत्र के तीनों पाए अपने कर्मों के फल खुद ही खाना चाहते हैं।
मीडिया की अवधारणा इन्हीं पर निगरानी रखने के लिए बनी थी। समय का एक ऐसा झोंका आया कि, मीडिया भी चौथा पाया बनकर इन्हीं में शामिल हो गया, अब निगरानी करने वाला खो गया, उसने भी, अन्य तीनों पायों की तरह जनता से मुंह मोड़ लिया, आज का लोकतंत्र 'जनता का, जनता द्वारा तथा सरकारों के लिए' में रूपान्तरित हो गया है, जनता वोट देकर सत्ता सौंपती है, टैक्स देकर इनका पेट भी पालती है, काम करने की एवज में घूस भी देती है। फिर भी जनता का सम्मान नहीं होता। यही लोकतंत्र की नई परिभाषा है।
अमेरिका यात्रा को लेकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की अति कवरेज, मीडिया के विकास पर ट्राई की सिफारिशों की सरकार द्वारा अनदेखी और स्वयं सरकार द्वारा मीडिया की उपेक्षा-ऐसे मुद्दे हैं, जिन पर व्यापक चर्चा की जरूरत महसूस की गई है। सरकार और मीडिया में लेन-देन की लुकाछिपी का खेल तेजी से बढ़ता जा रहा है, सभी सरकारें पत्रकारों को खरीदने का मानो आघोषित अभियान चलाकर रखती हैं, क्या-क्या प्रलोभन नहीं दिए जाते। मीडिया समूह अपने कर्मचारियों को वेतन देगा और सरकारें इन संस्थानों को रिश्वत देकर उनको अपने पक्ष में काम करने के लिए तोड़ने लगीं, तब प्रबंधन ने भी छलांग लगाई और खबरों की कीमत वसूलना शुरू कर दिया।
आज का महावाक्य बन गया, क्या फर्क पड़ता है, पेड न्यूज! मीडिया का चेहरा काला हो गया, कोई बात नहीं, बस धन आना चाहिए! इस संघर्ष में बेचारा पाठक स्वत: ही खो गया है, मीडिया समूह व्यापारिक घराने बनते जा रहे हैं, स्वार्थ सिद्धि न होने पर दोनों पक्ष एक-दूसरे पर आक्रामक होने लगते हैं, समस्या तो सुरसा की तरह बड़ी होती ही जा रही है, मीडिया पर बिकाऊ होने का काला टीका लग चुका है, मीडिया ने भी धन के आगे घुटने टेकने शुरू कर दिए हैं, लोकतंत्र में ननिगेहबानी की भूमिका निभाने का एक ही मार्ग दिखाई देता है, जनता के बीच जाना। सिविल सोसाइटी के साथ भागीदारी, टीम के साथ टीम जुड़ जाएंगी तो परिणाम अच्छे आते ही जाएंगे।
इसी में पत्रकार का वैश्वीकरण भी होता जाएगा, मीडिया बिकाऊ के स्थान पर टिकाऊ होता चला जाएगा, लोकतंत्र की गुणवत्ता के लिए सूचना और संचार तकनीक बेहतर सहयोगी है, आम नागरिक, सक्रिय मीडिया और न्यू मीडिया को प्रोत्साहित कर रही है, इसका उपयोग नकारात्मक कम सकारात्मक अधिक है, अब फिर से उस युग में लौटना पड़ेगा, पत्रकार कलम और कॉलम का सिपाही होता है। जिसकी खबर ही भूख खबर ही प्यास खबर ही दिन खबर ही रात, हर वक्त बस खबर ही खबर, जिसकी भूख कभी खत्म नहीं होती, हर विभाग हर संस्था में हफ्ते भर काम नहीं करती। लेकिन मीडिया में सातों दिन 24 घंटे काम होता है।
जब लोग दीवाली, ईद, होली और क्रिसमस मनाते हैं तो पत्रकार खबरों की तलाश में दरबदर भटकता रहता है, वो पत्रकार जो दिखते नहीं, लेकिन उनके कलम की आवाज सियासत और समाज के कानों को भेदती है, जैसे सरहद पर सिपाही का काम दिखता है, वैसे ही कलम और कॉलम के सिपाही का काम बोलता है, याद रखना देश के सजग प्रहरी अगर सो गए तो वोट के पुजारी ये वतन बेच देंगे।
अब दौर कंप्यूटर-टैब का है, भाव स्वार्थ का है
तब कलम में जान थी, अब कलम बे-जान है
तब पत्रकारिता की नीयत थी, अब पैसों की नीयत है
तब सच लिखते-दिखाते थे, अब सच बेचते हैं
तब समाज का दर्पण था, अब सरकारों को समर्पण है
तब खबरों के पीछे भागते थे, अब खबर से भागते हैं
तब दौर इज्जत कमाने का था, अब दौर TRP पाने का है
तब दौर कामदारों का था, अब दौर कामचोरों का है
तब दौर पत्रकारिता का था, अब दौर चाटुकारिता का है
हिन्दुस्तान दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है, स्वस्थ लोकतंत्र का दिल है मीडिया। लेकिन अब न पहले जैसे तपस्वी पत्रकार हैं और न ही पत्रकारिता का समर्पण। राजनेता तो 100 फीसदी धर्मांतरण कर गए, तीनों के बीच एक-दूसरे की स्वार्थसिद्धि के लिए खुले आम खरीद-फरोख्त का खेल चल रहा है, ये रूकना चाहिए और मीडिया का सिविल सोसाइटी से जुड़ाव भी बढ़ना चाहिए, एक समय था जब मीडिया लोकतंत्र का जागरूक प्रहरी माना जाता था, आज इसकी स्थिति किसी सौतेले बेटे जैसी हो गयी है।
हर सरकार सार्वजनिक रूप से मीडिया को स्वीकार तो करती है, लेकिन उसके व्यवहार में दमन चक्र बंद नहीं होता, जितना भारी बहुमत, उतना ही बड़ा अहंकार और उतना ही भारी दमन चक्र। जनता के द्वारा, जनता का, जनता के लिए स्थापित लोकतंत्र चुनावी-घोषणाओं में ही दब कर रह जाता है, मीडिया साधन होता है सत्ता प्राप्ति का ? पर सत्ता मिलने के बाद मीडिया बोझ लगने लगता है, हालांकि जब मीडिया सरकार के आगे नतमस्तक हो जाती है तब सरकारें उस बोझ को कुछ हल्का महसूस करती हैं, नहीं तो आधिपत्य की स्वतंत्रता छीनने वाला मालूम पड़ता है।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने मंत्रिमण्डल के सदस्यों को शुरूआती सलाह में ये ज्ञान दिया था कि मीडिया के साथ अनावश्यक संवाद न बनाएं, बल्कि उचित दूरी भी रखें। अब सवाल ये है कि ऐसी स्थिति आखिर बनी क्यों और इससे बाहर निकलने का रास्ता क्या है? हां, कुछ बीमार ऐसे भी होते हैं, जिनको इलाज कराने में भी आनंद आने लगता है और वे बीमार रहने को असहज नहीं मानते, प्रेस की स्वतंत्रता और गुणवत्ता का अभाव उनको दु:खी नहीं करता, पिछली पीढ़ी में अधिकांश प्रेस मालिक स्वयं ही लिखते भी थे, सम्पादक थे, उनकी अपनी छवि थी।
आगे की पीढ़ियों में व्यापार का भाव प्रधान हो रहा है। अकेले मीडिया कर्म के भरोसे कोई घराना रातों-रात अरबपति भी नहीं हो सकता, ये आज की स्थिति है। सब धन के पीछे भागने वाले हो गए हैं, किसी भी युग में पत्रकार, साहित्यकार, कवि समृद्ध नहीं हुए, वे संकल्प के साथ जीते थे और लक्ष्य कर्म का होता था। पुरूषार्थी भी थे, मुफ्त का खाना उनको स्वीकार्य नहीं होता था, खुद्दार थे, देश सेवा, समाज सेवा उनकी प्राथमिकता थी। अपने अस्तित्व को सदा गौण ही रखते थे, ऐसे लोग ही बीज बनकर वृक्ष का रूप धारण कर लेते थे। उनके ही फल आज हम खा रहे हैं, इसके विपरीत आज का पत्रकार स्वयं अपने फल खाना चाहता है, जोकि प्रकृति के नियम-विरूद्ध है, लोकतंत्र के तीनों पाए अपने कर्मों के फल खुद ही खाना चाहते हैं।
मीडिया की अवधारणा इन्हीं पर निगरानी रखने के लिए बनी थी। समय का एक ऐसा झोंका आया कि, मीडिया भी चौथा पाया बनकर इन्हीं में शामिल हो गया, अब निगरानी करने वाला खो गया, उसने भी, अन्य तीनों पायों की तरह जनता से मुंह मोड़ लिया, आज का लोकतंत्र 'जनता का, जनता द्वारा तथा सरकारों के लिए' में रूपान्तरित हो गया है, जनता वोट देकर सत्ता सौंपती है, टैक्स देकर इनका पेट भी पालती है, काम करने की एवज में घूस भी देती है। फिर भी जनता का सम्मान नहीं होता। यही लोकतंत्र की नई परिभाषा है।
अमेरिका यात्रा को लेकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की अति कवरेज, मीडिया के विकास पर ट्राई की सिफारिशों की सरकार द्वारा अनदेखी और स्वयं सरकार द्वारा मीडिया की उपेक्षा-ऐसे मुद्दे हैं, जिन पर व्यापक चर्चा की जरूरत महसूस की गई है। सरकार और मीडिया में लेन-देन की लुकाछिपी का खेल तेजी से बढ़ता जा रहा है, सभी सरकारें पत्रकारों को खरीदने का मानो आघोषित अभियान चलाकर रखती हैं, क्या-क्या प्रलोभन नहीं दिए जाते। मीडिया समूह अपने कर्मचारियों को वेतन देगा और सरकारें इन संस्थानों को रिश्वत देकर उनको अपने पक्ष में काम करने के लिए तोड़ने लगीं, तब प्रबंधन ने भी छलांग लगाई और खबरों की कीमत वसूलना शुरू कर दिया।
आज का महावाक्य बन गया, क्या फर्क पड़ता है, पेड न्यूज! मीडिया का चेहरा काला हो गया, कोई बात नहीं, बस धन आना चाहिए! इस संघर्ष में बेचारा पाठक स्वत: ही खो गया है, मीडिया समूह व्यापारिक घराने बनते जा रहे हैं, स्वार्थ सिद्धि न होने पर दोनों पक्ष एक-दूसरे पर आक्रामक होने लगते हैं, समस्या तो सुरसा की तरह बड़ी होती ही जा रही है, मीडिया पर बिकाऊ होने का काला टीका लग चुका है, मीडिया ने भी धन के आगे घुटने टेकने शुरू कर दिए हैं, लोकतंत्र में ननिगेहबानी की भूमिका निभाने का एक ही मार्ग दिखाई देता है, जनता के बीच जाना। सिविल सोसाइटी के साथ भागीदारी, टीम के साथ टीम जुड़ जाएंगी तो परिणाम अच्छे आते ही जाएंगे।
इसी में पत्रकार का वैश्वीकरण भी होता जाएगा, मीडिया बिकाऊ के स्थान पर टिकाऊ होता चला जाएगा, लोकतंत्र की गुणवत्ता के लिए सूचना और संचार तकनीक बेहतर सहयोगी है, आम नागरिक, सक्रिय मीडिया और न्यू मीडिया को प्रोत्साहित कर रही है, इसका उपयोग नकारात्मक कम सकारात्मक अधिक है, अब फिर से उस युग में लौटना पड़ेगा, पत्रकार कलम और कॉलम का सिपाही होता है। जिसकी खबर ही भूख खबर ही प्यास खबर ही दिन खबर ही रात, हर वक्त बस खबर ही खबर, जिसकी भूख कभी खत्म नहीं होती, हर विभाग हर संस्था में हफ्ते भर काम नहीं करती। लेकिन मीडिया में सातों दिन 24 घंटे काम होता है।
जब लोग दीवाली, ईद, होली और क्रिसमस मनाते हैं तो पत्रकार खबरों की तलाश में दरबदर भटकता रहता है, वो पत्रकार जो दिखते नहीं, लेकिन उनके कलम की आवाज सियासत और समाज के कानों को भेदती है, जैसे सरहद पर सिपाही का काम दिखता है, वैसे ही कलम और कॉलम के सिपाही का काम बोलता है, याद रखना देश के सजग प्रहरी अगर सो गए तो वोट के पुजारी ये वतन बेच देंगे।
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