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Wednesday 20 May 2015

कलम की आवाज: नया नेतृत्व, नई क्रांति

कलम की आवाज: नया नेतृत्व, नई क्रांति: इतिहास के पन्नों को पलटकर देखा जाय , तो उस दौर में न बीजेपी दिखाई पड़ती थी और ना ही कांग्रेस...बस इकलौता एक क्षेत्रीय दल था , जिसने उत...

नया नेतृत्व, नई क्रांति

इतिहास के पन्नों को पलटकर देखा जाय, तो उस दौर में न बीजेपी दिखाई पड़ती थी और ना ही कांग्रेस...बस इकलौता एक क्षेत्रीय दल था, जिसने उत्तरांचल की आजादी की जंग छेड़ी और आज के उत्तराखंड के लिए उत्तराखंडियों के बीच अलख जगाई थी। लोगों के दिलों में गुस्सा था। मन में सुनहरे उत्तराखंड का सपना, मानो बेहतर प्रदेश की सूरत हिचकोले ले रही थी। उस दौर की लड़ाई में वहां रहने वालों को बस आजादी के सिवाय कुछ और नहीं दिखता था। अलग राज्य की धधकती ज्वाला में मानो एक दल तप रहा था। उसी तपन, दिल की धड़कन और आजादी की दीवानगी ने एक दल को जन्म दिया। जिसका सरोकार भी क्रांति से था, लिहाजा उसका नामकरण भी ठीक वैसे ही हुआ, जैसा उसका स्वभाव था। उत्तराखंड क्रांति दलइस क्रांति की ज्वालामुखी में सारे जुल्मों सितम जलकर खाक हो गए। केंद्र से राज्य तक ने घुटने टेक दिए, मसलन तत्कालीन अटल बिहारी वाजपेयी सरकार को अलग उत्तरांचल का एलान करने के लिए मजबूर होना पड़ा। तब आजाद उत्तराखंड की सुहानी सुबह में धीरे धीरे क्रांति की आग शांत होने लगी। क्योंकि उत्तराखंड आजाद हो गया था। वहां की हुकूमत पर किसी की सियासत नहीं चलती थी। लिहाजा खुशी में धीरे धीरे पुराने जख्म भरने लगे। और उत्तराखंड क्रांति दल सियासत के मैदान से दूर अपने अंत को तलाश रहा था। इस बीच ऐसा लगा कि मानो उत्तराखंड पर काबिज बीजेपी और कांग्रेस ने फिर से उत्तराखंड को जंजीरों में जकड़ लिया हो। उत्तराखंड को बेड़ियों में जकड़ता देख उत्तराखंड क्रांति दल मानो जख्मी शेर की तरह दहाड़ मारने लगा। जिसने बीजेपी, कांग्रेस तक की नींव हिला दी। क्योंकि उक्रांद की बहादुरी त्याग और बलिदान से सियासत के सूरमा भलिभांति परिचित थे। लिहाजा उसकी दहाड़ सुन सबके कान खड़े हो गए।
मुमकिन था कि ये दल लोगों के लिए सूबे में तब पहला विकल्प था। लेकिन आपसी लड़ाई ने इस दल के रुप को कुरूप कर दिया। तमाम रेखाओं को मिटा डाला, पदचिन्हों तक को मिटा दिया। इस दल की अवधारणा तब हुई थी। जब यूपी के पहाड़ी जिलों को राज्य बनाने की बात चल रही थी। लेकिन किसी भी कीमत पर यूपी को ये बंटवारा मंजूर नहीं था। मसलन जंग का आगाज होना लाजमी था। जिसके लिए साहसी लोगों की जरुरत थी। इस जरुरत को पूरा करने के लिए 26 जुलाई 1979 को आजादी के मतवालों ने उत्तराखंड क्रांति दल का गठन किया। तब से शुरू ये जंग अब तक समाप्त नहीं हो पाई है। बस कुछ समय के लिए शांत जरूर हो जाती है। मसलन अब ये जंग फिर से उफान पर है। और इस बार इस दल ने बाकी राजनीतिक दलों को उत्तराखंड से खदेड़ने की जंग छेड़ दी है। उत्तराखंड क्रांति दल लंबे समय से उपेक्षित हिमालयी क्षेत्र के विकास के लिए एक सफल आंदोलन के रूप में उभरा। जिसका मकसद उत्तराखंडियों की आवाज बुलंद करना था। उनको उनका अधिकार दिलाने का था। जब लोगों की भावनाओं का हनन होने लगा। सूबे के लोगों पर आंच आने लगी, अधिकारों पर डाका पड़ने लगा। तो, यहां टकराना जरुरी था।
जंग की आहट सुनाई पड़ी तो मानो उत्तराखंड क्रांति दल भी नींद से जाग गया। क्योंकि आजाद हवा में सांस लेने वाले मतवालों को गुलामी की बेड़ियां कैसे जकड़ पाती। अब जाग गये तो बस जाग ही गए, फिर नींद कहां आने वाली है और अंगड़ाई लेने के साथ ही नई उर्जा के संचार के लिए इस क्रांति की जिम्मेदारी मजबूत और नौजवान कंधों पर डाल दी। इससे पहले काशी सिंह एरी जैसे कुशल रणनीतिकार के जिम्मे थी। जो अब पार्टी को और मजबूती देना चाहते थे। लिहाजा दल को नई उर्जा देने की जिम्मेदारी, दल को सजाने संवारने की जिम्मेदारी युवा कुशल और होनहार पुष्पेश त्रिपाठी को सौंपी गई। अब उम्मीद है कि इस दल की क्रांति फिर से एक नई क्रांति लाएगी और उत्तराखंड और उत्तराखंडियों को अपने सपनों का उत्तराखंड मिलेगा।

नोट- ये मेरे निजी विचार हैं।

Thursday 14 May 2015

कलम की आवाज: केजरीवाल को चिठ्ठी

कलम की आवाज: केजरीवाल को चिठ्ठी: दिल्ली का के ’ जरी ’ वार इतना निकम्मा हो जाएगा। किसी ने चुनाव के वक्त ऐसा नहीं सोचा था, लेकिन सत्ता है ये, सियासत में ऐसा होता है। जब सि...

केजरीवाल को चिठ्ठी

दिल्ली का केजरीवार इतना निकम्मा हो जाएगा। किसी ने चुनाव के वक्त ऐसा नहीं सोचा था, लेकिन सत्ता है ये, सियासत में ऐसा होता है। जब सियासत का रंग चढ़ता है, तो घोड़ों, गधों को भी अपनी जमात में शामिल कर लेता है। सब पर एक ही रंग चढ़ जाता है। अपार बहुमत मिल जाए, तो जुबान और दिल दिमाग पर तानाशाही कुंडली मारकर बैठ जाती है। ऐसे में केजरीवाल भला आलोचना कैसे बर्दाश्त कर सकते हैं। दिल्ली सरकार, आम आदमी पार्टी और अपनी नाकामियों, मनमानियों को दिखाने पर मीडिया की हत्या करने पर उतारू हो गए। बाकायदा सर्कुलर जारी कर मीडिया को खुलेआम धमकी दी, कि यदि किसी भी माध्यम से सरकार की छवि खराब की गयी तो, उस संस्थान, पत्रकार पर मानहानि का दावा करेंगे। खैर, बेचारे केजरीवाल को जनता ने सरताज तो बना दिया। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने उसके अरमानों पर पानी फेर दिया। कोर्ट ने मीडिया के खिलाफ जारी सर्कुलर पर रोक लगा दी। अब क्या करे बिचारा केजरीवाल, ये तो वही हाल हुआ, खिसियानी बिल्ली खंभा नोचे। कान खोल कर सुन लो अरविंद केजरीवाल, मीडिया आपकी बपौती नहीं है। तुम्हारे इशारों पर नाचने वाली कठपुतली नहीं है। प्रजातंत्र का महत्वपूर्ण अंग है मीडिया, या कहें कि चौथा स्तंभ है। जिसके बिना लोकतंत्र अपाहिज हो जाता है। एक केजरीवाल के लिए 125 करोड़ जनता को बेवकूफ नहीं बना सकती है मीडिया। ये काम तो सिर्फ केजरीवाल और उनकी पार्टी को शोभा देता है। क्योंकि जो अधिकार पत्रकार के पास है, वो अधिकार देश के हर नागरिक के पास है। मीडिया केजरीवाल जैसा बेईमान नहीं है। जो सत्ता की लालच में अपने आदर्शों की बलि चढ़ा दे। अपने मार्गदर्शक को कुचल कर उसकी लाश पर खड़ा हो जाए। वो भी विलासिता पूर्ण जीवन के लिए, तानाशाही के लिए। ये वही केजरीवाल हैं जो दिल्ली के खंभों पर चढ़कर तार काटते थे, आए दिन खुलासा करते थे। तब मीडिया पूरे देश को बताती थी। ईमानदारी की चादर ओढ़े बेईमान भेड़िए की कहानी। वरना आज कुछ लोगों को छोड़कर कोई नहीं जानता, कि ये केजरीवाल है कौन, किस खेत की मूली है। मीडिया की पैदाइश आम आदमी पार्टी है। दिल्ली की सरकार है। याद रखना जो किसी को बनाने का माद्दा रखता है वो बिगाड़ने का माद्दा भी रखता है।


क्या सत्ता का नशा ऐसा ही होता है, जब मिलता है तो उसकी मद में इंसान अंधा हो जाता है। हो ना हो, लेकिन आप को देखकर ऐसा ही लगता है। कि आप में अरविंद केजरीवाल जैसा ईमानदार कोई और नहीं है। हां कुछ उनके भड़वें भी हैं, जिन्हे केजरीवाल ने ईमानदारी का लाइसेंस दिया है। वरना पहले वसंत से पहले पतझड़ की बहार नहीं आती, कितनों ने केजरीवाल की तानाशाही से तंग आकर पार्टी से तौबा कर लिया। लेकिन रस्सी जल गई पर बल नहीं गया। अपने खून पसीने से सींचने वाले कितने कार्यकर्ता, नेता पार्टी से नाता तोड़ गए। लेकिन केजरीवाल की अकड़ कम नहीं हुई। उपर से जिस स्वराज का जिक्र करते थे हर समय, जिस स्वराज के दम पर बड़ी बड़ी पार्टियों को चुनौती देते थे। उसका भी कत्ल कर आए। अब केजरीवाल की ये काली करतूत मीडिया दिखाए। तो भला उन्हे रास कैसे आए, वो भी जब अपार बहुमत वाली सरकार की मुखालफत के बदले खिलाफत कर रही हो मीडिया। इसलिए केजरीवाल ने भी मीडिया को पाबंद करना ही उचित समझा। ताकि उनकी करनी उजागर ना हो। ये वही केजरीवाल है जो मुझे चाहिए पूरी आजादी, मुझे चाहिए स्वराज की टोपी लगाकर चलता था। जनता की बात करता था। अब जनता की आजादी, सहूलियत की बात नहीं सिर्फ अपनी सहूलियत की बात करता है। विनाश काले विपरीत बुद्धि। ये तुगलकी फरमान ही केजरीवाल की बरबादी की नींव है। अब नींव तो पड़ गयी है बस इमारत बनने की देर है। वैसे भी मीडिया को बैन करना इतना आसान नहीं है अरविंद केजरीवाल। जय हो मीडिया, जय हो अदालत, सच्चे का बोलबाला झूठे का मुंह काला।

Wednesday 6 May 2015

कलम की आवाज: 13 साल बाद जीता इंसाफ

कलम की आवाज: 13 साल बाद जीता इंसाफ: आज फिर इंसाफ जीत गया, लेकिन लंबे वक्त ने इस जीत की खुशी को काफूर कर दिया। 13 साल से पीड़ितों के जख्मों को जिस कदर कुरेदा गया। इंसाफ मिलन...

13 साल बाद जीता इंसाफ

आज फिर इंसाफ जीत गया, लेकिन लंबे वक्त ने इस जीत की खुशी को काफूर कर दिया। 13 साल से पीड़ितों के जख्मों को जिस कदर कुरेदा गया। इंसाफ मिलने के बाद भी उसकी भरपाई नहीं हो सकती, फिर भी उन्हे संतोष तो करना ही पड़ेगा। क्योंकि गरीब के हिस्से में सिर्फ संतोष कि सिवा कुछ आता नहीं। मुंबई की चमचमाती सड़कें, चकाचौंध रातें, आलीशान महलों में रहने वालों को गरीबी का मोल। तेरह साल बाद सलमान खान को कोर्ट ने पांच साल की कैद और 25 हजार रूपए जुर्माना देने का फरमान सुना दिया। जिन धाराओं में आरोप साबित हुआ, उसमें दस साल की सजा का प्रावधान है। लेकिन कोर्ट ने देश सजा कम कर दी, इस बिनाह पर कि सलमान ने 600 बच्चों का इलाज कराया, 42 करोड़ रूपए चैरिटी को दिए। इस सबसे उन मजलूमों का क्या नाता, जो 13 साल से हर पल कार के नीचे रौंदे जाते रहे, हर पल तिल तिल कर मरते रहे, उनकी जिंदगी उन पर बोझ बन गयी। किसी के बहन की शादी नहीं हुई तो कोई जिंदगी भर के लिए अपाहिज हो गया। लेकिन कोर्ट भी उनकी बेबसी पर धृतराष्ट्र बन गया।
खैर सलमान का आशियाना अब ऑर्थर रोड जेल बन गया है। उनके वकील जमानत के लिए हाई कोर्ट पहुंच गए, लेकिन सजा सुनते ही सलमान की आखें आसुओं से डबडबा गयीं। जुबान पर ताला लगा लिया, लेकिन आंखों से सबकुछ बयां करते रहे और सिर झुकाकर स्वीकार करते रहे। कोर्ट का फैसला सुन उनकी मां बेहोश हो गयी। बहनें आंसू बहाती रही और भाई भारी मन से अदालत के बाहर निकल गए।
फैसला सुनकर उनके परिवार सदमें में पहुंच गया। लेकिन वो पल वो लोग भूल गए जब सलमान की लापरवाही ने बच्चों को अनाथ कर दिया। गरीबों के पेट की रोटी छीन ली। बहन कुंआरी रह गयी। गरीबी का बोझ ढोने की ताकत क्षीण कर दी। जब शराब के नशे में चूर सलमान को सड़क और इंसान में फर्क करना नहीं आया। उनकी मौजमस्ती ने कितनों का निवाला छीन लिया।

कोर्ट को ये साबित करने में 27 गवाहों के बयान दर्ज करने पड़े, 13 साल तक सुनवाई करनी पड़ी, नतीजा अब आपके सामने है। खैर कोर्ट के फैसले से लोगों में कानून के प्रति सम्मान तो बढ़ा है। लेकिन इस फैसले का हात तो उसी कहावत को चरितार्थ करती है कि ‘का वर्षा जब कृषि सुखानीउपर से इस सजा से उन गरीबों का पेट तो भरने से रहा, जिस पर कोर्ट ने गौर नहीं किया। जबकि हिंदुस्तान की न्याय व्यवस्था इतनी बोरिंग है कि जिंदगी गुजर जाती है, पीढ़ीयां खत्म हो जाती हैं। आरोपी दुनिया छोड़ देता है, लेकिन न्यायिक लड़ाई अपनी रफ्तार से चलती रहती है। इस व्यवस्था में बदलाव नहीं किया गया तो। ये कानून भी बस जिंदगी चलाने की सांस जैसी हो जाएगी। जो सिर्फ नाम के लिए रहेगी, पर वो जिंदगी रहकर भी मौत से बदसूरत लगती है।