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Sunday 7 October 2018

आजादी के बाद ऐसे बदलती गई भारतीय चुनाव प्रक्रिया

भोपाल. भारत दुनिया का सबसे बड़ा और पुराना लोकतंत्र है. संविधान ने सांस्कृतिक विविधता से भरे इस देश को एक करने के लिए चार स्तंभ दिया है. कार्यपालिका, न्यायपालिका, व्यवस्थापिका और चौथा पाया है मीडिया. विश्व का सबसे बड़ा लिखित, सबसे लचीला और सबसे कठोर संविधान रखने वाले हिन्दुस्तान के लोकतंत्र का आधार है यहां का जनतंत्र.

दरअसल, 2 साल 11 महीने और 18 दिन में बनकर तैयार हुआ भारत का संविधान इस देश के हर नागरिक को अपना प्रतिनिधि चुनने का अधिकार देता है, यानि कि मतदान का अधिकार देता है. आजादी के बाद से भारत में चुनावों ने एक लंबा रास्ता तय किया है. आज तकनीक ने 120 करोड़ की जनसंख्या वाले देश को एक मशीन से जोड़ दिया है.

हम चुनावी माहौल देखते हैं, इलेक्शन के रंग देखते हैं, जीत का जश्न देखते हैं, हार का दुख देखते हैं. लेकिन, कभी सोचा है कि ये चुनाव होते कैसे हैं. भारत में चुनाव की प्रक्रिया क्या है, कौन कराता है ये चुनाव, कैसे होता है मतदान, मतगणना का आधार क्या है और ये नियम कायदे बनाए किसने हैं. ये है चुनाव प्रक्रिया के प्रमुख बिंदु.
  • भारत में मतदाताओं की विशाल संख्या को देखते हुए चुनाव कई चरणों में आयोजित किए जाते हैं. आम चुनाव अलग और विधानसभा चुनाव अलग-अलग होते हैं.
  • चुनावों की इस प्रक्रिया में चरणबद्ध तरीके से काम किया जाता है. इसमें भारतीय चुनाव आयोग द्वारा चुनावों की तिथि घोषित की जाती है. इससे राजनीतिक दलों के बीच 'आदर्श आचार संहिता' लागू होती है.
  • आचार संहिता लागू होने से लेकर परिणामों की घोषणा और सफल उम्मीदवारों की सूची राज्य या केंद्र के कार्यकारी प्रमुख को सौंपना शामिल होता है.
  • परिणामों की घोषणा के साथ चुनाव प्रक्रिया का समापन होता है और नई सरकार के गठन का मार्ग प्रशस्त होता है.

सबसे पहले ये कि चुनाव कराता कौन है?
भारत में चुनाव भारतीय संविधान के तहत बनाए गए भारतीय निर्वाचन आयोग द्वारा कराया जाता है. यह एक स्थापित परंपरा है कि एक बार चुनाव प्रक्रिया शुरू होने के बाद कोई भी अदालत चुनाव आयोग द्वारा परिणाम घोषित किये जाने तक किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं कर सकती है. चुनावों के दौरान, चुनाव आयोग को बड़ी मात्रा में अधिकार सौंप दिए जाते हैं और जरुरत पड़ने पर यह सिविल कोर्ट के रूप में भी कार्य कर सकता है.

विधानसभा चुनाव की प्रक्रिया स्वरूप पर एक नजर
  • राज्य विधानसभा चुनावों के लिए कम से कम एक महीने का समय लगता है, जबकि आम चुनावों के लिए यह अवधि और बढ़ जाती है.
  • मतदाता सूची का प्रकाशन एक जरूरी चुनाव पूर्व प्रक्रिया है और यह भारत में चुनाव के संचालन के लिए बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है. भारतीय संविधान के अनुसार कोई भी व्यक्ति जो भारत का नागरिक है और जिसकी उम्र 18 वर्ष से अधिक है, वह मतदाता सूची में एक मतदाता के रूप में शामिल होने के योग्य है, यह योग्य मतदाता की जिम्मेदारी है कि वह मतदाता सूची में अपना नाम शामिल कराए.
  • आमतौर पर, उम्मीदवारों के नामांकन की अंतिम तिथि से एक सप्ताह पहले तक मतदाता पंजीकरण के लिए अनुमति दी गई है.

चुनाव के पहले क्या होता है?
  • चुनाव से पहले नामांकन, मतदान और गिनती की तिथियों की घोषणा की जाती है. चुनावों की तिथि की घोषणा के साथ ही आदर्श आचार संहिता लागू हो जाती है.
  • आदर्श आचार संहिता लगते ही किसी भी पार्टी को चुनाव प्रचार के लिए सरकारी संसाधनों को उपयोग करने की अनुमति नहीं होती है. आचार संहिता के नियमों के अनुसार मतदान के दिन से 48 घंटे पहले चुनाव प्रचार बंद कर दिया जाना चाहिए.
  • भारतीय राज्यों के लिए चुनाव से पहले की गतिविधियां अत्यंत आवश्यक होती हैं. आचार संहिता के अनुसार चुनाव प्रचार के लिए प्रत्याशी 10 चौपिहया वाहन ही रख सकता है, जबकि मतदान वाले दिन तीन चौपहिया वाहनों की अनुमति है.
  • प्रत्याशियों को अपनी संपत्ति संबंधित ब्योरा चुनाव आयोग को देना होता है.

मतदान के दिन
  • मतदान के दिन से एक दिन पहले चुनाव प्रचार समाप्त हो जाता है.
  • सरकारी स्कूलों और कॉलेजों को मतदान केंद्रों के रूप में चुना जाता है. मतदान कराने की जिम्मेदारी प्रत्येक जिले के जिलाधिकारी की होती है. बहुत से सरकारी कर्मचारियों को मतदान केंद्रों पर लगाया जाता है.
  • चुनाव में धोखाधड़ी रोकने के लिए मतदान पेटियों की बजाय इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) का प्रयोग अधिक मात्रा में किया जाता है और अब तो VVPAT से चुनाव होंगे.
  • मतदान के संकेत के रूप में मतदाता के बाईं तर्जनी अंगुली पर निशान लगाया जाता है.
  • इस कार्यप्रणाली का उपयोग 1962 के आम चुनाव के बाद से फर्जी मतदान रोकने के लिए किया जा रहा है.

चुनाव के बाद
  • चुनाव के दिन के बाद, ईवीएम को कड़ी सुरक्षा के बीच एक मजबूत कमरे में जमा किया जाता है. चुनाव के विभिन्न चरण पूरे होने के बाद वोटों की गिनती का दिन निर्धारित किया जाता है.
  • वैसे तो वोटों की गिनती के कुछ घंटों के भीतर विजेता का पता चल जाता है. लेकिन, सबसे अधिक वोट प्राप्त करने वाले उम्मीदवार को ही निर्वाचन क्षेत्र का विजेता घोषित किया जाता है.
  • सबसे अधिक सीटें प्राप्त करने वाले पार्टी या गठबंधन को राज्यपाल द्वारा नई सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया जाता है. किसी भी पार्टी या गठबंधन को सदन में वोटों का साधारण बहुमत (न्यूनतम 50%) प्राप्त करके विश्वास मत के दौरान सदन (लोक सभा-विधानसभा) में अपना बहुमत साबित करना आवश्यक होता है.
  • विधानसभा चुनाव का मूड, आम चुनाव से अलग कैसे?
  • आम चुनाव में बड़ी पार्टियां देश भर में चुनाव लड़ती हैं. अपने-अपने योद्धा मैदान में उतारकर. भारत में अब तक दो बड़े राष्ट्रीय दल हैं जो चुनाव भी लड़ते हैं और केंद्र में बाकी क्षेत्रीय दलों के साथ या फिर बहुमत लाने पर अकेले सरकार बनाते हैं. ये दल हैं इंडियन नेशनल कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी. इनकी सरकारें यूपीए और एनडीए के नाम से जानी जाती हैं.
  • आमतौर पर विधानसभा चुनाव के राजा होते हैं क्षेत्रीय दल. राज्यों में इनका सिक्का ज्यादा चलता है. हालांकि, बात अगर मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान की करें तो यहां दो राज्यों में पिछली तीन सरकारें बीजेपी की रही हैं. राजस्थान में जरूर गणित 5-5 साल का रहा है.
  • विधानसभा चुनाव भारत के राज्यों में कराए जाने वाले राज्य-स्तरीय चुनाव होते हैं. इन चुनावों में हर राज्य की जनता अपने राज्य-स्तर के शासन के लिए अपने प्रतिनिधियों का चुनाव करती है जिन्हें विधायक कहा जाता है. आम चुनावों से अलग इन चुनावों में चुने हुए विधायक राज्य-स्तर पर सरकार का गठन करते हैं.
  • इन चुनावों में भाग लेने वाले राजनीतिक दल वह भी हो सकते हैं जो आम चुनावों में भाग लेते हैं और इसके अतिरिक्त विभिन्न राज्यों के अपने-अपने क्षेत्रीय दल भी हैं जो राज्य-विशेष में लोकप्रिय होते हैं. जैसे- पश्चिम बंगाल में टीएमसी, बिहार में JDU या RJD या फिर तमिलनाडु में आल इंडिया अन्ना द्रविड़ मुन्नेत्र कड़गम और उत्तर प्रदेश में सपा और बसपा को कैसे भूल सकते हैं. वैसे छत्तीसगढ़ में इस बार जोगी कांग्रेस दम झोंक रही है और बड़ी क्षेत्रीय पार्टी के रूप में उभरी है.
  • और हां, अगर अपना कार्यकाल पूरा करने से पूर्व कोई सरकार विधानसभा में बहुमत खो देती है तो यह चुनाव पांच वर्ष से पहले भी कराए जा सकते हैं और तब तक वहां राष्ट्रपति शासन लागू होता है, राज्यपाल देख-रेख करते हैं.

बीजेपी के लिए आसान नहीं कांग्रेस के इन किलों को भेदना, बार-बार खानी पड़ी है मात

भोपाल. मध्यप्रदेश का चुनावी दंगल इस बार कई मायनों में दिलचस्प रहने वाला है. जिस पर सबकी नजरें टिकी हुई हैं क्योंकि यहां न तो बीजेपी की राह आसान है और न कांग्रेस की. भले ही बीजेपी पिछले 15 सालों से सूबे की सत्ता पर काबिज है. लेकिन, कांग्रेस के कई किले ऐसे हैं, जिनके तिलिस्म को बीजेपी अब तक तोड़ नहीं पायी है.

पिछले तीन चुनावों से बीजेपी सियासी संग्राम में कांग्रेस के खिलाफ फतह हासिल की है. फिर भी कई किले ऐसे हैं, जहां चुनावी समर में बीजेपी के दिग्गजों को भी मुंह की खानी पड़ी है. उन विधानसभा सीटों की बात कर रहे हैं. जो कांग्रेस के मजबूत गढ़ों में तब्दील हो चुकी है. जहां बीजेपी को लगातार मात खानी पड़ रही है. ऐसे में इस बार भी इन सीटों पर चुनावी मुकाबला जोरदार होगा.

चुरहट
सीधी जिले में आने वाली चुरहट विधानसभा सीट सूबे में कांग्रेस का सबसे मजबूत गढ़ माना जाता है. बीजेपी हर चुनाव में यहां प्रत्याशी बदलती रही. लेकिन, उसे जीत मयस्सर नहीं हुई. यह विधानसभा सीट कांग्रेस के दिग्गज नेता और पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह की पंरमपरागत सीट मानी जाती है. जहां से उनके पुत्र विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह विधायक हैं. अजय सिंह पिछले पांच चुनावों में यहां से लगातार जीत हासिल कर रहे है, जबकि इस बार भी बीजेपी के लिये यह सीट सबसे बड़ी चुनौती है.

राघोगढ़ 
गुना जिले की राघोगढ़ विधानसभा सीट कांग्रेस का अभेद्य किला माना जाता है. ऐसी सीट जिसका बीजेपी अब तक कोई तोड़ नहीं निकाल पायी है. प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के परिवार का इस सीट पर दबदबा माना जाता है. 2003 के चुनाव में बीजेपी ने यहां अपने सबसे मजबूत नेता शिवराज सिंह चौहान को मैदान में उतारा था. लेकिन, दिग्गी राजा ने चुनावी दंगल में उन्हें भी धूल चटा दी थी. वर्तमान में इस सीट से दिग्विजय सिंह के पुत्र जयवर्धन सिंह विधायक हैं. जिन्होंने पिछले चुनाव में बीजेपी प्रत्याशी को 50 हजार वोटों से भी ज्यादा के अंतर से हराया था.

लहार
भिंड जिले की लहार विधानसभा सीट भी कांग्रेस की परंपरागत सीट मानी जाती है. इस सीट से कांग्रेस के दिग्गज नेता डॉक्टर गोविंद सिंह पिछले छः चुनावों से लगातार जीत हासिल करते आ रहे हैं. इस सीट पर कांग्रेस का दबदबा माना जाता है. छः बार से शिकस्त झेल रही बीजेपी गोविंद सिंह के खिलाफ यहां से दमदार प्रत्याशी उतारने की कोशिश करेगी. ताकि इस किले को भेद सके. हालांकि, गोविंद सिंह पिछले लोकसभा चुनाव में मैदान में उतरे थे, पर उन्हें जीत मयस्सर नहीं हुई.

विजयपुर
ग्वालियर-चंबल अंचल के श्योपुर जिले में आने वाली विधानसभा सीट विजयपुर कांग्रेस का मजबूत गढ़ बनकर उभरी है. वर्तमान में कांग्रेस के कार्यकारी अध्यक्ष रामनिवास रावत यहां से पिछले पांच बार से चुनाव जीत रहे हैं. वे कांग्रेस के दिग्गज नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया के करीबी माने जाते हैं. बीजेपी हर बार यहां पूरी ताकत से चुनाव लड़ी. लेकिन, उसे जीत हासिल नहीं हो पायी. हालांकि, इस बार इस सीट पर मुकाबला दिलचस्प हो सकता है.

पिछोर
शिवपुरी जिले में आने वाली पिछोर विधानसभा सीट से कांग्रेस प्रत्याशी केपी सिंह 1993 से लगातार चुनाव जीत रहे हैं. पिछले चुनाव में भी उन्होंने बीजेपी के प्रत्याशी को करारी शिकस्त दी थी. ऐसे में इस बार भी इस विधानसभा सीट पर मुकाबला कांटे का होने वाला है क्योंकि केपी सिंह फिर जीत का दम भरते नजर आ रहे हैं.

भोपाल उत्तर
भोपाल जिले की भोपाल उत्तर विधानसभा सीट बीजेपी के लिये पिछले चार विधानसभा चुनाव से सिरदर्द बनी हुई है. यहां से कांग्रेस विधायक और सूबे में एकमात्र उम्मीदवार आरिफ अकील विधायक हैं. वे दिग्विजय सिंह सरकार में मंत्री रह चुके हैं और कांग्रेस में मुस्लिमों का सबसे मजबूत चेहरा माने जाते हैं. पिछले विधानसभा चुनाव में यहां काटे की टक्कर देखने को मिली थी. इस बार भी यहां सियासी मुकाबला दोनों पार्टियों के लिये नाक का सवाल बना हुआ है. 

राजनगर
बुंदेलखंड अंचल के छतरपुर जिले की राजनगर सीट इस वक्त अंचल में कांग्रेस की सबसे मजबूत सीट मानी जाती है. पिछले तीन चुनावों में यहां से कांग्रेस प्रत्याशी विक्रम सिंह नातीराजा लगातार जीत दर्ज कर रहे हैं. पिछले चुनाव में उन्होंने बीजेपी के कद्दावर मंत्री रामकृष्ण कुसमरिया को शिकस्त दी थी. इस सीट पर जीत हासिल करने की बीजेपी पूरी कोशिश करेगी.

राजपुर
बड़वानी जिले की राजपुर विधानसभा सीट भी कांग्रेस की मजबूत सीटों में गिनी जाती है. यहां से कांग्रेस विधायक बाला बच्चन भी प्रदेश कांग्रेस के कार्यकारी अध्यक्ष हैं. वे यहां से चार विधानसभा चुनाव जीत चुके हैं. हालांकि, 2003 में यह सीट बीजेपी जीतने में कामयाब हुई थी. लेकिन, दो बार से फिर उसे हार का सामना करना पड़ा रहा है. इस बार बीजेपी यहां मजबूत प्रत्याशी की तलाश में है. 

कसरावद
खरगोन जिले की कसरावद विधानसभा सीट कांग्रेस की मजबूत सीटों में मानी जाती है. इस सीट को कांग्रेस के कद्दावर नेता सुभाष यादव की पंरमपरागत सीट की नजर से देखा जाता है. हालांकि, इस सीट पर 2008 में बीजेपी को जीत मिली थी. लेकिन, 2013 में सुभाष यादव के पुत्र सचिन यादव ने यह सीट बीजेपी से फिर छीन ली थी. कांग्रेस इस सीट पर पांच चुनाव जीत चुकी है.

अमरपाटन
सतना जिले की अमरपाटन सीट कांग्रेस का गढ़ मानी जाती है. इस सीट से विधायक राजेंद्र सिंह विधानसभा में उपाध्यक्ष हैं. हालांकि, इस सीट पर भी एक बार बीजेपी जीतने में कामयाब हुई है. लेकिन, पिछले चुनावों में बड़ी जीत हासिल कर राजेंद्र सिंह ने एक बार फिर यहां कांग्रेस का झंडा बुलंद किया, जबकि इस बार भी इस सीट पर मुकाबला कड़ा होने की उम्मीद है.

यहां चुनावी मुकाबला रोचक होने की उम्मीद 
सूबे में होने वाले सियासी समर में बीजेपी इस बार कांग्रेस के इन मजबूत गढ़ों में सेंधमारी की पूरी कोशिश करेगी. भले ही बीजेपी 15 साल से सत्ता पर काबिज है. लेकिन, चुनावी समर में ये सीटें जीतना किसी चुनौती से कम नहीं है. ऐसे में इस बार भी बीजेपी इन सीटों पर पूरा जोर लगाती नजर आयेगी. जिससे यहां का चुनावी मुकाबला रोचक होने की उम्मीद है.

बीजेपी-कांग्रेस के बीच विलेन बना तीसरा मोर्चा, बिगाड़ सकता है सियासी गणित

भोपाल. मध्यप्रदेश में औपचारिक रुप से चुनावी बिगुल बज चुका है. ऐसे में नए-नए सियासी समीकरण बनने बिगड़ने शुरु हो गये हैं. सूबे की सभी 230 विधानसभा सीटों पर इस बार जोरदार मुकाबला होने की उम्मीद है क्योंकि पिछले तीन चुनावों की अपेक्षा सूबे में इस बार कुछ ऐसे समीकरण बने हैं. जिसने प्रमुख दलों की नीद उड़ा दी है, जिसके एक कदम आगे बढ़ने से कोई भी कई कदम पीछे खिसक सकता है, जबकि कोई कई कदम आगे निकल सकता है.

सूबे में सतारूढ़ बीजेपी जहां सभी सीटों पर अकेले चुनाव लड़ने जा रही है तो मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस भी सिसायी वनवास खत्म करने की जद्दोजहद में लगी है. लेकिन, इन सब के बीच मध्यप्रदेश में पहली बार तीसरा मोर्चा पूरी ताकत के साथ दमखम दिखाता नजर आ रहा है. जो बीजेपी और कांग्रेस दोनों के अरमानों पर पानी फेर सकता है.



इससे बीजेपी-कांग्रेस दोनों की मुश्किलें बढ़ जायेंगी
दरअसल, बसपा-सपा, गोंडवाना गणतंत्र पार्टी, आमआदमी पार्टी, सपाक्स, जयआदिवासी युवा संगठन के साथ अन्य कई छोटे-छोटे दल पूरी ताकत के साथ चुनावी समर में ताल ठोक रहे हैं. जिनका राज्य के कुछ-कुछ हिस्सों में मजबूत पकड़ है. वहीं, मतदान से पहले इन सभी दलों के बीच महागठबंधन होने के कयास भी लगाये जा रहे है, जबकि अगर ऐसा होता है तो इससे बीजेपी-कांग्रेस दोनों की मुश्किलें बढ़ जायेंगी.

अहम भूमिका में नजर आ सकता है तीसरा मोर्चा
प्रदेश में होने जा रहे सियासी दंगल में इस बार तीसरे मोर्चे की खास भूमिका होगी क्योंकि छः अंचलों में बटी सूबे की सियासत में हर छोटे-बड़े राजनीतिक दलों का अपना-अपना सियासी रसूख है, जो दिखाई भी देता है. पूरे महाकौशल अंचल में गोंगपा और बसपा का अच्छा खासा दबदबा माना जाता है तो इस बार जयस जैसे संगठन का दम भी कम नहीं है. वहीं, बात अगर बुंदेलखंड और विंध्य अंचल की हो तो इन दोनों ही जोन में बसपा और सपा मजबूत नजर आती है, जबकि ग्वालियर-चंबल अंचल में यूपी से सटी विधानसभा सीटों पर भी इन दोनों पार्टियों का अच्छा खासा प्रभाव है. बात अगर मालवा-निमाड़ और मध्यभारत की की जाये तो इस बार तीसरे मोर्चे की धमक इन दोनों अंचलों में भी जोर-शोर से सुनाई दे रही है. जिसने अभी से बीजेपी-कांग्रेस की परेशानियां बढ़ा दी है.

ऐसी होगी सूबे में तीसरे मोर्चे की तस्वीर
बात अगर तीसरे मोर्चे के स्वरुप की की जाये तो इसमें छोटी-बड़ी कई पार्टियां नजर आ सकती हैं. तीसरे मोर्चे में सबसे बड़ा रोल बसपा और सपा का होने वाला है क्योंकि यूपी के इन दोनों सियासी दलों की नजरें अब मध्यप्रदेश पर टिकी हैं, जबकि कई छोटी-छोटी पार्टियां जिनमें भारतीय शक्ति चेतना पार्टी, नेशनलिस्ट कांग्रेस पार्टी, महान दल, राष्ट्रीय समानता दल, बहुजन संर्घष दल जैसी पार्टियां भी चुनावी समर में उतरेंगी. वहीं, चर्चा तो इस बात की भी है कि पूर्व केंद्रीय मंत्री शरद यादव की अगुवाई में इन सभी पार्टियों के बीच महागठबंधन भी हो सकता है. अगर ये महागठबंधन बनता है तो इसमें सपा-बसपा के भी साथ आने की उम्मीद जताई जा रही है. जोकि तीसरे मोर्चे को मजबूती प्रदान करेगी.

ये नया समीकरण बिगाड़ सकता है कांग्रेस-बीजेपी का खेल
इन पार्टियों में ऐसे सियासी सूरमा हैं, जिनकी अपने-अपने क्षेत्रों में अच्छी पकड़ है. ऐसे नेताओं में गोंगपा के हीरा सिंह मरकाम, सपा के प्रदेश अध्यक्ष गौरी सिंह यादव, बहुजन संघर्ष दल के फूल सिंह बरैया जैसे नेता अहम साबित हो सकते हैं. वहीं, इन सब के बीच आम आदमी पार्टी, सपाक्स पार्टी ने गठबंधन जैसी कोई बात तो नहीं की है. लेकिन, इन पार्टियों की तैयारियां मैदान में दम दिखाने की पूरी हैं. आप ने तो प्रदेश संयोजक आलोक अग्रवाल को मुख्यमंत्री उम्मीदवार के तौर पर मैदान में उतार दिया है और उम्मीदवारों की दो सूची भी जारी कर चुकी है. वहीं सपाक्स और जयस भी पूरी तरह से चुनावी तैयारियों में जुटे हैं. ऐसे में तीसरे मोर्चे का बनता सियासी समीकरण बीजेपी-कांग्रेस के चुनावी समीकरणों को बिगाड़ने में बड़ा रोल निभा सकती है, जबकि इतना तो तय है कि इस बार प्रदेश की सभी सीटों पर बीजेपी-कांग्रेस के साथ तीसरा प्रत्याशी भी मजबूत दिखाई दे सकता है.

इन 17 जिलों में सबने छोड़ा था 'हाथ' का साथ, 16 जिलों में मिली एक-एक सीट

भोपाल.मध्यप्रदेश में सियासी संग्राम की उलटी गिनती शुरु हो गई है. जिसके चलते अब सूबे की फिजाओं में सियासी सरगर्मियां और जोर पकड़ेंगी. वहीं, चुनावी दंगल में विरोधी एक दूसरे को पछाड़ने का कोई मौका नहीं छोड़ना चाहेंगे. फिलहाल, सूबे की सियासी फिजा पर भगवा रंग चढ़ा हुआ है, जिसे कांग्रेस इस बार फीका करने का कोई मौका नहीं छोड़ना चाहती है, जिसके चलते इस बार मुकाबला कांटे का होगा.

मध्यप्रदेश में पिछले तीन चुनावों से बीजेपी कांग्रेस को पटखनी देती आ रही है. पिछले विधानसभा चुनाव में बीजेपी 165 सीटें जीतकर सत्ता के शिखर पर पहुंची थी, जबकि कांग्रेस को महज 58 सीटें ही मिली थी. लेकिन, पिछली बार बीजेपी की इस जीत में 52 जिलों वाले मध्यप्रदेश के 17 जिलों के मतदाताओं ने अहम भूमिका निभाई थी. इन जिलों के अंतर्गत आने वाली 65 विधानसभा सीटों में से 64 सीटें जीतकर बीजेपी ने कांग्रेस का सूपड़ा साफ कर दिया था. जहां कांग्रेस को एक अदद सीट भी हासिल नहीं हुई थी.

इन जिलों में कांग्रेस को नहीं मिली एक भी सीट
दतिया, उमरिया, बैतूल, होशंगाबाद, रायसेन, शाजापुर, देवास, उज्जैन, रतलाम, नीमच, खंडवा, बुरहानपुर, अलीराजपुर, नरसिंहपुर, रतलाम, झाबुआ, आगर. ये वो जिले हैं जिनमें पिछली बार कांग्रेस का खाता तक नहीं खुल पाया था या यूं कहें कि इन जिलों से कांग्रेस का पूरी तरह सफाया हो गया था, जहां इस बार धाक जमाने की जुगत में कांग्रेस हर पैंतरे आजमा रही है.

इन जिलों में महज एक सीट पर मिली थी जीत
वहीं, सागर, पन्ना, दमोह, छतरपुर, कटनी, शहडोल, सिंगरौली, डिंडौरी, मंडला, हरदा, राजगढ़, सीहोर, इंदौर, मंदसौर, श्योपुर, भोपाल इन जिलों में कांग्रेस को महज एक-एक सीट से ही संतोष करना पड़ा था.

मालवा-निमाड़ में बुरी तरह पिछड़ गयी थी कांग्रेस 
मध्यप्रदेश में सत्ता की चाबी कहे जाने वाले मालवा-निमाड़ अंचल में भी कांग्रेस को बुरी तरह हार का सामना करना पड़ा था. यहां के 11 जिलों में कांग्रेस का खाता नहीं खुलने की वजह से सूबे में उसे इतनी बड़ी हार का सामना करना पड़ा था. ऐसे में कांग्रेस इस बार यहां पूरी ताकत के साथ मैदान में दिख रही है. यही वजह है कि कांग्रेस चुनाव अभियान की शुरुआत उज्जैन से किया है. 

इस बार पूरी तैयारी में दिख रही कांग्रेस
भले ही कांग्रेस पिछली बार 17 जिलों में अपना खाता तक नहीं खोल पायी थी. लेकिन, इस बार वह पूरी तैयारी के साथ मैदान में दिख रही है. चुनावों से पहले पार्टी प्रदेश अध्यक्ष बनाये गये कमलनाथ के नेतृत्व में कांग्रेस इस बार चुनावी जंग फतह करने की जुगत में है. वहीं, इन 17 जिलों पर भी कांग्रेस की विशेष नजर रहेगी. जहां वह इस बार कोई कसर नहीं छोड़ना चाहेगी.

Wednesday 3 October 2018

गांधी दिवस पर दिल्ली में अन्नदाता पर पुलिस की दे दनादन

जिस देश की आत्मा किसानों के दिल में बसती है. उस देश में किसानों के उत्थान की बस बातें हो रही हैं, पिछले 70 बरस से नेताओं की जुबान पर यही वादे हैं और सरकारी फाइलों में पिछले 70 बरस से यही बातें अलग अलग स्याही से लिखी जा रही हैं. पर आज तक उस स्याही का रंग किसी पन्ने पर दिखाई नहीं दिया. वह पन्ना आजादी के सात दशक बाद भी कोरा ही है.

Tuesday 2 October 2018

मध्यप्रदेश में नीली चादर ओढ़ने की तैयारी में कांग्रेस तो माया ने भी फैलाया आंचल!

भोपाल। मध्यप्रदेश में सियासी बिगुल बजने भर की देर है, लेकिन उससे पहले सत्ता पक्ष और विपक्ष अपनी सेना मजबूत करने में जी-जान से जुटे हैं। कांग्रेस-बीजेपी के सेनापति अपनी सेना में दूसरे दलों के बेहतर लड़ाकों को शामिल करने से भी गुरेज नहीं कर रहे हैं, जबकि कांग्रेस-बसपा की पूरी सेना को अपने साथ जोड़ने की जुगत में है।

दरअसल, पहले इस बात के कयास लगाये जा रहे थे कि चुनाव से पहले मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में कांग्रेस नीले झंडे की चादर ओढ़ सकती है। कुछ दिनों पहले कुमार स्वामी के शपथ समारोह में महागठबंधन के कई नेता पहुंचे थे, वहां से जो तस्वीरें सामने आईं थी, वो नए सियासी समीकरण की तरफ इशारा कर रही थीं, जो अब वजूद में आती दिखने लगी हैं।

महागठबंधन की गांठ मजबूत होगी की नहीं, इसका कोई स्पष्ट प्रमाण तो नहीं है। लेकिन, मध्यप्रदेश में बसपा-कांग्रेस के गठबंधन की पूरी संभावना है। इसके पीछे एक वजह और भी है कि एमपी में बसपा का थोड़ा ही, लेकिन वजूद तो है, जो कांग्रेस के तिनका-तिनका जोड़कर महल तैयार करने के सपने को पूरा करने में मदद कर सकता है। लिहाजा कांग्रेस पूरी कोशिश करेगी कि बसपा को उसका साथ मिले, ताकि हर विधानसभा सीट पर उसके वोट की हिस्सेदारी बढ़ सके।

बसपा प्रमुख मायावती ने अपनी ही पार्टी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और राष्ट्रीय को-ऑर्डिनेटर जयप्रकाश की छुट्टी सिर्फ इसलिए कर दी क्योंकि उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी और सोनिया गांधी पर व्यक्तिगत टिप्पणी की थी। हालांकि, राजनीति में भी सबकी अपनी-अपनी मर्यादा होती है, पर कई बार लोग अपने मन की भड़ास निकालने या फिर अपने पक्ष में माहौल बनाने के लिए किसी पर भी जुबानी बंदूक चला देते हैं, जोकि कई बार निशाने पर लग भी जाती है तो कई बार बैक होकर उसे ही घायल कर देती है।

सोमवार को लखनऊ में जय प्रकाश ने कहा था कि राहुल गांधी अगर अपने पिता पर गए होते तो कुछ उम्मीद भी थी, लेकिन वो तो अपनी मां पर गया है और उसकी मां सोनिया गांधी विदेशी मूल की है, उसमें विदेशी खून है इसलिए मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि वो भारतीय राजनीति में कभी सफल नहीं हो सकता। वहीं राहुल को पीएम पद का उम्मीदवार बनाये जाने पर कहा था कि भारत का प्रधानमंत्री 'पेट' से नहीं बल्कि 'पेटी' से निकलता है।

ऐसा करके मायावती ने गठबंधन की गांठ को किया मजबूत
कांग्रेस-बीएसपी के साथ मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में चुनावी समझौते की दिशा में आगे बढ़ रही है, ऐसे में जय प्रकाश का ये बयान उस समझौते पर ब्रेक लगा सकता था, लिहाजा मायावती ने आनन-फानन में जय प्रकाश की पार्टी से छुट्टी कर दी। ऐसा करके मायावती ने उस गठबंधन की गांठ को और मजबूत कर दिया है, जिस गांठ के पड़ने की संभावना प्रबल हो चुकी है।

बीजेपी के पास अपना किला बचाने की चुनौती
हालांकि, मध्यप्रदेश में न तो कांग्रेस के पास कुछ खोने के लिए है और न ही बसपा के पास, जो कुछ खोने के लिए है, वो सब बीजेपी के पास ही है। ऐसे में यदि दोनों मिलकर चुनाव लड़ते हैं तो एमपी में भी बिहार जैसी बहार आ सकती है, भले ही वह थोड़ी देर के लिए ही क्यों न हो। मुमकिन ये भी है कि यदि कर्नाटक जैसे नतीजे आये तो मध्यप्रदेश में मायावती का भी भाग्योदय हो जाये।

घर वापसी की राह देख रही कांग्रेस
कांग्रेस की भी कोशिश है कि किसी भी तरह इस बार सियासी वनवास से घर वापसी कर ले, बस इसी के चलते वह हर उस व्यक्ति, पार्टी को अपने पाले में शामिल करने की जुगत में है, जो उसकी घर वापसी की राह को आसान कर सके।

MP: बीजेपी के लिए चक्रव्यूह रच रहा विपक्ष, जुटा रहा महारथियों की फौज!

भोपाल। मध्यप्रदेश में विधानसभा चुनाव का बिगुल बजने भर की देर है, उससे पहले सियासी दल एक दूसरे को मात देने की तरकीब ढूंढ रहे हैं, जबकि सत्तारूढ़ बीजेपी के खिलाफ पूरा विपक्ष चक्रव्यूह रच रहा है, ताकि इस बार किसी भी हाल में उसे मात दे सके। अब बीजेपी के सामने चुनौती है कि आखिर वो कौन महारथी होगा जो इस चक्रव्यूह को भेद सकेगा।

दरअसल, सभी दल सियासी चौसर पर अपने-अपने मोहरों को सेट कर रहे हैं, ताकि चुनावी मैदान मार सकें। हालांकि मध्यप्रदेश में कांग्रेस के पास कुछ भी गंवाने के लिए नहीं है, लेकिन किसी भी हाल में बीजेपी को सत्ता से बाहर करने की जिद है, लिहाजा दुश्मनी को तिलांजलि देकर कांग्रेस नीली चादर ओढ़ना चाहती है, जबकि साइकिल पर सवार होकर मध्यप्रदेश की सत्ता के सिंहासन से बीजेपी को गिराना चाहती है और खुद सत्तासीन होकर सियासी वनवास खत्म करना चाहती है।

चुनावी आहट मिलते ही सियासी समीकरण हर पल ऊंट की तरह करवट बदलने लगे हैं, कब कौन किससे गले मिलता है और कब किसकी पीठ में खंजर घोंप दे, कुछ कहा नहीं जा सकता। लेकिन मध्यप्रदेश में जो सियासी समीकरण बन रहे हैं, यदि वह धरातल पर उतरे तो निश्चित रूप से बिहार जैसी बहार एमपी में भी देखने को मिलेगी। अब बीजेपी इस समीकरण के समानांतर फॉर्मूला ढूंढ रही है, ताकि विपक्ष के समीकरण को कुतर सके और कांग्रेस की घर वापसी भी रोक सके।

वहीं गुरुवार को अखिलेश यादव के भोपाल दौरे के बाद संभावनाओं को और बल मिलने लगा है कि आगामी चुनाव में कांग्रेस साइकिल सहित हाथी पर सवार हो जाये क्योंकि बसपा का कुछ तो जनाधार कांग्रेस के खाते में आयेगा, भले ही सपा का उतना प्रभाव एमपी में नहीं है, फिर भी वोटकटवा तो साबित हो ही सकती है। जो बीजेपी के विजयरथ को रोकने में मददगार साबित हो सकता है। कुल मिलाकर बीजेपी के लिए विपक्ष जो चक्रव्यूह तैयार कर रही है, उसका तोड़ अभी तक बीजेपी के पास नहीं है।

विपक्ष के चक्रव्यूह को तोड़ने के लिए बीजेपी का अर्जुन कौन होगा क्योंकि यहां अभिमन्यु की जरूरत नहीं है, यहां तो किसी हाल में बीजेपी को विपक्ष का चक्रव्यूह भेदना ही होगा, बीजेपी ने तो जबलपुर सांसद राकेश सिंह को अर्जुन बनाकर मैदान में उतार दिया है, लेकिन केशव जैसा कुशल सारथी नहीं बना सकी है, जो उनका हर पल मार्गदर्शन करे और दुश्मन की कमजोरियों को साधने का जुगाड़ उनको बताये। ऐसे में यदि कोई सारथी नहीं मिला तो बीजेपी नरेंद्र मोदी को चक्रव्यूह तोड़ने की जिम्मेदारी सौंप सकती है क्योंकि तब अमित शाह उनके रथ पर सवार होकर उन्हें दुश्मन की काट बतायेंगे।

लखनऊ टू भोपाल वाया दिल्ली सरपट दौड़ रही सियासी ट्रेन
लखनऊ टू भोपाल वाया दिल्ली सरपट दौड़ रही सियासी ट्रेन हर उस स्टेशन पर रुक रही है, जहां से भी सियासी फायदा मिलने की उम्मीद है, यदि यह ट्रेन सही सलामत अपने गंतव्य तक पहुंची तो मध्यप्रदेश में बीजेपी के लिए अपना किला दुश्मन के वार से बचाना मुश्किल होगा, जबकि बीजेपी का किला भेदने के लिए कांग्रेस उन सभी दलों को एकजुट कर रही है, जो बीजेपी के खिलाफ हैं या अलग-थलग पड़े हैं। कांग्रेस इस बार एक-एक ईंट जोड़कर सियासी महल बनाने की कोशिश में है तो कांग्रेस के हर उस ईंट को दीवार से निकालने की जुगत में है, जिसके बल पर सियासी इमारत खड़ी होनी है।

'चाणक्य' की चाल में फंसे शिवराज, उल्टा न पड़ जाये 'देशद्रोही' दांव

भोपाल। मध्यप्रदेश में सियासी संग्राम का बिगुल बजने भर की देर है। पक्ष-विपक्ष एक-दूसरे की कमजोरियों पर वार करके सियासी मैदान में उतरने से पहले घायल करने की फिराक में हैं, यही वजह है कि जिस माध्यम से सवाल उठ रहे हैं, उसी माध्यम में जवाब भी मिल रहा है। अब दोनों दलों में देशभक्त और देशद्रोही साबित करने की होड़ मची है।

दरअसल, मुख्यमंत्री शिवराज सिंह कांग्रेस की जड़ पर चोट करना चाहते हैं क्योंकि उन्हें मालूम है कि चाणक्य को चोटिल करने की उनकी रणनीति कामयाब हो जाती है तो विरोधी खेमे पर बढ़त बनाना आसान हो जाएगा।  कांग्रेस ने मध्यप्रदेश में भले ही कमल को नाथ बना दिया है, सिंधिया को लोगों को साधने की जिम्मेदारी सौंपी है, लेकिन बिना चाणक्य की चाल के न तो सिंधिया को किसी का साथ मिलेगा, न नाथ को कोई नाथ की संज्ञा दे पायेगा।

मध्यप्रदेश में कांग्रेस तिनके की तरह बिखरी है, जिसे एकजुट करने की जिम्मेदारी चाणक्य को सौंपी गयी है क्योंकि चाणक्य के सिवाय किसी और नेता में बिखरे पत्तों को समेटने की क्षमता नहीं है। चाणक्य की हर चाल सुर्खियों में रहती है, ऐसे में सीएम शिवराज ने चाणक्य को देशद्रोही बताकर खुद से आफत मोल ले ली है। अब दिग्विजय ने खुद को देशद्रोही साबित करने के सबूतों का जो पासा फेंका है, वह काफी हद तक बाजी पलटने वाला हो सकता है।

सतना में जब सीएम शिवराज ने जन आशीर्वाद यात्रा के दौरान दिग्विजय सिंह को देशद्रोही बताया तो उन्होंने इस मौके को लपक लिया और तब से कई बार शिवराज को निशाना बना चुके हैं, लेकिन अब तक उनका एक भी वार निशाने पर नहीं लग सका है, अब 26 जुलाई को दिग्गी राजा आखिरी पंच मारेंगे, जब टीटी नगर थाने में अपनी गिरफ्तारी देने जाएंगे, तब शिवराज को उनके देशद्रोही होने का सबूत देना होगा, ऐसा नहीं करने पर शिवराज को मुंह की खानी होगी।

तब मधुमक्खी की तरह टूट पड़ी थी कांग्रेस
इससे पहले इसी तरह का एक ट्वीट कर दिग्विजय सिंह भी औंधे मुंह गिरे थे, तब पूरी बीजेपी उन पर मधुमक्खी की तरह टूट पड़ी थी, जिसके बाद दिग्विजय को माफी मांगनी पड़ी थी। जिसमें उन्होंने लिखा था कि ये तस्वीर हमारे मित्र ने भेजी थी, लेकिन उसकी प्रमाणिकता के बिना पोस्ट कर दिया था। मुझे बिना प्रमाणिकता जांचे पोस्ट नहीं करना चाहिए था।

उल्टा पड़ रहा शिवराज का दांव
हालांकि, ऐसा बयान देकर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह दिग्विजय सिंह को घेरना चाहते थे, लेकिन यह दांव उनके लिए उल्टा पड़ता दिखाई दे रहा है क्योंकि जब दिग्गी राजा थाने में गिरफ्तारी देने जाएंगे, तब सरकार या पुलिस किस आधार पर उन्हें गिरफ्तार करेगी, कहां से देशद्रोही साबित करने के सबूत लायेगी। ऐसे में दिग्विजय को सीएम शिवराज को झूठा साबित करने का मौका मिल जायेगा, जिसे अब से लेकर चुनाव तक कांग्रेस भुनाने से नहीं चूकेगी, वैसे भी विपक्ष, शिवराज को घोषणावीर मुख्यमंत्री के तौर पर पेश करता है।

इस सावन 'घटाएं' काली नहीं बल्कि काल बनकर आयीं, 11 दिन में 6 हस्तियों को साथ ले गयीं

ग्वालियर। जब कोई बड़ा पेड़ गिरता है, आसपास के आशियानों को धराशायी कर देता है, फिर उसकी स्मृतियां लंबे समय तक लोगों के जेहन में जिंदा रहती हैं। ऐसे ही भारतीय राजनीति के वटवृक्ष के धराशायी होने पर चारो ओर मातम पसरा है, लोग अटलजी की छोटी से छोटी यादों को भी साझा कर रहे हैं। ऐसा लगता है कि मौजूदा सावन काली घटाएं नहीं बल्कि काल लेकर आयी और अपने साथ इन हस्तियों को लेकर चली गयी।

16 अगस्त की शाम 5 बजकर पांच मिनट पर पूर्व प्रधानमंत्री भारत रत्न अटल बिहारी वाजपेयी ने दिल्ली स्थित अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में आखिरी सांस ली। इसके साथ ही खामोश हो गयी वो अटलवाणी, जो अपनों के साथ-साथ गैरों के भी दिलों पर राज करती थी, पक्ष के साथ विपक्षी भी उनकी तारीफ करते नहीं थकते थे। अटलजी दुनिया से रुखसत होकर भी एक जननेता, कवि, प्रखर वक्ता के रूप में अमर हो गये। ग्वालियर में 25 दिसंबर 1924 को शुरू हुए अटल सफर 16 अगस्त 2018 को पूर्ण विराम लग गया।

13 अगस्त 2018 की सुबह सोमनाथ चटर्जी का कोलकाता के एक निजी अस्पताल में निधन हो गया, 12 अगस्त को उन्हें दिल का दौरा पड़ने के बाद अस्पताल में वेंटिलेटर (लाइफ सपोर्ट सिस्टम) पर रखा गया था, वो भी एक मझे हुए राजनेता व कानूनविद थे। चटर्जी 1971 से 2009 तक लोकसभा सांसद रहे, इस दौरान जाधवपुर लोकसभा क्षेत्र से 1984 में केवल एक बार उन्हें ममता बनर्जी से मात खानी पड़ी थी। 1996 में उन्हें बेहतरीन सांसद का खिताब मिला था।

सोमनाथ की बेबाक शैली के कायल थे लोग
सोमनाथ चटर्जी का जन्म 25 जुलाई 1929 को हुआ था, उनके पिता एनसी चटर्जी हिन्दू महासभा से जुड़े थे, उन्होंने ब्रिटेन के मिडल टेंपल से बैरिस्टर की पढ़ाई की थी। उन्होंने अपने पिता की मौत के बाद रिक्त हुई सीट पर चुनाव लड़ा था, यूपीए वन में सोमनाथ चटर्जी लोकसभा अध्यक्ष बने थे, तब 2008 में अमेरिका के साथ हुए परमाणु समझौते के बाद सीपीएम में उन्हें इस्तीफा देने को कहा था, तब उन्होंने कहा था कि लोकसभा अध्यक्ष किसी पार्टी का नहीं देश का होता है।

द्रविड़ राजनीति के बड़े स्तम्भ थे करुणानिधि
दक्षिण भारत की राजनीति के मुख्य स्तंभ और तमिलनाडु के 5 बार मुख्यमंत्री रहे एम. करुणानिधि का लंबी बीमारी के बाद 7 अगस्त 2018 की शाम 6:10 बजे चेन्नई के कावेरी अस्पताल में अंतिम सांस ली। इसी साल 3 जून को करुणानिधि ने अपना 94वां जन्मदिन मनाया था, 50 साल पहले 26 जुलाई, 1969 को उन्होंने डीएमके की कमान अपने हाथों में ली और तब से मरते दम तक पार्टी के मुखिया बने रहे। उनके नाम जीत का भी रिकॉर्ड है, 12 बार विधानसभा चुनाव लड़े और हर बार जीत हासिल की थी।

इंदिरा की सरकार में सबसे ताकतवर थे धवन
पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के निजी सचिव रहे कांग्रेस नेता आरके धवन का 81 की उम्र में निधन हो गया। दिल्ली के बीएल कपूर अस्पताल में 6 अगस्त की शाम लगभग सात बजे उन्होंने अंतिम सांस ली। धनव 1990 में राज्यसभा सांसद चुने गए। कई संसदीय समितियों में शामिल रहे। धवन ने जुलाई 2012 में 75वें जन्मदिन पर 15 साल छोटी अचला से पहली शादी की थी। धवन 1962 से इंदिरा गांधी के साथ थे। 1984 में इंदिरा पर हमले के वक्त उनके साथ मौजूद थे। जब इंदिरा को अस्पताल ले जाया गया, तब धवन भी अस्पताल गए थे। बाद में इस मामले में गवाह बने। धवन इमरजेंसी के दौरान इंदिरा के चुनिंदा नेताओं में शामिल थे। उनका पूरा नाम राजिंदर कुमार था। 16 जुलाई 1937 को पाकिस्तान के चिनोट में उनका जन्म हुआ था और विभाजन के बाद भारत आ गये थे।

नहीं रहे बलरामदास टंडन
छत्तीसगढ़ के राज्यपाल बलराम दास टंडन का 14 अगस्त को दोपहर रायपुर के आंबेडकर अस्पताल में निधन हो गया। जनसंघ के संस्थापक सदस्य और भाजपा के वरिष्ठ नेता रहे टंडन ने 18 जुलाई 2014 को छत्तीसगढ़ के राज्यपाल का पद संभाला था। अपने राजनीतिक करियर में टंडन पंजाब के उप मुख्यमंत्री सहित विभिन्न पदों पर रहे। छह बार विधायक रहे टंडन आपातकाल के दौरान 1975 से 1977 तक जेल में भी रहे। टंडन का जन्म एक नवंबर 1927 को पंजाब के अमृतसर में हुआ था।

अजीत वाडेकर का निधन
पूर्व भारतीय टेस्ट कप्तान और पूर्व चीफ सिलेक्टर अजीत वाडेकर का 15 अगस्त 2018 को दोपहर बाद 77 वर्ष की उम्र में निधन हो गया। मुंबई के जसलोक अस्पताल में उन्होंने अंतिम सांस ली। वाडेकर अपने दौर के उम्दा लेफ्ट हैंड बल्लेबाजों में शुमार थे। उन्होंने भारत के लिए 37 टेस्ट मैच और 2 वनडे मैच खेले। अजीत का जन्‍म एक अप्रैल 1941 में मुंबई में हुआ था, वाडेकर ने 1966 से 1974 तक अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट खेला, अपने प्रथम श्रेणी क्रिकेट की शुरुआत 1958 में की थी, जबकि अंतरराष्‍ट्रीय करियर की शुरुआत 1966 में की थी।

MP: एक परिवार-दो दावेदार, विधानसभा चुनाव में उतरेंगे कई नामदार

भोपाल। मध्यप्रदेश में बीजेपी के लिए जीत की राह आसान नहीं है. जीत का चौका लगाने के लिए बेताब बीजेपी उसी चाल में फंसती नजर आ रही है, जिसके सहारे वह अब तक विरोधियों को जाल में फंसाती थी, ऐसा इसलिये कि इस बार चुनाव में 'एक परिवार दो दावेदार' की कतार लंबी है. जिससे निपटना बीजेपी के लिये किसी खास रणनीति से कम नहीं है.

दरअसल, आगामी विधानसभा चुनाव में मध्यप्रदेश बीजेपी में वशंवाद की नई खैप तैयार हो गई है, जो इस बार चुनाव में उतरने की तैयारी कर रही है. वंशवाद की राजनीति का हमेंशा विरोध करने वाली बीजेपी इस बार खुद वंशवाद के आरोपों से घिरती दिखाई दे रही हैं. ऐसा इसलिये कि इस बार दस से ज्यादा नेताओं के पुत्रों ने चुनाव में उतरने की तैयारी कर ली जबकि इनके पिता भी चुनाव लड़ने के प्रबल दावेदार है. 'ऐसे में एक परिवार दो दावेदार' की इस समस्या को बीजेपी केसे हल करेंगी यह तो बाद में पता चलेगा. फिलहाल तो इन पिता-पुत्रों ने अपनी-अपनी दावेदारी पेश करनी शुरु कर दी है.

पिता-शिवराज सिंह चौहान, बेटा-कार्तिकेय चौहान
विधानसभा चुनाव लड़ने में जिन पिता-पुत्र की जोड़ी सबसे ऊपर नजर आ रही हैं, उनमें खुद सीएम शिवराज सिंह और उनके पुत्र कार्तिकेय चौहान शामिल है. सीएम तो चुनाव लड़ेंगे ही, जबकि उनके पुत्र भी बुधनी विधानसभा में लगातार सक्रिय नजर आ रहे हैं. हालांकि कार्तिकेय चुनाव लड़ने की बात से इन्कार करते है. लेकिन, जिस तरह से वो चुनाव प्रचार में जुटे है उससे उनके चुनाव लड़ने के पूरे आसार नजर आ रहैं है. वेसे भी सीएम शिवराज ने 2013 का चुनाव दो सीटों बुधनी और विदिशा से लड़ा था. दोनों सीटों से चुनाव जीतने के बाद सीएम ने विदिशा सीट खाली कर दी थी. अगर ऐसे ही हालत इस बार बने तो पिता-पुत्र की यह जोड़ी विधानसभा पहुंच सकती हैं।

पिता-कैलाश विजयवर्गीय, बेटा-आकाश विजयवर्गीय
बीजेपी के राष्ट्रीय महासचिव और कैलाश विजयवर्गीय वर्तमान में महू विधानसभा सीट से विधायक है. लेकिन, इस बार उनके पुत्र आकाश विजयवर्गीय ने भी इशारो-इशारों में चुनाव लड़ने की इच्छा जाहिर कर दी है. कैलाश भी अपने पुत्र को राजनीति में स्थापित करना चाहते है. इसी के चलते आकाश अपने पिता के विधानसभा क्षेत्र के साथ-साथ इंदौर की अन्य विधानसभा सीटों में भी सक्रिय दिखाई दे रहे है. ऐसे में इस बात की पूरे आसार है कि ये इन दोनों पिता-पुत्रों की जोड़ी भी चुनाव रण में दिखाई दे. 

पिता-गोपाल भार्गव, बेटा-अभिषेक भार्गव
प्रदेश के सबसे कद्दावर मंत्रियों में गिने जाने वाले गोपाल भार्गव वर्तमान में रहली विधानसभा क्षेत्र से विधायक है. लेकिन, 2014 के लोकसभा चुनाव में सागर लोकसभा सीट से दावेदारी करने वाले उनके पुत्र अभिषेक भार्गव अब विधानसभा चुनाव में लड़ने की तैयारी करते दिख रहे है. जबकि मंत्री भार्गव भी चाहते है उनका बेटा विधानसभा चुनाव लड़े. भाजपा युवा मोर्चा के कई पदो पर रह चुके अभिषेक का राजनीति में सक्रियता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है पिछले चुनाव में पिता के प्रचार की जिम्मेदारी उन्होंने ही संभाली थी. गोपाल भार्गव इस बार भी रहली से टिकट के प्रबल दावेदार है, जबकि उनके पुत्र अभिषेक सागर जिले की देवरी विधानसभा सीट से अपनी दावेदारी कर रहे हैं. 

पिता-गौरीशंकर शेजवार, बेटा-मुदित शेजवार 
सांची विधानसभा सीट से विधायक और प्रदेश सरकार में वन मंत्री गौरीशंकर शैजवार भी अपने बेटे मुदित शैजवार को विधायक बनाना चाहते है. मुदित भी अपने पिता के विधानसभा क्षेत्र में सक्रिय नजर आ रहे है. एकात्म यात्रा से लेकर कार्यकर्ता सम्मेलन तक सभी कार्यक्रमों की जिम्मेदारी मुदित ही संभाल रहे है. हालांकि बढ़ती उम्र के चलते शायद मंत्री शैजवार इस बार का चुनाव न लड़े, लेकिन ऐसी परिस्थिति में वह अपने बेटे को पार्टी से टिकट दिलाने की पूरी कोशिश कर रहे है. 

पिता- नरोत्तम मिश्रा, बेटा- सुकर्ण मिश्रा
प्रदेश सरकार के जनसंपर्क मंत्री और दतिया से विधायक नरोत्तम मिश्रा राज्य की राजनीति में अपने कड़क मिजाज के लिये जाने जाते है. ऐसे में मंत्री मिश्रा भी अपने पुत्र सुकर्ण को विधानसभा चुनाव लड़ाना चाहते है, सुकर्ण पूरे दतिया जिले में सक्रिय नजर आ रहे है. हाल ही में सीएम शिवराज की जन आशीर्वाद यात्रा के दौरान उन्होंने जिस तरह जिम्मेदारी संभाली उसे उससे उनके विधानसभा चुनाव लड़ने की दावेदारी के तौर पर देखा गया है. नरोत्तम मिश्रा तो दतिया से चुनाव लड़ेंगे ही, जबकि उनका बेटा भी जिले की बाकि तीन सीटों में से किसी एक पर दावेदारी कर सकता है. 

पिता-नंदकुमार सिंह चौहान, बेटा-हर्ष सिंह चौहान
खंडवा से बीजेपी सांसद नंदकुमार सिंह चौहान ने इस बार विधानसभा चुनाव लड़ने की इच्छा पार्टी के समक्ष जाहिर की है. जबकि उनके पुत्र हर्ष सिंह भी पूरे खंडवा जिले में सक्रिय नजर आ रहे है. बीजेपी प्रदेश अध्यक्ष के पद से निष्कासित होने के बाद से ही नंदू भैया खुद तो विधानसभा चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहे जबकि अपने पुत्र को भी रेस में लगाये हुये है. ऐसे में इन दोनों पिता पुत्रों की जोड़ी विधानसभा में नजर आ सकती है. 

पिता-प्रभात झा, बेटा-तुष्मल झा 
अपने बयानों से हमेशा खबरों में रहने वाले बीजेपी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और राज्यसभा सांसद प्रभात झा के इस बार विधानसभा चुनाव लड़ने की खबरे खूब जोर पकड़ रही हैं. जबकि जिस तरह से उनके पुत्र तुष्मल राजनीति में सक्रिय नजर आ रहे उससे उनके भी विधानसभा चुनाव लड़ने की चर्चा है. तुष्मल को भाजपा युवा मोर्चा की टीम में भी पद मिला है. ऐसे में दोनों पिता पुत्र ग्वालियर-चंबल संभाग की विधानसभा सीटों में से किसी एक-एक सीट पर अपनी दावेदारी जता रहे हैं.

पिता-जयंत मलैया, बेटा- सिद्धार्थ मलैया
दमोह से विधायक और प्रदेश सरकार में वित्तमंत्री जयंत मलैया अपने पुत्र सिद्धार्थ मलैया को विधानसभा चुनाव लड़ाने की कोशिश में जुटे है. पिछले विधानसभा चुनाव में सिद्धार्थ के चुनाव लड़ने की खबरों ने खूब जोर पकड़ा था, तब उन्हें पार्टी ने टिकट नहीं दिया था. लेकिन, इस बार वे फिर दावेदारी कर रहे है. मंत्रीजी भी अपने बेटे टिकट दिलाने के लिये अदंरूनी तोर पर पूरी कोशिश कर रहे है. हालांकि इस बार मंत्री मलैया के चुनाव न लड़ने की खबरे भी सामने आई है. अब देखना दिलचस्प होगा कि पुत्र पिता के लिये प्रचार करेंगा या फिर पिता पुत्र के लिये. 

पिता-गौरीशंकर बिसेन, बेटी-मौसम बिसेन
ऐसा नहीं है कि इस बार के चुनाव में केवल पिता-पुत्रों की जोड़ी ही नजर आ सकती है. इस रेस में पिता-पुत्री की भी एक भी जोड़ी शामिल है. प्रदेश सरकार में कृषि मंत्री गौरीशंकर बिषेन की बेटी मौसम बिषेन भी पिता के साथ विधानसभा चुनाव लड़ना चाहती है. बालाघाट जिले में सक्रिय मौसम ने पिछले लोकसभा चुनाव में अपनी दावेदारी की थी, तब उन्हें टिकट नहीं मिला था. लेकिन, इस बार वे टिकट की पूरी कोशिश में जुटी है. वेसे भी बालाघाट जिले में बिषेन परिवार का दबदबा माना जाता है, मंत्री बिषेन की पत्नी जिला पंचायत अध्यक्ष है, ऐसे में उनकी बेटी भी पिता के साथ बालाघाट जिले की किसी एक सीट से चुनाव लड़ती नजर आ सकती हैं.

पिता-नरेंद्र सिंह तोमर, बेटा-प्रबल प्रताप तोमर
केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर के बेटे प्रबल प्रताप भी विधानसभा चुनाव में उतर सकते है. हालांकि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर तो विधानसभा चुनाव नहीं लडेंगे, लेकिन वह अपने बेटे को चुनाव लड़ाने की पूरी तैयारी में जुटे है. पिछले विधानसभा चुनाव में तोमर पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष थे ऐसे में प्रबल को टिकट नहीं मिल पाया था. लेकिन, प्रबल अपनी दावेदारी पूरी मजबूती से रख रहे है. ऐसे में प्रबल के लिये उनके पिता लोगों से वोट मांगते नजर आ सकते है.

वारिसों को विरासत सौंपने की तैयारी
इन पिता-पुत्रों की जोड़ी के विधानसभा चुनाव लड़ने की खबरों से पार्टी के माथे पर भी चिंता की लकीरे बढ़ी हुई है. दरअसल, वंशवाद का विरोध करने वाली पार्टी में एक साथ वंशवाद की नई पौध सामने आ गई है. सीएम से लेकर मंत्री, सांसदों तक के पुत्र चुनाव लड़ने की इच्छा जता रहे है. ऐसे में बीजेपी भी फूक-फूक कर कदम रख रही है. क्योंकि इन पिता-पुत्रों का अपने-अपने क्षेत्रों में अच्छा खासा प्रभाव है, ऐसे में पार्टी भी इन साधने की पूरी कोशिश में जुटी है.

MP: कांग्रेस के लिये नासूर बनी ये 31 सीटें, पांच बार से नहीं खुला खाता

भोपाल। मध्यप्रदेश विधानसभा चुनाव की घोषणा बस होने भर की देर है, यानि किसी भी वक्त चुनाव आयोग चुनावी दुम्दुभी बजा सकता है. लिहाजा सूबे में सत्तारूढ़ बीजेपी और विपक्षी दल कांग्रेस भी जनता से वादों और दावों का दम दिखाने लगी है, अब इन वादों और दावाों का असर वोटरों पर कितना पड़ता है, ये तो भविष्य के गर्त में है. पर इतना जरूर है कि दोनों दलों में एक दूसरे का गढ़ भेदने की होड़ लगी है.

पिछले 14 सालों से मध्यप्रदेश में सत्ता का वनवास काट रही कांग्रेस इस बार जीत का दम बड़ी शिद्दत से भर रही है और उसे भरोसा भी है कि शिवराज के कुशासन और भ्रष्टाचार से जनता ऊब चुकी है, जिसका फायदा उसे आगामी चुनाव में मिलेगा. हालांकि, माहौल इतना अनुकूल होने के बावजूद भी प्रदेश की 31 विधानसभा सीटें कांग्रेस के गले की फांस बनी हैं, जहां कांग्रेस एड़ी-चोटी का जोर लगाकर भी पिछले पांच चुनावों में वहां खाता तक नहीं खोल सकी है. ऐसे में कांग्रेस इन सीटों पर इस बार हर हाल में ये तिलिस्म तोड़ने की कोशिश में है.

पिछले तीन चुनावों से लगातार हार का मुंह देख रही कांग्रेस के लिये यह चुनाव किसी अग्नि परीक्षा से कम नहीं है. लेकिन, सूबे की 31 सीटों पर कांग्रेस को पिछले पांच चुनावों से हार का सामना करना पड़ा रहा है. इन सीटों पर पार्टी ने हर दांव-पेंच आजमाया. लेकिन, उसके प्रत्याशियों को एक बार भी जीत मयस्सर नहीं हुई. 6 अंचलों में बंटी सूबे की सियासत में हर अंचल की चार-पांच सीटों पर कांग्रेस हर बार चुनाव हार जाती है.

इन सीटों पर पांच बार से लगातार हार रही कांग्रेस
बुंदेलखंडः            सागर, रहली, दमोह, मलेहरा, महाराजपुर
विंध्यः                   रैगांव, रामपुर बघेलान, सिरमौर, त्यौथर, देवतालाब
ग्वालियर-चंबलः   अंबाह, मेहगांव, शिवपुरी, अशोकनगर, पोहरी
मध्यभारतः           गोविंदपुरा, सोहागपुर, विदिशा, शमशाबाद, सीहोर, सारंगपुर, आष्टा,
मालवा-निमाड़ः    देवास, हरसूद, खंडवा, बुरहानपुर, इंदौर-2, इंदौर-4
महाकौशलः         जबलपुर कैंट, बरघाट, सिवनी

इन सभी सीटों पर कांग्रेस को पिछले पांच चुनावों में लगातार हार मिली है. इन चुनावों में दो बार कांग्रेस ने सूबे में सरकार भी बनाई है. लेकिन, वह इन गढ़ों में सेंध लगाने में अब तक कामयाब नहीं हो सकी है.

सीटें जीतने के लिये कांग्रेस बना रही रणनीति
2018 के चुनावी दंगल में इस बार कांग्रेस इन सभी सीटों को जीतने के लिये पूरा जोर लगाती नजर आ रही है. लिहाजा, कांग्रेस इन सीटों पर केवल उन प्रत्याशियों को उतारने का मन बना रही है. जिनके चुनाव जीतने के पूरे आसार नजर आते हैं. अंदाजा लगाया जा रहा है कि कांग्रेस इन सीटों पर युवाओं को तरहीज देने के मूड में है. यही वजह है कि राहुल गांधी से लेकर कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष कमनलाथ तक सूबे के सभी अंचलों पर नजरें गड़ाये हुए हैं, ताकि इस बार इन सीटों पर हार का तिलिस्म तोड़ा जा सके.

इतनी जल्दी क्यों टूटा कम्प्यूटर बाबा का दिल, चुनेंगे बीजेपी या देंगे शिवराज को चुनौती?

भोपाल। मध्यप्रदेश विधानसभा चुनाव भले ही एक-एक कदम नजदीक आता जा रहा है, पर नेता रोजाना चार-चार कदम आगे बढ़ रहे हैं. यही वजह है कि राजनीतिक गलियारों में ज्यादा उथल-पुथल मची है. कौन कब किसका मुरीद हो जाये और कब किससे किसका मोह भंग हो जाये, किसी को कानो-कान खबर तक नहीं होती. खबर तब होती है जब भंडा फूटता है. इसका नजारा राजधानी भोपाल में देखने को मिला, जहां कुछ वक्त पहले तक बीजेपी का गुणगान करने वाले कम्प्यूटर बाबा अचानक अपनी कार से राज्य सरकार का स्टीकर उतरवाने लगे.

दरअसल, कम्प्यूटर बाबा ने मध्यप्रदेश सरकार के राज्य मंत्री (दर्जा प्राप्त) पद से इस्तीफा दे दिया, इसके पीछे उन्होंने साधु-संतों का दबाव बताया क्योंकि वह साधु संतों की आवाज नहीं बन पा रहे थे, लिहाजा साधु संतों ने उनसे कहा कि जब आपकी बात सरकार नहीं सुनती तो आपको सरकार का चमचा बनने की जरूरत नहीं है, जिसके चलते उन्होंने मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया. इस्तीफा उन्होंने लिखित में सीएम कार्यालय को भेज दिया और सरकारी सुविधाएं भी तत्काल छोड़ दी. यहां तक कि उन्होंने अपनी कार पर लगे राज्य सरकार के स्टीकर का भी नामो निशान तक मिटवा दिया और जब तक उनके पास से पूरी तरह राज्य सरकार का एक-एक निशान नेस्त नाबूद नहीं हुआ, वह वहीं डटे रहे.

गौरतलब है कि इसी साल अप्रैल में मध्यप्रदेश सरकार ने कंप्यूटर बाबा, नर्मदानंद महाराज, हरिहरनंद महाराज, पंडित योगेंद्र महंत और भय्यूजी महाराज को राज्यमंत्री का दर्जा दिया था, जबकि भैय्यूजी महाराज ने मंत्री का दर्जा लेने से मना कर दिया था. हालांकि उसके बाद 12 जून को भय्यूजी महाराज ने इंदौर स्थित अपने आवास में खुद को गोली से उड़ा लिया था.

कम्प्यूटर बाबा शिवराज सिंह की नर्मदा सेवा यात्रा के बाद नर्मदा घोटाला रथ यात्रा निकाल रहे थे, उनके साथ साधु-संतों की पूरी फौज थी, यहां तक की पोस्टर बैनर सब छप गये थे. लेकिन यात्रा शुरू तो हो गयी पर चार कदम भी नहीं चल सकी और नर्मदा घोटाला रथ यात्रा वापस वहीं पहुंच गयी, जहां से चली थी और उस यात्रा को आगे बढ़ाने वाले खुद बढ़कर सरकारी तंत्र में शामिल हो गये. हालांकि अब कम्प्यूटर बाबा की नाराजगी के कई मायने निकाले जा रहे हैं.

कम्प्युटर बाबा की बात करें तो उनका असली नाम देव त्यागी है. बाबा खुद बताते हैं कि उनका दिमाग कम्प्युटर की तरह काम करता है और याद्दाश्त भी तेज है. इसलिए उनका यह नाम पड़ा है. हमेशा लैपटॉप भी अपने साथ रखकर चलते हैं. दिलचस्प बात यह है कि बाबा राज्य मंत्री बनने से पहले शिवराज सरकार के खिलाफ नर्मदा घोटाला रथ यात्रा निकाल रहे थे. लेकिन, जैसे ही उन्हें राज्यमंत्री का दर्जा मिला तो उन्होंने यात्रा स्थगित कर दी और राम भजन की जगह बीजेपी भजन करने लगे.

सोमवार को बाबा ने अचानक इस्तीफा देकर सबको हैरान कर दिया क्योंकि इससे पहले किसी तरह की नाराजगी की बात सामने नहीं आयी थी. लिहाजा यह इस्तीफा राजनीतिक गलियारों में चर्चा का विषय बना है. इस बीच एक सवाल यह उठता है कि शिवराज सरकार को कोसने वाले बाबा ने राज्यमंत्री का पद ग्रहण ही क्यों किया था. पहले बाबा जिस सरकार से लड़ रहे थे, वही बाबा अचानक से सरकार के इतने मुरीद कैसे हो हुए और जब मुरीद हुए तो इतनी जल्दी दिल कैसे टूट गया. अब ये कयास लगाये जा रहे हैं कि क्या बाबा आगामी विधानसभा चुनाव में ताल ठोंकने के लिए ये सब कर रहे हैं. अब सवाल है कि बाबा बीजेपी को चुनेंगे या फिर बीजेपी को चुनौती देंगे.

Monday 1 October 2018

MP: कांग्रेस से नाराज नहीं 'चाणक्य'! बीजेपी को चक्रव्यूह में फंसाने की है साजिश

भोपाल। मध्यप्रदेश में सियासत के रंग मौसम की तरह पल-पल बदल रहे हैं. बीजेपी-कांग्रेस एक दूसरे पर कीचड़ उछालने में कोई कसर नहीं छोड़ रही है. साथ ही एक दूसरे को अपने-अपने चक्रव्यूह में फंसाने की तैयारी में हैं. दोनों दलों के दिग्गज चक्रव्यूह रचने में साम-दाम-दंड-भेद सारे हथकंडे अपना रहे हैं.

दरअसल, कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के दौरे के दौरान उनके इर्द-गिर्द सिर्फ सिंधिया और कमलनाथ ही नजर आते हैं, जबकि चाणक्य दूर-दराज कहीं एकाध बार ही दिखाई पड़ते हैं. इसे कुछ लोग दिग्विजय सिंह की नाराजगी मान सकते हैं. पर ये नाराजगी से अधिक सियासी चाल है, जिसमें बीजेपी को कांग्रेस फंसाना चाहती है क्योंकि 6 जून को राहुल गांधी की मंदसौर रैली में भी दिग्विजय सिंह मंच पर तो थे, पर न ही वो राहुल गांधी के पास दिखे और न ही उन्हें बोलने का मौका मिला.

मंदसौर में चाणक्य की अनदेखी मान भी लिया जाय तो भोपाल और सतना-रीवा में भी दिग्विजय की सिर्फ एक झलक ही दिखी. ये झलक भी सिर्फ इसलिए थी कि किसी को ये शक न हो कि दिग्विजय सिंह नाराज हैं, बल्कि इससे लोग ये कयास लगायें कि दिग्विजय सिंह नाराज नहीं हैं बल्कि, उनकी अनदेखी की जा रही है. पर इसके पीछे की असल रणनीति ये है कि दिग्विजय सिंह को आगे करने पर बीजेपी 14 साल पुरानी कब्रें खोदनी शुरू कर देगी, जिससे पार पाना कांग्रेस के लिए मुश्किल होगा. लिहाजा राहुल गांधी दिग्विजय सिंह को जमीन पर उतारकर कमलनाथ-सिंधिया को रथ पर सवार कर लिये हैं.

कांग्रेस की व्यूह रचना ऐसी है, जिसमें बीजेपी का फंसना तय है, यदि बीजेपी कांग्रेस की चाल समझ गयी तो इस चक्रव्यूह को तोड़ सकती है, नहीं तो इस व्यूह से निकलना उसके लिए मुश्किल हो सकता है क्योंकि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह की नर्मदा सेवा यात्रा के प्रभाव को दिग्विजय ने नर्मदा परिक्रमा के जरिए खत्म कर दिया और फिर उसके तुरंत बाद न्याय यात्रा के जरिए जमीनी थाह ली और उसके हिसाब से रणनीति बनाई और बीजेपी के विकास को आईना दिखाया, इसी रणनीति का हिस्सा है कि दिग्विजय सिंह कांग्रेस अध्यक्ष के दोनों विशेष कमांडो को कवर दे रहे हैं, ताकि दुश्मन के वार की दिशा को बदल सकें.

बीजेपी के सामने अब सिंधिया-कमलनाथ सीना ताने खड़े हैं और बीजेपी के पास सिंधिया को घेरने के लिए उनके राजसी ठाट और टशन के सिवाय कुछ नहीं है, जबकि कमलनाथ को घेरने के लिए भी बीजेपी के पास मुकम्मल मुद्दा नहीं है. यही यदि कांग्रेस दिग्विजय को आगे करती तो बीजेपी के पास मुद्दे ही मुद्दे रहते, जिसके जरिये वह कांग्रेस का जीना मुहाल कर देती. यानि दिग्विजय सिंह ने चुप रहकर भी बीजेपी को चुप करा दिया. इससे एक फायदा कांग्रेस को और भी है कि जब भी जरूरत होगी, दिग्विजय सिंह बीजेपी को उकसाने का भी काम करेंगे, ताकि बीजेपी असंयमित होकर विवादित टिप्पणी करे और कांग्रेस उसे बीजेपी की चाल, चरित्र, चेहरा बताकर जनता के बीच उसे खलनायक के तौर पर पेश कर सके.

'चाणक्य' की बेरुखी बदल न दे चुनावी चाल! राहुल को सिंधिया-कमलनाथ पर ही ऐतबार?

भोपाल। मध्यप्रदेश में चुनावी बिगुल बजने भर की भले ही देर है. लेकिन, सत्ता पक्ष और विपक्ष चुनाव प्रचार की दुंदुभी बजा चुके हैं, 25 सितंबर को बीजेपी ने कार्यकर्ता महाकुंभ के जरिए शक्ति प्रदर्शन किया और चुनाव प्रचार का आगाज किया तो उसके ठीक एक दिन के अंतराल पर राम की तपोभूमि चित्रकूट में भगवान कामतानाथ से वनवास खत्म करने का राहुल गांधी ने आशीर्वाद मांगा.

दरअसल, कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने 27 सितंबर को मिशन विंध्य की शुरूआत की और दिन भर जमीनी थाह ली, रोड शो किये, जनसभा की, भीड़ भी खूब जुटी. जिसके लिए सिंधिया कमलनाथ ने जनता को थैंक यू भी बोला. लेकिन, इस भीड़ में एक चेहरा बहुत कम ही नजर आया, बस कांग्रेस की सबसे बड़ी परेशानी यही है कि वह अपने ही नेताओं को एक मंच पर लाने में कहीं न कहीं चूक जाती है, जिसका फायदा बीजेपी को मिल जाता है.

राहुल गांधी के दिन भर के कार्यक्रम में कांग्रेस के चाणक्य मंच पर दिखे. लेकिन, रथ पर नहीं, न ही दिग्विजय सिंह ने कोई ट्वीट किया न तो कोई तस्वीर शेयर की, जबकि प्रदेश अध्यक्ष कमलनाथ और चुनाव प्रचार समिति के अध्यक्ष ज्योतिरादित्य सिंधिया युवराज के दायें-बायें नजर आये. जिसकी वजह दिग्विजय सिंह की नाराजगी माना जा रहा है, अब नाराजगी की वजह तो कांग्रेस ही जाने, पर यही नाराजगी बीजेपी की खुशी में चार चांद लगा सकती है.

गौरतलब है कि इससे पहले 6 जून को जब राहुल गांधी मंदसौर गये थे, तब भी दिग्विजय की अनदेखी की गयी थी, उन्हें न तो भाषण देने का मौका मिला था और न ही राहुल के आस पास देखा गया था. हां, मंच पर उनकी उपस्थिति जरूर दिखी थी. पर राहुल के इर्द गिर्द सिंधिया और कमलनाथ साये की तरह मौजूद रहे, राहुल गांधी ने भी इस ओर ध्यान नहीं दिया, जबकि राहुल को भी इस बात को समझना पड़ेगा कि मुट्ठी बांधने के लिए पांचों उंगलियों को एकजुट करना होगा, यदि एक भी उंगली बगावत करती है तो फिर मुट्ठी के मायने बदल जायेंगे.

मध्यप्रदेश में सिंधिया का प्रभाव सिर्फ ग्वालियर-चंबल अंचल में माना जाता है, जबकि कमलनाथ सिर्फ छिंदवाड़ा तक ही सीमित हैं, विंध्य में अजय सिंह तो खरगोन में अरुण यादव का प्रभाव है, पर दिग्विजय सिंह का प्रभाव कमोबेश पूरे प्रदेश में माना जाता है. यही वजह है कि कांग्रेस जब तक अपने नेताओं को एक मंच पर नहीं ला पायेगी, तब तक चुनाव में बेहतर प्रदर्शन करना नामुमकिन है क्योंकि नेताओं की गुटबाजी का नतीजा कार्यकर्ताओं पर भी पड़ता है और कार्यकर्ता भी खेमों में नजर आते हैं.