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Friday 30 August 2013

लोकतंत्र की ताकत

राजस्थान विधान सभा ने जिस तरह का ऐतिहासिक फैसला लिया है। उसे कहीं ना कहीं लोकतंत्र की जीत के रूप में देखा जा सकता है। जो हमारे रहनुमाओं का स्वागत योग्य कदम है। लेकिन दूसरों के लिए कानून बनाने वाले वही रहनुमा अपनी बारी आने पर उस तरह की शख्ती नही दिखाते हैं। तो क्या ये मान लिया जाए कि जनप्रतिनिधियों की हुकूमत ही चलेगी। या उन्हे भी किसी कायदे कानून से गुजरने की जरूरत है। विषेषाधिकार समिति की अवमानना की दोषी गांधी नगर थाना प्रभारी रत्ना गुप्ता को एक माह कठोर कारावास की सजा सुनाई है। जिसे राजस्थान विधानसभा के इतिहास का इकलौता और पहला मामला माना जा रहा है। लेकिन वहां मौजूद अवमानना के हनन पर अपनी सहमति देने वाले हमारे कितने रहनुमा अपने दामन को बचाने में कामयाब रहें है। ये तो वही हाल है कि दूसरों को नसीहत और खुद मियां फजीहत। दरअसल 19 जुलाई 2010 को विधानसभा की महिला एंव बाल कल्याण समिति अध्यक्ष सुर्यकान्ता व्यास गांधी नगर थाने का औचक निरीक्षण करने पहुंची। तो रत्ना ने उन्हे कोई जानकारी नही दी। जिसकी शिकायत विधानसभा विषेषाधिकार समिति से की गई। समिति के समन के बाद गुप्ता ने कोर्ट में चुनौती देने का रास्ता चुना। जो हमारे रहनुमा के लिए प्रतिष्ठा का सवाल बन गया। विधानसभा में पहली बार जैसी सख्ती दिखाते हुए अधिकारों का प्रयोग किया गया। ऐसे ही फैसले यदि दागी और दबंग रहनुमाओं पर लिया जाता। या खुद के लिए भी बनाया जाता। तो उसे बेहतर परिणाम के रूप में देखा जाता। लेकिन ऐसी कार्रवाई से किसी तरह के बदलाव के बजाय टकराव की आहट मिलती है। यानि रहेंगे वही ढाक के तीन पात ।

आतंक पर सियासत

600 लोगों को मौत की नींद सुलाने वाले इंडियन मुजाहिद्दीन के सह संस्थापक यासिन भटकल पर शिकंजा कसते ही हमारे रहनुमा राजनीतिक रंग देने में जुट गए। सपा नेता कमाल फारुकी ने पूछा कि भटकल की गिरफ्तारी गुनाह के आधार पर हुई है या धर्म के आधार पर...लेकिन जब मौत का खूनी खेल खेला जाता है उस समय उनकी जुबान पर ताला क्यों लग जाता है। कमाल साहब आपकी तो सरकार है और आपकी सरकार भी उसी धर्म की वकालत करती है जिस धर्म से आप आते है अच्छा होता कि आप आरोप लगाने के बजाय सरकार से उसे समाजसेवी होने का प्रमाणपत्र दिला देते। जबकि सुशील मोदी ने इशरत जहां को बेटी बताने वाली जेडीयू यासीन भटकल को बिहार का दामाद भी घोषित कर सकती है अंततः ये बात समझ में नही आती कि आखिर हर मुद्दे हर सवाल हर आरोप को हमारे रहनुमा धर्म जाति का रंग दे देते हैं। जो आने वाले समय में भयानक तस्वीर बनाता दिखाई दे रहा है

Wednesday 28 August 2013

रसातल चला रूपया 28 august 2013



देश में उल्टी चाल चल रहा रुपया ऐसे रसातल में पहुंच रहा है। जहां से वापसी की संभावना नजर नही आती। 11 जून से रूपया लुढ़कता 69 के समीप जा पहुंचा। जिसे रोकने में रिजर्व बैंक और सरकार खुद को असहज महसूस कर रही है। रूपया हर दिन नए कीर्तिमान बना रहा है। आप सोच रहे हैं कि रूपए की गिरती कीमत और अर्थव्यवस्था के संकट से अपने को क्या लेनदा-देना। तो आप गलत सोच रहे हैं। आयात होने वाला सामान मंहगा होगा। सरकार द्वारा लिए गए कर्ज पर ज्यादा ब्याज देना पड़ेगा। इन सबसे विदेशी मुद्रा का भण्डार खाली होता जाएगा। जबकि इसका बोझ आम जनता पर ही पड़ेगा। किसी देश की मुद्रा जब कमज़ोर होती है। तो इसका अर्थ है कि उस देश की सरकार का उसकी अर्थव्यवस्था पर नियंत्रण कमज़ोर हो रहा है। उसकी निर्भरता बाहरी अर्थव्यवस्था और अनिश्चित बाज़ार पर बढ़ रही है। रूपए की कीमत डालर के मुकाबले इतनी कमजोर क्यों हो रही है। ये चिंता इस समय हर हिंदुस्तानी को सता रही है। कि आखिर अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री के राज में इतना बड़ा अनर्थ कैसे हो रहा है। लेकिन सरकार को अर्थव्यवस्था से ज्यादा फूड सिक्योरिटी बिल पास कराने की चिंता सता रही थी। जिसे सरकार ने लोकसभा में पास भी करवा लिया है। सरकारी खजाने पर खाद्य सुरक्षा बिल के चलते पड़ने वाले लाखों करोड़ की सब्सिडी के बोझ के चलते भारत की आर्थिक हालत बद से बदतर होने की आशंका से इनकार नही किया जा सकता। जिसके परिणाम स्वरूप रूपए की हालत पतली होती जा रही है। दरअसल विदेश व्यापार नीति के मुताबिक आयात निर्यात बराबर मात्रा में किया जाना चाहिए । लेकिन मौजूदा समय में 7.02 बिलियन डॉलर निर्यात किया जा रहा है। जबकि विदेशी सामग्री का आयात 12.3 बिलियन डॉलर हो रहा है। यानि लगभग पचास फीसदी निर्यात कम हो रहा है। पचास फीसदी डॉलर के बदले अधिक रूपया चुकाना पड़ रहा है। जिसके लिए सिर्फ हमारी सरकार जिम्मेदार है। विश्व व्यापार संगठन में जिस तरह लापरवाही (आयात चरम पर निर्यात शून्य) बरती गई है। उससे हिंदुस्तान को अमेरिका का मोहताज होना पड़ रहा है। हाल में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के सरकार के फैसले के चलते भी रूपया रसातल में जा रहा है। क्योंकि सरकार का ध्यान आयात पर ही केंद्रित रहा। जबकि निर्यात के बारे में सरकार ने जरा भी नही सोचा। यानि रूपए के सुधरने की भविष्य में कोई संभावना नजर नही आ रही है। जिस पर राजनीतिक पार्टियों ने भी गहरी चिंता जताई है। रूपया कोमा में पहुंच चुका है देश की अर्थव्यवस्था पूरी तरह से चरमरा गई है। जनता को मंहगाई का डर सताने लगा है। लेकिन रूपए की सेहत बनाने में सरकार खुद को लाचार महसूस कर रही है। सरकार संसद में जिस तरह से फूड सिक्योरिटी बिल को लेकर गंभीर नजर आई। वैसे ही यदि रूपए की सेहत पर गंभीरता दिखाती तो रूपए को इतना शर्मिंदा नही होना पड़ता। लेकिन वित्तीय घाटा कम करने के लिए सरकार की तरफ से अभी तक कोई ठोस पहल नही की गई है। जो इसकी आर्थिक असफल नीतियों को दर्शाती है।