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Saturday 20 April 2019

24 साल बाद भरी दुश्मनी की खाई, एक मंच पर आये माया-मुलायम


मैनपुरी/भोपाल। 24 साल बाद दो दलों के बीच खिंची नंगी तलवारों को सियासत ने वापस म्यान में रखवा दिया है. अब दोनों दलों के नेता एक मंच पर आ गये हैं और एक साथ मिलकर तीसरे दुश्मन को पस्त करने की रणनीति बना रहे हैं, जबकि इन दोनों में से एक नेता पहले ही तीसरे दुश्मन को विजयी होने का आशीर्वाद दे चुका है. जीत का आशीर्वाद देने के बाद अब उसे ही हराने के लिए पुराने दुश्मन के साथ चल दिया है.


सियासत दूरियां बढ़ाती है तो जख्मी दिलों को भी मिलाती है. राजनीति रिश्तों की डोर तोड़ती है तो जोड़ती भी है. ऐसा इसलिए होता है कि जब दोस्त का दोस्त, दोस्त होता है तो दुश्मन का दुश्मन दोस्त बन जाता है. कई बार ऐसे समीकरण का असर आस-पड़ोस में भी देखने को मिल जाता है. न्यूटन का गति विषयक नियम है कि जब भी कोई वस्तु पानी में डूबती है तो वह अपने आकार के बराबर पानी को उपर उठाती है. ऐसा ही कुछ आजकल यूपी की राजनीति में हो रहा है, जिसका असर प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष तौर पर मध्यप्रदेश पर भी पड़ रहा है.

1993 में मायावती-मुलायम सिंह साथ मिलकर उत्तर प्रदेश में सरकार बनाए, लेकिन अचानक घटी एक घटना ने इस रिश्ते को एक झटके में बिखेर दिया. 5 जून 1995 को लखनऊ में हुए गेस्ट हाउस कांड ने इस रिश्ते के बीच में इतनी गहरी खाईं खोद दी, जिसे भरने में 24 साल लग गये. वो भी तब जब मुलायम सिंह की विरासत संभालने वाले उनके बेटे अखिलेश यादव ने बुआ की ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाया. 24 साल बाद आज दोनों एक साथ मंच पर दिखेंगे तो इसका असर यूपी की सीमा से सटे मध्यप्रदेश के लोकसभा क्षेत्रों पर भी पड़ेगा क्योंकि दोनों पार्टियां एक साथ मिलकर यूपी में चुनाव लड़ रही हैं और सीमाई इलाकों में सपा-बसपा दोनों की पकड़ मजबूत है. जिसके चलते इन संसदीय क्षेत्रों में बीजेपी-कांग्रेस को नुकसान उठाना पड़ सकता है.

दरअसल, गठबंधन के सवाल पर मायावती ने दो टूक कह दिया था कि कांग्रेस से गठबंधन पूरे देश में कहीं नहीं हो सकता क्योंकि कांग्रेस से गठबंधन करके कोई फायदा नहीं मिलने वाला है, लेकिन हर राज्य की परिस्थितियां अलग-अलग हैं. कहीं सपा-बसपा मजबूत है तो कही कांग्रेस. भले ही सपा-बसपा एक साथ कदमताल करके ज्यादा सीटें यूपी में जीत सकती हैं, लेकिन बाकी राज्यों में इनका वजूद इस कद का नहीं है कि इक्का-दुक्का सीटों से ज्यादा जीत सकें.

हालांकि, पिछले साल हुए विधानसभा चुनाव में भी मध्यप्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ आखिरी वक्त तक सपा-बसपा को मनाने में लगे रहे, पर बात नहीं बन पायी थी. अब जब मध्यप्रदेश में कांग्रेस का वनवास खत्म हो चुका है, कमल को कांग्रेस ने एमपी का नाथ बना दिया है. ऐसे में कमलनाथ के सामने मध्यप्रदेश की 29 लोकसभा सीटों में से ज्यादातर पर जीत दर्ज करने का दबाव है. ऐसा करके कमलनाथ को कांग्रेस की कसौटी पर खरा उतरना है. ताकि दिग्विजय सिंह और ज्योतिरादित्य सिंधिया से उनका कद भी कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की नजरों में बढ़ सके.