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Monday 16 April 2018

मुझे नहीं रहना जानवरों के संसार में अम्मा


प्यारी अम्मा! नहीं आना मुझे तुम्हारे संसार में, तुमने मुझे जनम क्यों दिया, क्यों नहीं मुझे कोख में ही मार डाला, पल-पल मरने से अच्छा होता कि एक बार में ही मर जाती, जो मैं एक बार मर गई होती तो यूं रोज-रोज मरने की जरूरत न होती, खौफ के साये में जीना न पड़ता। शाम ढलने से पहले घर पहुंचना न होता, हर पल पहरे की जरूरत न होती। लेकिन क्या बताऊं अम्मा, तेरा संसार कितना कुलीन है, कितना दरिद्र है अम्मा, कितना वहशी है, कितना बेशर्म है, अम्मा तुम्हारे समाज की लाज-हया सब मर गई है, जमीर तो किसी में बची नहीं है, पहले तो एक दुःशाषन था पर आज तो हर चेहरे में दुःशाषन छिपा बैठा है, लेकिन कन्हैया कहीं नजर नहीं आता, पहले एक रावण था, आज हर घर में रावण बैठा है, अम्मा बहुत गंदा है तेरा संसार, मुझे नहीं रहना तेरे संसार में अम्मा।

वो सफर कर दिलवालों के शहर में बस गयी, वह रुककर निजाम-ए-शहर बन गया

मैं रहना तो चाहती हूं, तेरा आंगन महकाना भी चाहती हूं। पर वहशी समाज मुझे जीने नहीं देगा, मुझे नोच डालेगा, मेरे जिस्म के चीथड़े-चीथड़े कर देगा, जैसे दामिनी के साथ हुआ, जैसे आशिफा के साथ हुआ, जैसे सूरत की बहन के साथ हुआ, जैसे सासाराम की मासूम के साथ हुआ, जैसे असम की बेटी के साथ हुआ और कितनों के नाम गिनाऊं अम्मा। मैं तो अभी नादान थी अम्मा, न तो मेरी जवानी आई थी, न तो मेरे नितंब बढ़े थे, न तो मैंने कपड़े छोटे पहने थे, फिर क्यों इन भेड़ियों ने मुझे नोच डाला? अम्मा ये तो हमारे कपड़ों को अपना कवच बनाते हैं, जबकि उनकी मानसिकता हवस भरी है, मन में कचरा भरा है।

वाह रे मर्दों, तुम्हे खुद को मर्द कहने में शर्म नहीं आती, अरे! पैदा होते ही जिसका दूध पीया, जिस छाती को चूसकर तुम बड़े हुए, उन्हीं वक्षों को निचोड़कर कैसे तुम जिंदा हो, ऐसा करते हुए तुम्हारी आत्मा नहीं रोई, क्या तुम्हारा जमीर मर चुका है, तुमसे तो अच्छा उन नामर्दों की बस्ती है, जहां वह सुकून से जी सकती है, बेखौफ कहीं भी आ सकती है, कहीं भी जा सकती है, न तो कोई उसे रोकेगा, न टोकेगा, जहां वह तितलियों की तरह खुले आसमान में उड़ सकती है।

सरकारों की तो पूछिए ही मत, सत्ताधारी दल तो रामराज की अनुभूति कर रहे हैं। बलात्कारी खुलेआम घूम रहे हैं, पुलिसवाले हिरासत में कत्ल कर रहे हैं, सरकार को सबूत नहीं मिल रहा, अदालत गिरफ्तारी करा रही है। सियासत को यकीन नहीं है कि उसके चेहरे पर लगा दाग कोयले से भी अधिक काला है, वो तो इस वहम में है कि उसका चेहरा पूनम के चांद जैसा चमक रहा है, पर ये जनता है ये तो सब जानती है। पूरी संसद और सभी विधानसभाएं गुंडे बदमाशों से भरी पड़ी हैं, अच्छा होता कि एक कानून पारित कर संसद और विधानसभाओं को जरायम शाला घोषित कर दिया जाता। इस बहाने कम से कम सियासत का असली चेहरा तो सामने आ जाता।

सियासत कितनी कुत्ती है जो लाश को भी हिन्दू-मुसलमान बना दे रही है, अपराधियों को भी भगवा और हरे में बांट दे रही है, ये सियासत का ही खेल है, वरना आशिफा के गुनहगारों के समर्थन में तिरंगे को यूं अपमान न सहना पड़ता। पूरी दुनिया में हिंदुस्तान की सरजमीं की थू-थू न होती। सियासत ही है जो उजले तन में छिपे काले लोगों को संरक्षण देती है और वो खुलेआम बहन बेटियों की इज्जत लूटकर भी शान से जी रहे हैं, उन्हें कोई रोकने-टोकने वाला नहीं है।

Saturday 14 April 2018

वो सफर कर दिलवालों के शहर में बस गयी, वह रुककर निजाम-ए-शहर बन गया

8 फरवरी 2016 का दिन उसके लिए बिल्कुल जुदा था, नया शहर था, नया संस्थान और नए लोग, पुराने में गिने चुने लोग ही थे, जो पहले से जानते थे, उस दिन वह एक राजधानी को छोड़कर भटकते-भटकते दूसरी राजधानी में पहुंच गया था, नए शहर की आबोहवा बिल्कुल अलग थी, न तो इस शहर का खानपान जंचता और न ही वहां की गर्मी सहन होती, सर्दी तो भूलकर भी पड़ती नहीं थी। अब नए शहर में लोगों के बीच खुद को स्थापित करने की जद्दोजहद शुरू हुई क्योंकि भीड़ में खुद का वजूद बचाए रखने की चुनौती होती है। हालांकि धीरे-धीरे शहर भी अच्छा लगने लगा, लोग भी अच्छे लगने लगे और नए दोस्त भी बनने लगे, जब भी कोई किसी शहर में जाता है तो कुछ लोग बेहद करीब हो जाते हैं, लेकिन कुछ लोग बिल्कुल दिल में रच-बस जाते हैं। फिर वह एक दूसरे से भले ही दूर हो जाते हैं, पर दोनों एक दूसरे को खुद के पास महसूस करते हैं। 

एक करोड़ की नौकरी छोड़ शिक्षा की अलख जगाने निकले हैं पूर्वांचल के सपूत 

कुछ दिन ऑफिस में बीता, धीरे-धीरे लोगों से घुलने मिलने लगा। हालांकि तब से अब तक कई साथी बिछडे़, कुछ तो हमेशा के लिए बिछड़ गए थे, जबकि आने वालों की संख्या उनसे कई गुना ज्यादा थी, लेकिन उन जाने वालों में एक चेहरा ऐसा भी था, जिसे वह चाहकर भी भूल न सका, हर पल उसे अपने आसपास महसूस करता था, ऑफिस के अंदर-बाहर हर जगह उसकी मौजूदगी ही उसे उस शहर में रहने का साहस देती थी, नहीं तो काया के बिना छाया का रहना संभव नहीं होता। उन्हीं यादों के सहारे वह उस शहर में आगे का सफर तय करता रहा, लेकिन एक-एक दिन उसके बिना काटना उसके लिए एक साल के बराबर लगता था। पर सवाल मोहब्बत के साथ रोटी का भी था तो वो दर्द भी सहना पड़ा।




जब पहली बार वह ऑफिस गया था, तब उसे देखकर एकटक उसे निहारता रह गया था, मानो किसी चित्रकार या मूर्तिकार की तरह उसे अपनी आंखों में रचा बसा रहा था, जिसे बाद में वह मूर्ति के रूप में जीवित करता या पेन्सिल से स्केच बनाकर उसमें अपने मन मुताबिक रंग भरता। पर ऐसा बिल्कुल नहीं था, वह तो बस उसे निहारे जा रहा था और यह सोच रहा था कि ऊपर वाले ने उसे कितनी फुरसत में बनाया होगा। जिसकी सुंदरता का मुकाबला तो स्वर्ग की अप्सराएं तक नहीं कर सकती क्योंकि शरीर के एक-एक अंग को बिल्कुल नाप तौलकर बनाया गया था। उसकी नजरें तो ऐसी थी, जैसे घनघोर काले आसमान में उमड़ते सफेद बादल, जिसे जितना चाहो देखो, पर उसका अंत नहीं दिखाई पड़ता। जिधर उसकी आंखों की पुतली चलती मानो आसमान उसके साथ चल पड़ता। जिसकी सीमा का एहसास उसकी आंखों में लगे काजल की पतली धार और आई लाइनर कराते थे। काजल की धार ये बताती फिरती कि बस इसके आगे रास्ता नहीं है। 

यात्रा वृतांत : यादों की तिजोरी से निकला खजाना

आंख के अलावा गुलाब की पंखुड़ी जैसे कोमल पतले होठ और उस पर लगा लिप लाइनर नदी के दो किनारों जैसा लगता था, जो कुछ दूरी पर जाकर एक दूसरे में समा जाते थे, उस पर सुर्ख लाल रंग की लिपिस्टिक के बाहरी छोर पर लगा महरून रंग का लिप लाइनर उसके होठ की सुंदरता पर बसंत जैसी बहार ला देता था। बाल तो उसके सिर से लटककर कमर के नीचे तक पहुंच जाते थे, बालों को जब वह गूथ लेती थी तो उसके बालों की चोटी लहराती नागिन जैसी लगती थी, जबकि खुले बाल होने की स्थिति में कमर से ऊपर तक शरीर के पिछले हिस्से पर किसी कपड़े की जरूरत नहीं पड़ती थी, जिसे वह सिर के चारो तरफ लटका ले तो बारिश से बचने का पूरा इंतजाम हो जाता था। कंधे से सटी सुराहीदार गर्दन पर बीच-बीच में पड़ी गोल धारियों का सलोना रंग नजरों में अजीब सी चमक पैदा करता था। ऊपर से गालों की खिलखिलाहट मानो कश्मीर की वादियों का दीदार कराती हो और हर हंसी पर पड़ते डिंपल सीप के मोती जैसे लगते थे, जिसे स्वाति नक्षत्र की बूंदों को अपने में समाहित कर सीप मोती बना देता है, फिर उस मोती को पाने के लिए सागर में गोते लगाना पड़ता है, वैसे ही उसके डिंपल देखने के लिए सीप के मोती को स्वाति के पानी और पपीहा के प्यास की तरह उसके हंसने का इंतजार करना पड़ता था।



उसकी पतली लंबी नाक व लंबे कान और ऊपर से कानों में हर दिन अलग-अलग तरह की बालियां, झुमके आदि सावन की अलहड़ मस्ती में झूमते पेड़ की टहनियों जैसे लगते थे। जो बार-बार उसकी खूबसूरती को निहारने की ओर इशारा करती रहती थी। ऊपर से छरहरे बदन के साथ 5.5 फुट की ऊंचाई बिल्कुल अप्सरा जैसी लगती थी, पर ऊपर वाले ने जितनी सुंदर काया रची थी, उससे कहीं सुंदर उस शरीर के अंदर मन दिया था, जो एक मुलाकात में किसी का भी दिल जीतने के लिए काफी था। उसकी जुबान से निकलते शब्द फूल जैसे लगते थे, बेहद शालीनता भरी पतली-सुरीली आवाज कानों के रास्ते सीधे दिल में उतर जाती थी। कुदरत ने दिल-दिमाग और हुस्न का ऐसा संगम तैयार किया था, जिसमें किसी को कम नहीं आंका जा सकता था, ऑफिस में हर घंटे उसके पास जाना और मुस्कुराते हुए नई ऊर्जा का संचार करना ऐसा लगता था, जैसे अंधेरा छंटने के लिए सूरज का इंतजार, जैसे अंधे की आंखों में अचानक से रोशनी का आ जाना, उसे देखते ही पूरा शरीर एक्टिव मोड में आ जाता था, दिल खुशी से झूमने लगता था, जी तो करता था कि वह आसपास ही रहे, बस उसके आसपास, मगर ऐसा संभव नहीं था, दोनों के बीच फासला तो कुछ कदमों का था, पर सफर मीलों का तय करना पड़ता था क्योंकि दोनों में से किसी एक का दूसरे के पास जाना तूफान को दावत देना था। फिर उस तूफान को संभालना मुश्किल था क्योंकि वह तूफान बसने से पहले घर को खंडहर बनाने वाला था।
एक लड़का उसके प्यार में मजनू बना फिर रहा था, पर उसके सपनों की लैला को इसकी खबर न थी, वो भी खामोश था कि मोहब्बत सच्ची होगी तो कभी तो उसे एहसास होगा, वह उसकी हर गतिविधि पर नजर रखता था, उसके खाने-पीने से लेकर पहनने-घूमने तक का ध्यान रखता, उसकी एक आवाज पर वो एक पैर पर निकल पड़ता था, लेकिन उसको कभी एहसास नहीं हुआ, थोड़ा बहुत जो हुआ भी उसने उसे हंसी में उड़ा दिया, वह उस प्यार की गहराई को कभी समझ न सकी कि उसके प्यार का सागर खुद खारा होकर भी उसे मीठा कर देगा। उस लड़के का प्यार उस लड़की के लिए सौ कैरेट सोने से भी ज्यादा खरा था, खैर अब दोनों एक दूसरे से एक हजार मील के फासले पर हैं, पर दोनों एक दूसरे के दिल के पास हैं क्योंकि ये मोहब्बत निःस्वार्थ है, समर्पण 100 फीसदी है। 
तुम्हे भूल जाने को दिल चाहता है पर तुम्हे भूल जाना तो मुमकिन नहीं। आठ जनवरी 2018 की वो शाम जब तुम पिछली बार मिली थी, उस दिन लग रहा था जैसे जिस्म से जान जुदा हो रही है, तब वह पहली बार उसके साथ उसके घर गया था, अपनी यादों को उसके दिल में जिंदा रखने के लिए विदाई पर उसे जो उपहार दिया था, जिसके चक्कर में उसका एटीएम कार्ड तुम्हारे पास रह गया था, वैसे भी उसका एटीएम तो तुम ही थी, जिससे अपने मन मुताबिक मुद्राएं वह जब चाहता, निकाल सकता था, जब एटीएम आसपास नहीं है तो उस कार्ड की भी जरूरत नहीं रही क्योंकि बार-बार उसे टोकना कि ऐसा नहीं ऐसा करो, कपड़े ऐसे पहनो, खुद को अपडेट करो। पर जब से वह उससे दूर चली गई, कोई कभी भी उसे नहीं टोका कि ये कपड़े तो कल भी पहन के आये थे, आज इसे फिर क्यों पहन के आये? न कोई नाराज हुआ, न चिढ़ाया। बस सब के सब अपनी धुन में मस्त हैं।
इन सब के बीच वह जब भी पुरानी यादों का एलबम पलटता था, आसुंओं से सराबोर हो जाता था, उसके साथ बिताया एक-एक पल उसे याद आता था, चाहकर भी वह उन पलों को नहीं भूल पाया, जब वह उसके साथ घूमने जाया करता था, चुपके से उसकी तस्वीर उतारा करता था, फिर उसी को वो फोटो गिफ्ट के तौर पर नजराना पेश करता था क्योंकि बिन बताए उतारी गई तस्वीर में 100 फीसदी वास्तविकता नजर आती है, उन तस्वीरों से वह उसके मन मस्तिष्क को भी पढ़ लेता था, कई बार पढ़कर भी वह उसके मन में अपने लिए पनपा प्यार नहीं पढ़ पाया और न ही उसको ऐसा कोई पाठ पढ़ा पाया, जिससे उसके लिए उसके मन में प्यार का बीज अंकुरित हो सके।

अविश्वास प्रस्ताव से सरकार को नहीं पर मोदी की साख को खतरा!

खैर! तुम्हारे बिन हर त्योहार फीका लगता है, अब न होली का रंग चढ़ता है, न संता गिफ्ट देता है और न ही दिवाली के दियों में पहले जैसी रोशनी दिखती है। न त्योहारों की पहले से कोई तैयारी होती है। ऑफिस भी सूना-सूना लगता है, जबकि ऑफिस में तो थोक के भाव में लोग मौजूद हैं, पर तुम सा कोई नहीं। यही वजह है कि एक नजर हर पल तुमको ढूंढ़ती रहती है, उस नजर को हर किसी में तेरी सूरत नजर आती है। सामने आते हर चेहरे में तुम्हारा चेहरा देखकर वह खुद को संतोष दिलाता है। 97 दिन हो गए तुमको इस शहर से दूसरे शहर में गए, इन दिनों में वह खुद को सबसे तन्हा पाया है। तुम दिलवालों के शहर में आशियाना बना ली हो, अब तुमको उसकी जरूरत भी नहीं है, पर जब भी पुकारोगी अपने पास पाओगी, जी करे तो कभी आजमा कर देख लेना, आज तुम्हारा जन्म दिन है, तुम उसके पास तो नहीं हो कि वह केक काटकर तुम्हे हजारों साल जीने की दुआएं दे सके। ऑप्टिकल फाइबर की पाइप के जरिए तुम्हे शुभकामना संदेश भी भेज सकता था, पर वह सोचा कि क्यों न तुम्हारी कहानी लिखकर ही तुमको तुम्हारे जन्मदिन पर तोहफा दिया जाये और उससे पहले कोई उसको शुभकामनाएं न भेज पाये इसलिए वह उस पर लिखी कहानी को उसके जन्मदिन से आठ घंटे पहले उसको समर्पित कर दिया।

Saturday 7 April 2018

उसकी परेशानियों ने मेरी नजर को दिया नया नजरिया

29 मार्च की वो शाम भी रोजाना की तरह बिल्कुल सामान्य थी, ऑफिस से लौटकर थकान मिटा ही रहा था कि तभी मोबाइल पर नजर पड़ी, व्हाट्सएप्प पर आया मैसेज पढ़ा तो दिल अचानक खुशी के मारे जोर-जोर से धड़कने लगा क्योंकि किसी दिल अजीज का संदेश आया था कि मुझे कुछ जरूरी बात करनी है, फ्री होकर मुझे फोन कर लेना। उस वक्त मैं भी कमरे पर अकेला ही था, पर खुद को फ्री महसूस नहीं कर रहा था, हालांकि, जल्दी-जल्दी मैने भी खुद को तमाम झंझावातों से आजाद कर लिया और उसको फोन किया तो थोड़ी देर तक नेटवर्क बंदर की तरह घुड़की देता रहा, उसकी हर घुड़की पर मेरा गुस्सा सातवें आसमान पर पहुंच जाता, फिर अगले ही पल खुद को शांत कर लेता कि शायद अब बात शुरू हो जाये, कई बार फोन कट करने के बाद ऑप्टिकल फाइबर की पाइप ने आखिरकार हमारी बातों को उसके पास और उसकी बातों को हमारे पास पहुंचाना शुरू कर दिया, थोड़ा हाल पूछने के बाद मैंने कहा कि हां, बताओ क्या बात है?

ये बात सुनते ही उसने कहा कि मैं अपने दिल में एक बात रखकर खुद को बोझिल महसूस कर रही हूं, लोगों के बीच रहकर हंस लेती हूं, पर जब अकेली होती हूं तो आंसुओं से नहा लेती हूं, रात में सोती हूं तो आंसुओं से तकिया भीग जाता है, मैं अंदर ही अंदर घुट रही हूं, किसी से कुछ कह नहीं पा रही हूं क्योंकि लोग मेरी बात सुनकर मजाक उड़ाएंगे तो कभी मुझको नीचा दिखाने की कोशिश करेंगे, पर मुझे विश्वास है कि आप मेरी इस परेशानी पर हसेंगे नहीं, बल्कि हमे संबल प्रदान करेंगे, इसलिए अपनी परेशानी आपसे शेयर करना चाहती हूं, मुझे आप पर विश्वास है कि आप मेरा सही मार्गदर्शन करेंगे और इस बात को अपने तक सीमित रखेंगे। जिस परिवेश में हम लोग रहते हैं वहां ज्यादातर चेहरों के पीछे दुशासन छिपा होता है, जबकि कोई कन्हैया शायद कहीं मिल जाये, ऐसे में द्रोपदी की इज्जत का क्या होगा, ये बात तो अब समझ में आ जानी चाहिए।

एक करोड़ की नौकरी छोड़ शिक्षा की अलख जगाने निकले हैं पूर्वांचल के सपूत 

उसकी बात सुनकर मैं ये सोचते हुए अंदर तक सिहर गया कि ऐसी कौन सी आफत आ गयी इस पर जो इतना भावुक हो रही है। खैर! मैं उसकी बातें सुनता जा रहा था और उसकी बातें सुनते-सुनते मैं अतीत के पन्ने भी पलटने लगा क्योंकि जब मैं उससे पहली बार मिला था, मन ही मन उसे चाहने लगा था, उसकी सादगी का तो मैं कायल था, उसके खिलते गुलाब जैसी खिलखिलाती हंसी के बीच चमकते दांत और पतले आकर्षक होंठ किसी को भी दीवाना कर सकते थे, ऊपर से सुरमयी आंखों के दोनों किनारों पर तैरती पलकों के अंदर से लगी पतली काजल की धार के बीच मानो समंदर की लहरें अलहड़ मस्ती में चूर होकर किनारों से टकरा रही हों जो एक बार भी उस गहराई में उतरता था, लाख कोशिशों के बावजूद भी वह उस सागर से निकल नहीं पाता था, ऊपर से जो जितना निकलने की कोशिश करता, उतना ही उन आंखों की गहराई में उतरता जाता था, इसके अलावा भी उसके शरीर की बनावट किसी सांचे में ढाल कर निकाली गई मूरत सी लगती थी, नागिन जैसे काले लंबे बाल, सुराहीदार गर्दन और कंचन सी काया और सैंडल की खिड़की से झांकती उसके पैरों की नेल पॉलिश लगी अंगुलियां देखते ही बनती थी।

महिला दिवस विशेष: अगर ये न होतीं तो मैं न जाने कहां और क्या होता? 

खैर! उधर से हेलो-हेलो की आवाज आती जा रही थी, तभी अचानक मेरे कानों में उसकी आवाज गूंजी, आप भी मेरी बात नहीं सुनना चाहते, यदि ऐसा है तो कोई बात नहीं है, मैं फोन रख देती हूं, तभी मेरी खामोशी टूटी और मैं झट से बोला कि नहीं...नहीं...बोलो मैं सुन रहा हूं, फिर अगले ही पल वो अपनी बात कहना शुरू कर देती है, उसकी एक एक बात पर मानो मैं दुखों के समंदर की गहराई में समाता जा रहा था, वो पीर तो पराई थी, पर जिसकी थी उसमें न जाने कैसा अपनापन था कि उसकी हर एक पीर मेरे मन-मस्तिष्क को कराहने के लिए मजबूर कर रही थी, मेरी हालत जिंदगी के लिए जंग लड़ते बिस्तर पर पड़े मरीज जैसी हो रही थी। पर ये सब सिर्फ मेरे मन मस्तिष्क में ही चल रहा था और उसकी हर बात को मैं गंभीरता से सुन रहा था, मैं खुद को अंदर से पत्थर की तरह मजबूत समझता था, पर उसका दर्द सुनकर मेरा पत्थर जैसा दिल भी दर्द से पिघलने लगा, जितनी उसकी बातें मेरे कानों में पड़ती जाती, उतना ही मेरा उसके प्रति नजरिया बदलता जाता। फिर धीरे-धीरे उसके दुखों को मैं महसूस करने लगा और प्यार का भूत उतरने लगा, अब मेरे दिमाग में ये चलने लगा कि यदि मैं बिना इजहार वाला प्यार उससे करता रहूंगा तो मुझे भी उसकी मजबूरियों का फायदा उठाने वालों की जमात में खड़ा होने में देर नहीं लगेगी। ये सोचकर मैने अपनी नजरों को नया नजरिया दिया और उसकी समस्याओं से निपटने का उपाय बड़े ही शिद्दत से ढूंढ़ने लगा।

यात्रा वृतांत : यादों की तिजोरी से निकला खजाना

बात पूरी होने के बाद फोन कट किया, तब मैं पूरी रात सो नहीं पाया क्योंकि अजीब सी बेचैनी मुझे सोने नहीं दे रही थी, मेरी आंखों के सामने जैसे वही दृश्य चलचित्र की तरह चल रहे थे, फिर वो बातें मुझे लगातार बेचैन करती रहीं, मैं कई दिनों तक ठीक से सो नहीं पाया, हमारे साथी भी परेशान हो रहे थे कि कुछ तो बात है जोकि तुम्हे नींद नहीं आ रही। भले ही तुम छिपाते रहो, पर कब तक छिपाओगे, कभी तो बताओगे, हालांकि, इतना तो मैं कभी अपनी परेशानियों को लेकर भी परेशान नहीं हुआ, जबकि उसकी परेशानियां जैसे मेरे लिए भी नाक का सवाल बनती जा रही थी, जिससे मैं अनजाने में ही मोहब्बत कर बैठा था, अब उस प्यार की परीक्षा की घड़ी आ चुकी थी, उसको उसका घर भी वापस दिलाना था, साथ में उसका सम्मान भी लौटाना था। हालांकि तीन-चार दिन बाद मैंने उसका कुशल पूछने के लिए फोन किया, तब जाकर मुझे थोड़ा सुकून मिला और नींद भी आयी। आगे फिर कभी जब उससे बात होगी तो फिर मैं आगे का जिक्र जरूर करूंगा।

Monday 2 April 2018

सियासी भट्ठी में तपाये जा रहे दलित ताकि बन जायें कट्टर!

सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले के बाद दलित समाज सड़क पर है, सुबह से देश के कोने-कोने से हिंसा-आगजनी की खबरें सुनाई पड़ रही हैं, जबकि मध्यप्रदेश में हालात बद से बदतर हो रहे हैं, ग्वालियर-चंबल इलाके में खूनी हिंसा में चार लोगों की मौत हो गयी, जबकि आधा दर्जन के आसपास गोली के शिकार हो गए हैं, स्थिति पुलिस के नियंत्रण से बाहर होने लगी तो केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह से अर्धसैनिक बल की टुकड़ियां भेजने की मांग की।

मध्यप्रदेश के हिंसा प्रभावित सभी इलाकों में कर्फ्यू लगाने के साथ ही इंटरनेट सेवा पूरी तरह से ठप कर दी गई है, पर सवाल ये है कि आखिर खुद को दलित, शोषित, वंचित कहने वालों में इतनी ताकत कहां से आ गयी कि वो गुंडागर्दी पर उतर आये और शांतिपूर्ण प्रदर्शन के बजाय सीधे-सीधे प्रशासन से टकराने लगे, क्या वाकई उनको ये ताकत कहीं से मिली है या इस फिल्म का खलनायक कोई और ही है, जो पर्दे के पीछे से मंच का संचालन कर रहा है और पूरे देश को हिंसा की आग में जलाने की कोशिश कर रहा है क्योंकि ज्यादातर मामलों का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर सियासी कनेक्शन होता है, फिर इसी हिंसा के जरिए वोटरों को कट्टरता की भट्ठी में तपाया जाता है, ताकि वो किसी एक पार्टी पर आंख बंद कर विश्वास करें और उसकी बुराई करने वालों से भी सीधे तौर पर टकरा जाएं।

एक करोड़ की नौकरी छोड़ शिक्षा की अलख जगाने निकले हैं पूर्वांचल के सपूत 

एमपी, राजस्थान, बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश के अलावा और भी कई राज्यों में हिंसा हुई है, जबकि कई राज्य रामनवमी के दिन से ही हिंसा की आग में जल रहे हैं, उपर से भारत बंद ने इस हिंसा में घी का काम किया है। जगह-जगह दलित दुकानों को लूटते नजर आये, कहीं तोड़फोड़ तो कहीं आगजनी करते देखे गए, जबकि भिंड में तो एक दारोगा की पिटाई के बाद सर्विस पिस्टल और मोबाइल तक छीन लिया गया। दलितों की ये गुंडागर्दी आसानी से हजम नहीं होती, तो क्या ये मान लिया जाए कि दलितों के कंधे पर बंदूक रखकर कोई और ही चला रहा है।

यात्रा वृतांत : यादों की तिजोरी से निकला खजाना 

अब विपक्ष सत्ता पक्ष को इस हिंसा का जिम्मेदार ठहरा रहा है, साथ में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को भी इसका दोषी मान रहा है, पर कोई ये बताने को तैयार नहीं है कि उसने इस हिंसा को रोकने के लिए क्या उपाय किया या सारी जिम्मेदारी सरकार की होती है, यदि सरकार की है तो चिल्ला-चिल्ला कर बताने की क्या जरूरत है, ये बात तो सबको पता है कि कानून व्यवस्था बनाए रखना सरकार का नैतिक कर्तव्य होता है।

कहीं इस साल होने वाले विधानसभा चुनावों और अगले साल होने वाले आम चुनाव की पटकथा तो भारत बंद के जरिए नहीं लिखी जा रही है, ताकि उन चुनावों में सियासी दल एक दूसरे की छवि खराब कर खुद उसका लाभ उठा सकें, हालांकि वजह जो भी हो इस तरह की हिंसा का कतई समर्थन नहीं किया जा सकता।

ये है भारत बंद की वजह
सुप्रीम कोर्ट ने SC-ST एक्ट के दुरुपयोग पर चिंता जताई थी।
SC-ST एक्ट में सीधे गिरफ्तारी नहीं करने का आदेश दिया है।
पुलिस को 7 दिन के अंदर जांच के बाद कार्रवाई का आदेश।
SC- ST एक्ट में गिरफ्तारी के लिए SSP की मंजूरी अनिवार्य
SC-ST एक्ट के तहत दर्ज केस में अग्रिम जमानत को मंजूरी।
इस कानून के तहत सरकारी अधिकारी की गिरफ्तारी के लिए उच्च अधिकारी की मंजूरी अनिवार्य है।

यात्रा वृतांत : यादों की तिजोरी से निकला खजाना

उस दिन सुबह से सूरज आग उगल रहा था, पर दोपहर बाद मौसम ने अचानक करवट बदली और हल्की बारिश के बाद गर्मी-उमस सब गायब हो गयी, आसमान पर काले बादल छाये रहे, पर हम छह दोस्तों का दिल 140 की स्पीड से धड़क रहा था क्योंकि ट्रेन छूटने की चिंता में सब के सब इधर-उधर भाग रहे थे, कोई सामने आती बसों को आस भरी नजरों से देख रहा था कि शायद ये बस हम लोगों को सिकंदराबाद रेलवे स्टेशन तक पहुंचा दे, जबकि कुछ लोग कैब बुक करने के लिए इंटरनेट खंगाल रहे थे और इंटरनेट की धीमी रफ्तार को 180 की गति से गालियां दिये जा रहे थे तो कुछ बार-बार ट्रेन छूटने की अनवरत रट लगाये बैठे थे, जैसे-तैसे इंतजार खत्म हुआ, एक टैक्सी आकर रुकी, पर उसने छह लोगों को एक साथ ले जाने से मना कर दिया, फिर अचानक सभी के चेहरे पर पहले जैसे भाव तैरने लगे और सब के सब उसी मुद्रा में आ गये, फिर कोई कह रहा था कि अरे! चार लोग इस टैक्सी में बैठकर निकल जाओ, बाकी हम लोग आगे देखते हैं, कई बार कहने के बाद आखिरकार भीम, मनीष, प्रीतेश और राम बालक उस टैक्सी में सवार होकर स्टेशन की ओर चल पड़े।
 
पर एक बात थी कि जितना बस स्टैंड पर खड़े विवेक और सुधीर बेचैन थे, उतने ही बेचैन हम लोग सड़क पर दौड़ती कार में बैठकर भी महसूस कर रहे थे और कार की स्पीड बढ़ने के साथ हम लोगों की धड़कने राहत महसूस करती और कार की रफ्तार कम होते ही धड़कने अचानक बढ़ जाती थी, बार-बार गूगल मैप पर नजरें गड़ा रहे थे, समय और दूरी का कैलकुलेशन किये जा रहे थे, यही वजह थी कि सब के सब एक दूसरे से फोन पर चिपके थे, पल-पल की लोकेशन एक दूसरे से शेयर कर रहे थे, हालांकि हम चार लोग ट्रेन छूटने से ठीक एक मिनट पहले ट्रेन के पास पहुंचे और पहुंचते ही ट्रेन का ड्राइवर आखिरी हॉर्न बजाया, मनीष और प्रीतेश ट्रेन के अंदर दाखिल हुए, भीम और राम बालक ट्रेन के साथ चहलकदमी करते हुए विवेक और सुधीर का इंतजार करते रहे, अगले ही पल सामने से दौड़ते हुए सुधीर और विवेक ने एंट्री मारी तो एकबारगी चिल्ला उठे कि ट्रेन में चढ़ो-ट्रेन में चढ़ो और अगले ही पल ट्रेन ने भी रफ्तार पकड़ ली।
स्पीड पकड़ती ट्रेन में दाखिल होते ही सबकी धड़कनें सामान्य होने लगीं और सबने उपर वाले को धन्यवाद दिया, फिर इसके बाद सब एक दूसरे को देरी के लिए जिम्मेदार ठहराने लगे, कोई कहता की सुधीर ने रूम पर पहुंचकर कोई काम नहीं किया, उपर से रूम से गायब हो गया सो अलग। सुधीर ने पूरा काम किया होता तो इस बेतरतीब तरीके से हांफते हुए स्टेशन नहीं पहुंचना पड़ता। उपर से राम बालक अपने सांवले चेहरे को सलोना बनाने के लिए स्टेशन के लिए निकलने से ठीक पहले शेविंग करने लगे, वो न जाने किसे दिखाने के लिए इस कदर बेचैन थे कि नहीं! सेविंग तो करने के बाद ही चलूंगा, जबकि उसने बड़ी शेविंग उनमें से कई लोगों की थी। हालांकि, एक घंटे की जद्दोजहद के बाद सब अपनी-अपनी सीट पर 180 डिग्री पर चिपक गये।
सीट पर चिपकने के थोड़ी देर बाद टीटीई ने एंट्री मारी और टिकट देखने के बाद सामने खाली पड़ी सीट की ओर इशारा करते हुए कहा कि इस सीट पर आप सो जाइए, उस सीट पर आप चले जाइए, इस तरह उस टीटीई ने अपने फर्ज के मुताबिक बिना किसी लाग-लपेट के सभी लोगों को सीट उपलब्ध करा दिया, तभी अचानक से एहसास हुआ कि ये भला करें भगवान कोई उत्तर भारत का टीटीई नहीं था वरना उस सीट के बदले जेब ही काट लेता, जो हुज्जत करता वो अलग। फिर थोड़ी देर बाद लाइट बुझी और सब के सब खर्राटे भरने लगे, सुबह अचानक 5 बजे के आसपास राम बालक ने सभी को झकझोर जगाया कि उठो स्टेशन आ गया, जल्दी उतरो-जल्दी उतरो। अगले ही पल सब के सब ट्रेन से नीचे उतर गए।
अब भद्राचलम रोड से भद्राचलम मंदिर तक जाने की जद्दोजहद शुरू हुई, कोई ऑटो वाले से बात कर रहा तो कोई बस वाले से पूछ रहा, आधे घंटे बाद एक ऑटो वाला तैयार हुआ, फिर सभी लोग ऑटो में सवार हो गए, सुनसान सड़कें थी, दोनों किनारों पर कहीं धान की फसल लहलहा रही थी तो कहीं कपास, जबकि थोड़ी-थोड़ी दूरी पर यूकेलिप्टस के झुंड दिखाई दे रहे थे, ऐसा लग रहा था जैसे वाकई भारत की आत्म के इर्द-गिर्द हम लोग भटक रहे थे, इसी उधेड़बुन में 40 किमी का सफर कब पूरा हो गया, पता ही नहीं चला, जबकि एक छोटे से ऑटो में बड़ी मुश्किल से ड्राइवर को लेकर सात लोग बैठ सकते हैं, फिर भी बड़े आनंद से ये सफर पूरा हो गया।
मंदिर के पास ऑटो वाले ने उतारा फिर वहां से हम लोग मंदिर के करीब तक पैदल ही हंसी-ठिठोली करते पहुंच गए, सुबह का वक्त था, वहां पहुंचते ही सबकी नजरें शौचालय की तलाश कर रही थी, पर कहीं नजर नहीं आ रहा था, बड़ी मुश्किल से एक दो जगह बात किये तो कोई पांच सौ मांगे तो चार सौ, इसी तरह पूछते हुए आगे बढ़ते रहे और गोदावरी नदी को दूर से एक झलक देखा, वहीं पूछा तो पता चला की ठीक आपके पीछे सार्वजनिक शौचालय है, वहां पहुंचकर सभी लोग नित्य क्रिया पूरा किये और फिर नदी की ओर चल पड़े, वहां पहुंचकर सब के सब अंडरवीयर में नजर आने लगे और अगले पल सब नदी के जल में अठखेलियां करने लगे, करीब एक से डेढ़ घंटे तक हम सब मस्ती करते रहे, फोटो खींचते रहे, सेल्फी लेते रहे, जब थकान मसहूस होने लगी तब सब लोग बाहर निकले और तैयार होकर दर्शन के लिए बनी लाइन में खडे़ हो गए। इस मंदिर के अंदर भगवाने श्रीराम माता सीता के साथ विराजमान हैं, ये भद्राचल पहाड़ी पर स्थित है, इसे दक्षिण की अयोध्या भी कहा जाता है।
मंदिर की लाइन में लगने के थोड़ी देर बाद हमारे साथियों का सब्र टूटने लगा, जो लोग पूरी रात सफर किए, घंटों ऑटो में चले, फिर पैदल चले, उनका भी ईमान मंदिर की लाइन में डोल गया और वो बंदर की तरह इधर-उधर लांघने लगे, इस दौरान कई लोग चीखे-चिल्लाए, पर उसका कोई असर नहीं हुआ और लाइन को तोड़ते हुए पहले विवेक निकला, उसके पीछे मनीष, फिर सुधीर और प्रीतेश, इसके बाद राम बालक कोशिश कर के भी आगे नहीं जा पाये और चार-पांच लोगों को ही पीछे कर पाये, जो थोड़ी देर बाद हमारे साथ हो लिए, इस दौरान लाइन में खड़े लोगों को पीने के लिए कुछ पेय दिया जा रहा था, जिसके लिए दर्शन की लाइन में लगे लोग इतना बेचैन दिख रहे थे, मानो इस पेय के पी लेने से उनको स्वर्ग मिलने वाला है, कोई एक बार भी नहीं पा रहा तो कोई गिलास पर गिलास गटके जा रहा।
सभी लोग थोड़ा आगे-पीछे मंदिर में दाखिल हुए और दर्शन किये, जहां श्रीरामचंद्रजी माता सीता के साथ विराजमान हैं, साथ में लक्ष्मण भी मौजूद हैं, पर वीआईपी लोगों की मौजूदगी की वजह से मंदिर के पुजारी लोगों को जल्दी-जल्दी बाहर निकाल रहे थे, ताकि वीआईपी लोगों को कोई परेशानी न होने पाये, ऐसा करके उस मंदिर के पुजारी संविधान को अपने पैरों से कुचल रहे थे, वो भी माननीयों की मौजूदगी में। हालांकि, मंदिर अंदर से जितना आकर्षित करता है, बाहर का नजारा भी उससे कम नहीं है क्योंकि मंदिर काफी ऊंचाई पर बना है, जहां से गोदावरी नदी में हिचकोलें खाती कश्तियां और नगर का सौंदर्यीकरण मन को अंदर तक आह्लादित करता है।
दर्शन करने के बाद सभी लोग बिछड़ गए, ऐसा इसलिए हुआ कि हम लोग खुद को बुद्धिजीवी मानते थे, कोई किसी से कम नहीं था, मैं भी कभी बैग वाले के पास जाता तो कभी मोबाइल वाले के पास, पर कोई नजर नहीं आता, तभी राम बालक दिखाई पड़े, अब दोनों लोग मिलकर चारो को ढूंढ़ने लगे, आधे घंटे बाद दोनों लोग थक गए, कहीं बैठने की जगह नहीं थी तो सामने बालाजी का मंदिर था, वहां चले गए, वहां से लौटा तो ये चारो उल्टा चोर कोतवाल को डांटे जैसे सुधीर हमी से पूछ बैठे कि कब से ढूंढ़ रहा हूं, कहां गायब हो गए थे। खैर! इसके बाद अवस्थी ने कहा चलो कुछ खाते हैं हम लोग तो खा लिए हैं चलो तुम भी खा लो। फिर आगे का प्लान तय करते हैं।
वहां से फिर 40 किमी दूर पर्णकुटी जाने का प्लान बना, वहां से जाने के लिए ऑटो ही एक सहारा था और पर हेड 100 रुपए फिक्स था, किसी तरह एक ऑटो वाला 500 में ले जाने के लिए तैयार हुआ, तब हम लोग पर्णकुटी पहुंचे, फिर वहां से उस जगह गए, जहां शूर्पणखा की नाक कटी थी और वहीं पर सीता माता अपने कपड़े सुखाया करतीं थी, वहां से लौटकर फिर भद्राचलम पहुंचे क्योंकि स्टेशन जाने के लिए वहां से कोई दूसरा रास्ता नहीं था, पर टिकट कन्फर्म नहीं था, अंततः टिकट रद्द हो गया और अब बस की सर्चिंग शुरू हुई, बस डिपो पहुंचे तो आधे घंटे बाद बस आने वाली थी, तभी कुछ खा-पीकर बस में सवार हो गए।
बस में सवार होने के बाद सीट की आपाधापी, किसी तरह सीट मिली तो कोई सीट फ्लेक्सिबल नहीं थी तो किसी के पास का कांच लॉक था, बस चल पड़ी, सब अपनी-अपनी सीट से चिपक गए, तभी एक घंटे के सफर के बाद बारिश होने लगी और पानी की बूंदे बस की झांकती खिड़कियों से अंदर दाखिल होने लगीं। तभी हमारे पीछे बैठे एक महाशय सुधीर को खिड़की बंद करने की नसीहत देने लगे और खुद खिड़की खोल के बैठे थे, बार-बार बंद कर रहे थे खोल रहे थे, जब पास बैठे भीम और सुधीर बारिश का आनंद लेने लगे तो उन्हें ये बात हजम नहीं हो रही थी, वो खिड़की बंद करने के लिए कह रहे थे और साथ में छोटे बच्चे के होने का हवाला भी दे रहे थे, थोड़ी झड़प भी हुई पर ये समझ नहीं आया कि आखिर उनके पास वाली खिड़की की हवा बच्चे को कोई नुकसान नहीं पहुंचाएगी और पड़ोसी की हवा उनके बच्चे का स्वास्थ्य खराब कर सकती है।
बस खम्मम डिपो से पहले एक स्टैंड पर रुकी थी, जहां से एक खुबसूरत लड़की भी बस में सवार हुई, बिल्कुल जीरो फिगर, तीखे नैन नक्श, लंबे बाल और चमकता चेहरा और उस पर बिना फ्रेम का ट्रांसपैरेंट चश्मा उसकी सुंदरता को चार चांद लगा रहे थे, ऐसा लग रहा था कि ऊपर वाले ने किसी सांचे में ढाल के निकाला है, अब वो आगे बढ़ी और हमारे साथी बस से बाहर गए थे, तभी वो सीट की तरफ इशारा करते हुए बोली ये सीट खाली है, ये बात सुनकर मेरी भी बाछें खिल गईं और हमने फौरन जवाब दिया कि विंडो सीट खाली है।

उसके सीट पर बैठने के बाद हम दोस्तों के बीच कानाफूसी होने लगी कि बगल वाली सीट पर मैं बैठूंगा, नहीं वहां तो मैं ही बैठूंगा, तभी हमने कहा कि कोई नहीं बैठेगा, जो जहां बैठा है वहीं बैठा रहे, इसके बाद हमारा एक साथी बस में चढ़ा और हमने उसकी ओर इशारा करते हुए कहा कि तुम उस सीट पर बैठ जाओ, तब बाकी हम पांच लोग आपस में उस दोस्त के भाग्य को कोसने लगे कि ये तो बड़ा लकी निकला, अब बार-बार उस पर दबाव बना रहे हैं कि उससे बात करो-बात करो।

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खैर! थोड़ी देर बाद उसने बात करनी शुरू कर दी और अंततः थोड़ी देर के बाद दोनों एक दूसरे से घुल-मिल गए, दोनों ने अपना-अपना परिचय दिया। तब पता चला कि वो लड़की बीटेक कर चुकी थी और खम्मम में AEE की परीक्षा देकर हैदराबाद लौट रही थी, जिसके चलते वो अकेले बस में सफर कर रही थी, हालांकि उसके पूर्वज भी राजस्थान से थे, जोकि हैदराबाद आकर बस गये थे, तब से अगली पीढ़ी यहीं की होकर रह गयी, उसे अपने पुराने घर के बारे में बहुत कुछ पता नहीं था, पर इस घर में उसके साथ उसका डॉक्टर भाई, विधवा मां और बैंक मैनेजर बहन के साथ रहती है, हालांकि भाई-बहन की शादी हो चुकी है।
हालांकि, यादगार लम्हों के साथ सफर पूरा हुआ और रात दो बजे के करीब बस हम लोगों को भाग्यलता में उतार कर बस आगे बढ़ गई और इस तरह सुखद यात्रा का समापन हुआ, पर एक बात तो थी कि सुधीर साथ नहीं होते तो शायद खाने-पीने का ध्यान नहीं रहता और राम बालक का पेट भी खराब नहीं होता क्योंकि कुछ भी खाने-पीने की चीज देखकर सुधीर के मुंह से पानी टपकने लगता और जब तक खा न लें चुप नहीं बैठते थे। इसके बाद पैदल चलकर हम लोग रूप पर पहुंचे और थोड़ी देर बाद सब खर्राटे भरने लगे और सुबह होते ही सब के सब कोल्हू से जुड़ गए और कोल्हू के बैल की तरह कोल्हू के चक्कर काटने लगे।