बरेली,
मथुरा, फैजाबाद, मुजफ्फरनगर, मुरादाबाद और सहारनपुर जैसे सूबे में हुए सांप्रदायिक
दंगों की ऐसी बयार चली। जिसने सूबे के युवा मुख्यमंत्री अखिलेश यादव और समाजवादी
पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह की सियासी जमीन को ही दहला दिया। सियासी जमीन खिसकी
तो दंगों का दर्द सियासी पुरोधाओं को भी सताने लगा। आनन फानन में रिआया के राजा अखिलेश
ने हाल में हुए सहारनपुर दंगें की जांच का जिम्मा अपने चाचा शिवपाल यादव को सौंप
दिया। तो शिवापाल भी अपने चार भरोसेमंद सिपाहियों के साथ मिलकर दंगों का दाग
ढूंढने निकल पड़े। दिन रात पसीना बहाते रहे, आखिरकार उनकी मेहनत भी रंग लायी और सफलता
उनके कदमों में आ गिरी। तत्काल दंगों का दाग दिखाने के लिए दौड़े-दौड़े भतीजे के
पास पहुंच गये। लकिन भतीजे ने जैसे ही दंगों का दाग सार्वजनिक किया। मानो सियासत
की आंधी तूफान बनकर कहर बरपाने लगी। चौतरफा रिपोर्ट की आलोचना होने लगी। होना भी लाजमी
था। चाचा ने भतीजे को जो पाक साफ बता दिया। और दंगों का जिम्मेदार स्थानीय प्रशासन
की लापरवाही को बता दिया। और बीजेपी के स्थानीय नेताओं पर आग में घी डालने का आरोप
मढ़ दिया। रिपोर्ट को बीजेपी ने तो खारिज कर दिया। लेकिन मायावती ने सूबे की सरकार
के साथ-साथ बीजेपी पर भी दंगे का दोष मढ़ दिया। चौतरफा आरोपों की बयार चली तो राज्यसभा
सांसद नरेश अग्रवाल सरकार की ढ़ाल बनकर सामने आ गये। और कहा कि यूपी में तो दंगा
रोकने का काम सरकार का नहीं बल्कि सिर्फ पुलिस का है। वो पुलिस जिसके उपर भी
सफेदपोशों की हुकूमत चलती है। खाकी पर राजनीतिक हस्तक्षेप की हकीकत से हर कोई
वाकिफ है। मुजफ्फर नगर दंगें में भी सूबे के मंत्री का हस्तक्षेप नहीं होता तो
पचासों लोगों की जान नहीं जाती और ना ही हजारों लोग बेघर होते। चाचा ने भतीजे को
भले ही निर्दोष साबित कर दिया हो लेकिन ये बात किसी के गले नहीं उतर रही है। लेकिन
अखिलेश यादव इस जिम्मेदारी से कैसे भाग सकते हैं। रिआया का राजा होने के बाद भी
सूबे में अमन चैन कायम करने की उनकी कोई जिम्मेदारी नहीं है।