Search This Blog

Thursday 16 May 2019

दरबारी प्रथा के स्वर्णिम युग में पत्रकारिता

इतिहास-भूगोल में एक मामूली सा अंतर होता है, लेकिन ये अंतर नदी के दो किनारों की तरह होता है, जो साथ चलकर भी कभी एक नहीं हो पाता. तारीख पर दर्ज एक-एक शब्द आने वाली पीढ़ियों को अतीत की सैर कराती हैं. उन्हें पुरानी नीतियों-रीतियों-परंपराओं से रुबरू कराती हैं. पर दरबारी प्रवृत्ति उन शब्दों पर चाटुकारिता का जो मसाला लगाती हैं, उससे तारीख का पूरा जायका ही खराब हो जाता है. दौर कोई भी रहा हो, राजशाही, मुगलशाही, राजपूतशाही या लोकतांत्रिक शासन प्रणाली. कभी दरबारियों की कमी नहीं रही, इन्हीं दरबारियों ने लोगों को इस कदर गुमराह किया है कि सही जानकारी न दर्ज कर उस दौर की शासन पद्धति के गुणगान में ही पूरा तारीख भर डाले.

जितनी बार तारीख का पन्ना पलटते हैं, उतनी बार अलग-अलग जानकारी मिलती है, या यूं कहें कि अपभ्रंश या विरोधाभाष देखने को मिलता है, जिससे पाठक गुमराह हो जाता है कि वह क्या सही माने और क्या गलत समझे. मसलन एक इतिहासकार अमुक बात लिखता है तो दूसरा उसका विरोध करता है, दूसरा जो लिखता है, उससे पहला इत्तेफाक नहीं रखता. यहीं से नई विचारधारा का जन्म होता है, और यही इतिहास पाठकों को विचारधाराओं के नाम पर खेमों में बांट देती है.

ऐसा ही मौजूदा सियासी दौर में भी चल रहा है. सब के सब संविधान और लोकतंत्र बचाने की दुहाई दे रहे हैं, जबकि वास्तविकता ये है कि किसी को संविधान या लोकतंत्र की चिंता नहीं है, बल्कि अपनी व पार्टी की चिंता सता रही है. इसके लिए रोजाना मर्यादा की आबरू उसे बचाने वाले ही लूट रहे हैं. इस काम में कोई पीछे नहीं है, एक सेर है तो दूसरा सवा सेर बनने की कोशिश कर रहा है. एक से बढ़कर एक बड़बोले सामने आ रहे हैं और वोट के लिए खून-खराबा करने से भी गुरेज नहीं कर रहे हैं.

17वीं लोकसभा के लिए होने वाला आम चुनाव अंतिम दौर में है, नेता गिरगिट की तरह रंग बदलकर जनता के सामने वोट के लिए गिड़गिड़ा रहे हैं और खुद को समाज का दर्पण बताने वाली मीडिया गिरगिट के रंग को भी अपने हिसाब से बदलकर प्रचारित कर रही है. पिछले कुछ दिनों में कई नामी पत्रकारों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का साक्षात्कार किया है. जिसकी पारदर्शिता-विश्वसनीयता पर सवाल उठे नहीं, बल्कि सवाल बरसे हैं. ज्यादातर साक्षात्कार में जवाब देने वाले के चेहरे पर तनाव दिखता है, और वो भी जब पांच साल के शासन का हिसाब देना हो तो चेहरे पर सिकन स्वाभाविक है, लेकिन किसी भी साक्षात्कार में ऐसा कुछ भी नहीं दिखा.

इन साक्षात्कारों में बड़े-बड़े पत्रकारों ने सवालों के स्तर को इतना गिरा दिया है, जितना कोई इंसान चाहकर भी नहीं गिर सकता. नरेंद्र मोदी के आम खाने से लेकर पर्स रखने, रोटी बेलने तक की बात पूछ लिये, बस अंडरवियर की बात पूछना भूल गये और ये पूछना भी भूल गये कि कितनी बार क्या-क्या खाते हैं और कितनी बार में कितना-कितना निकालते हैं. बस यूं ही मन में आ गया तो सोचा कि याद दिला दूं, शायद किसी बड़े पत्रकार की नजर इस लेख पर पड़ जाये और उसे जब भी प्रधानमंत्री से सवाल करने का मौका मिले तो वह इस सवाल को शामिल कर लेगा तो हम भी धन्य हो जाएंगे, भले ही बड़ा पत्रकार न बन पाएं, लेकिन बुढ़ापे में बच्चों को किस्से-कहानियां सुनाते समय 56 इंची सीना फुलाकर बता तो पाएंगे कि अमुक सवाल फलां पत्रकार को पूछने की सलाह हमने ही दी थी.

जब अगली पीढ़ियां अतीत के पन्ने पलटेंगी, या लाइब्रेरी में पुराने साक्षात्कार खंगालेंगी और संयोग से दो चार दिन के अंतराल में पक्ष-विपक्ष का साक्षात्कार देखेंगी तो तस्वीर साफ हो जायेगी कि उस दौर में भी पत्रकारिता किस कदर सत्ता के चरणों में पड़ी थी. उस वक्त जब युवा पीढ़ियां आपसे सवाल करेंगी तो आपके पास खुद से नजर मिलाने की भी ताकत नहीं होगी, फिर उन युवाओं का सामना करना कितना मुश्किल होगा, इसके बारे में आप भी सोचिए क्योंकि जो सवाल सरकार से पूछा जाना चाहिए, वो विपक्ष से पूछा जा रहा है और सरकार के खान-पान, मौज-मस्ती की बातें पूछी जा रही हैं.

चुनाव का क्या है ये तो आते-जाते रहेंगे, पांच साल में 25 दिन जनता के सामने गिड़गिड़ाने वाले बरसाती मेढक सियासी बारिश खत्म होते ही लापता हो जाएंगे, जब कभी उनका जनता से सामना हो भी जाता है तो वह गिरगिट जैसे रंग बदल लेते हैं, यानि 30 दिन चरण वंदन करने वाला नेता जनता से 330 दिन तक चरणवंदन करवाना चाहता है, लेकिन तारीख पर दर्ज दस्तावेज को कैसे मिटाएंगे. अपने दिल पर हाथ रखकर बोलिये कि क्या आपने जो किया वह सही है, अभी भी वक्त है, नहीं सुधरे तो बुढ़ापे में पश्चाताप के सिवा कुछ नहीं बचेगा और खुद के खोदे गड्ढे में अपनी अगली पीढ़ी को दफन होते देखकर कैसा लगेगा.