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Tuesday 12 November 2013

क्या चुनावी वादों से बदलेगा देश का भविष्य

वादा यानि जिसके पूरा होने पर संशय बना रहता है। जिसका भरपूर इस्तेमाल हिंदुस्तान की राजनीति में होता है। इन्ही वादों को हथियार बनाकर राजनीतिक पार्टियां हर चुनाव में मतदाताओं को बड़े बड़े सपने दिखाती हैं। हर बार मतदाता इनके झांसे में आकर फैसला लेने में गलती कर बैठते हैं। जिसका खामियाजा अगले पांच साल तक उन्हे समस्याओं के रूप में झेलना पड़ता है। चुनावी रण में कदमताल करते योद्धा एक दूसरे को मात देने की रणनीति बनाने में जुटे हैं। जिसके लिए जनता से वादे करने में भी पीछे नही हैं। हालांकि वादे करना कोई नई बात नही है। और ना ही ऐसे वादों से अब तक कोई फायदा हुआ है। हां जनता गुमराह जरूर हुई है। 



चुनाव आ गया है तो नेताओं को जनता की याद भी आ गयी है। वरना जनता की सुध लेने वाला कौन है। यदि अब तक वादों पर अमल हुआ होता तो देश की तस्वीर भी कुछ और होती। कहने को तो हिंदुस्तान का दिल है मध्यप्रदेश। लेकिन उसी के दिल में सबसे अधिक दर्द भी छुपा है। जब दिल में दर्द हो तो निरोगी काया कैसे रह सकती है। जिसे यहां रहने वाली सात करोड़ से अधिक जनता पल पल महसूस करती है। लेकिन वहां अब चुनावी बिसात बिछ चुकी है। जिसका काउंटडाउन भी शुरू हो चुका है। और नेता अपने घरों से निकलकर जनता की शरण में पहुंच गए है। कांग्रेस ने वोटरों को लुभाने के लिए अपने वादों का पिटारा खोला तो ऐसा लगा कि मानो मध्यप्रदेश ही दुनिया में चमकने वाला अकेला सितारा होगा। जिसकी चमक के आगे सबकी चमक फीकी पड़ जाएग जबकि यहां के लोग सभी दलों के लोकलुभावन वादों से कई दशकों से दो चार हो रहे हैं फिर भी आज तक उनके हालात में कोई परिवर्तन नही हुआ है। 



कांग्रेस ने घोषणा पत्र के जरिए अपने वादों का पिटारा खोलकर जनता को विकास का आइना दिखाया तो बीजेपी छटपटाने लगी और उसके वादों की काट खोजने लगी वैसे भी वादे करने में क्या जाता है। जनता तो नासमझ है वोट तो किसी ना किसी को देगी ही। रघुकुल की तरह रीति निभाने वाले दल मतदाताओं को रिझाने के लिए मुफ्त की दुकान खोल लिए हैं। जहां से दोनों हाथों दिनरात वादों को मुफ्त में बांट रहे हैं लेकिन दुर्भाग्य यहां के लोगों का है कि लंबे अरसे से सिर्फ आस के भरोसे जिंदगी काट रहे हैं आखिर कब तक राजनीतिक दल जनता को गुमराह करते रहेंगे जबकि वादों की दुकान खोलने से ना ही समाज का भला होने वाला है और ना ही विकास। हां योजनाओं के बहाने भ्रष्टाचार का विकास जरूर होगा। नेताओं की संपत्ति में इजाफा भी होगा जबकि अक्षम की बैसाखी बनने की बजाय उसे बैसाखी दे दी जाती तो विकास की रफ्तार तेज होती ऐसे में नेतागण मतदाताओं को वादों के मुकम्मल जहां तक पहुंचा पाते हैं या नही ये एक बड़ा सवाल होगा।

Friday 1 November 2013

महंगाई से दीपावली का प्रकाश हुआ धुंधला

दीपावली यानी दीपों की पंक्तियां दीवाली के दिन हर घर दीपों की पंक्तियों से शोभायमान रहता है मोमबत्तियों और बिजली की रोशनी से घर का कोना-कोना जगमगाता है इसलिए दीपावली को रोशनी के पर्व के नाम से भी जाना जाता है लेकिन बदलते परिवेश ने त्योहारों के रंग को भी इस कदर बदल दिया है कि त्योहारों के रंग उनमें खोते जा रहे हैं यानि पहले की दीवाली अब बीते जमाने की बात होती जा रही है। त्योहारों का नाम आते ही मन में लड्डू फूटने लगते हैं बच्चे नए कपड़े पाने को आतुर दिखते हैं तो परिजन बजट बनाने में मशगूल नजर आते हैं ग्राहकों को लुभाने के लिए बाजारों में नए नए उत्पाद अपना जलवा बिखेरते हैं। आधुनिक दौर में त्योहारों पर बाजारों का रंग इस कदर चढ़ता जा रहा है कि त्योहारों की मिठास घर के बजाय बाजारों पर निर्भर होती जा रही है। 

दीपावली का नाम सुनते ही दिल बागबाग हो जाता है रोशनी में नहाए शहर गांव और कस्बे बाजारों में सजी दुकानें घरों में बनते पकवानों के साथ पटाखों की गूंज और इसी बहाने घरों की रंगाई पुताई साफ सफाई दोस्त दुश्मन सभी को दीपावली की शुभकामनाएं देने का दौर जिसका इंतजार बड़ी बेसबरी से हर हिंदुस्तानी करता था लेकिन ऐसा लगता है मानो ये बीते जमाने की बात हो गयी है पाश्चात्य सभ्यता का रंग इनके रंग को फीका करता जा रहा है उपर से ये त्योहार बाजारों तक सिमटते जा रहे हैं हर त्योहार में बाजार कारोबार का नया रिकॉर्ड कायम करना चाहता है जिसके चलते बाजारों में खरीददारी के लिए उपहार और छूट का बाजार भी गर्म हो जाता है। 

एक ऐसा दौर था जब दीवाली के दीदार का सबको इंतजार होता था ये दिन देश के सबसे बड़े त्‍योहार के रूप में मनाया जाता था। हमारी संस्‍कृति में उत्‍सव और आनंद का महत्‍वपूर्ण स्‍थान है। आचार्य रजनीश ने भारतीय समाज की प्रवृत्ति को समझाया था, कि उत्‍सव हमारी जाति है और आनंद हमारा गोत्र। लेकिन पिछले कुछ सालों से हमारी उत्‍सवधर्मिता में काफी सारे बदलाव नजर आने लगे हैं आत्‍मीय जुड़ाव का स्‍थान बाजार के कोलाहल ने ले लिया है। अब पास पड़ोस के बजाय बाजार की गतिविधियां इस तरह के त्‍योहारों को ज्‍यादा प्रभावित करती हैं। आज हमारे आसपास ऐसे हजारों लोग ये कहते हुए मिल जाएंगे कि दिवाली पर अब वो आनंद नहीं रहा तो आखिर क्‍या हो गया हमारे आनंद को? किसकी नजर लगी ऐसा क्‍या हो गया कि जो त्‍योहार आत्‍मीयता से सराबोर हुआ करते थे वे अब मैकेनिकल हो गए हैं

दीवाली के पकवानों की तैयारी अब बाजारों पर निर्भर हो गई है आसपास के पर्यावरण को साफ सुथरा रखने के लिए दीवाली के सफाई अभियान की अनिवार्यता भी खत्‍म होती दिख रही है। इसके लिए अभी बाजार या सोशल मीडिया से कोई दिशा निर्देश जारी नहीं हुआ है। कुल मिलाकर हमारे त्‍योहारों से आनंद...उल्‍लास...उत्‍सव और आत्‍मीयता का अंश हर साल कम होता जा रहा है। और बाजार का दिखावा उसकी जगह काबिज होता जा रहा है। दीवाली के अच्‍छी तरह मनाने या मनाए जाने का पैमाना भी अब बाजार ही हो गया है। फिर भले ही आपने घर में कितनी अच्‍छी या मीठी गुझिया बनाए हो बाजार के आगे गुझिया की मिठास फीकी ही लगेगी।