इतिहास के पन्नों को
पलटकर देखा जाय, तो उस दौर में न
बीजेपी दिखाई पड़ती थी और ना ही कांग्रेस...बस इकलौता एक क्षेत्रीय दल था, जिसने उत्तरांचल
की आजादी की जंग छेड़ी और आज के उत्तराखंड के लिए उत्तराखंडियों के बीच अलख जगाई
थी। लोगों के दिलों में गुस्सा था। मन में सुनहरे उत्तराखंड का सपना, मानो बेहतर
प्रदेश की सूरत हिचकोले ले रही थी। उस दौर की लड़ाई में वहां रहने वालों को बस
आजादी के सिवाय कुछ और नहीं दिखता था। अलग राज्य की धधकती ज्वाला में मानो एक दल
तप रहा था। उसी तपन, दिल की धड़कन और
आजादी की दीवानगी ने एक दल को जन्म दिया। जिसका सरोकार भी क्रांति से था, लिहाजा उसका
नामकरण भी ठीक वैसे ही हुआ,
जैसा उसका स्वभाव
था। ‘उत्तराखंड
क्रांति दल’ इस क्रांति की
ज्वालामुखी में सारे जुल्मों सितम जलकर खाक हो गए। केंद्र से राज्य तक ने घुटने
टेक दिए, मसलन तत्कालीन
अटल बिहारी वाजपेयी सरकार को अलग उत्तरांचल का एलान करने के लिए मजबूर होना पड़ा।
तब आजाद उत्तराखंड की सुहानी सुबह में धीरे धीरे क्रांति की आग शांत होने लगी।
क्योंकि उत्तराखंड आजाद हो गया था। वहां की हुकूमत पर किसी की सियासत नहीं चलती
थी। लिहाजा खुशी में धीरे धीरे पुराने जख्म भरने लगे। और उत्तराखंड क्रांति दल
सियासत के मैदान से दूर अपने अंत को तलाश रहा था। इस बीच ऐसा लगा कि मानो
उत्तराखंड पर काबिज बीजेपी और कांग्रेस ने फिर से उत्तराखंड को जंजीरों में जकड़
लिया हो। उत्तराखंड को बेड़ियों में जकड़ता देख उत्तराखंड क्रांति दल मानो जख्मी
शेर की तरह दहाड़ मारने लगा। जिसने बीजेपी, कांग्रेस तक की नींव हिला दी। क्योंकि उक्रांद की बहादुरी
त्याग और बलिदान से सियासत के सूरमा भलिभांति परिचित थे। लिहाजा उसकी दहाड़ सुन
सबके कान खड़े हो गए।
मुमकिन था कि ये दल लोगों
के लिए सूबे में तब पहला विकल्प था। लेकिन आपसी लड़ाई ने इस दल के रुप को कुरूप कर
दिया। तमाम रेखाओं को मिटा डाला, पदचिन्हों तक को मिटा दिया। इस दल की अवधारणा तब हुई थी। जब
यूपी के पहाड़ी जिलों को राज्य बनाने की बात चल रही थी। लेकिन किसी भी कीमत पर
यूपी को ये बंटवारा मंजूर नहीं था। मसलन जंग का आगाज होना लाजमी था। जिसके लिए
साहसी लोगों की जरुरत थी। इस जरुरत को पूरा करने के लिए 26 जुलाई 1979 को आजादी के
मतवालों ने उत्तराखंड क्रांति दल का गठन किया। तब से शुरू ये जंग अब तक समाप्त नहीं
हो पाई है। बस कुछ समय के लिए शांत जरूर हो जाती है। मसलन अब ये जंग फिर से उफान
पर है। और इस बार इस दल ने बाकी राजनीतिक दलों को उत्तराखंड से खदेड़ने की जंग
छेड़ दी है। उत्तराखंड क्रांति दल लंबे समय से उपेक्षित हिमालयी क्षेत्र के विकास
के लिए एक सफल आंदोलन के रूप में उभरा। जिसका मकसद उत्तराखंडियों की आवाज बुलंद
करना था। उनको उनका अधिकार दिलाने का था। जब लोगों की भावनाओं का हनन होने लगा।
सूबे के लोगों पर आंच आने लगी, अधिकारों पर डाका पड़ने लगा। तो, यहां टकराना
जरुरी था।
जंग की आहट सुनाई पड़ी तो
मानो उत्तराखंड क्रांति दल भी नींद से जाग गया। क्योंकि आजाद हवा में सांस लेने
वाले मतवालों को गुलामी की बेड़ियां कैसे जकड़ पाती। अब जाग गये तो बस जाग ही गए, फिर नींद कहां
आने वाली है और अंगड़ाई लेने के साथ ही नई उर्जा के संचार के लिए इस क्रांति की
जिम्मेदारी मजबूत और नौजवान कंधों पर डाल दी। इससे पहले काशी सिंह एरी जैसे कुशल
रणनीतिकार के जिम्मे थी। जो अब पार्टी को और मजबूती देना चाहते थे। लिहाजा दल को
नई उर्जा देने की जिम्मेदारी, दल को सजाने संवारने की जिम्मेदारी युवा कुशल और होनहार
पुष्पेश त्रिपाठी को सौंपी गई। अब उम्मीद है कि इस दल की क्रांति फिर से एक नई
क्रांति लाएगी और उत्तराखंड और उत्तराखंडियों को अपने सपनों का उत्तराखंड मिलेगा।
नोट- ये मेरे निजी विचार
हैं।
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