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Saturday 31 January 2015

राहुल पर लेटर बम

ये हिंदुस्तान की राजनीति है...यहां हर नेता सियासी रसूख का भूखा है...सियासी चमक से ही उसकी भूख मिटती है...प्यास बुझती है...उस रसूख के लिए कुछ भी कर गुजरता है...जिससे उनके दिल को सुकून मिलता है...फिर क्या अपना और क्या पराया...जब दिल भर जाए तो नीति और नीयत अपने आप ही बदल जाती है...30 सालों से कांग्रेस की सेवा करने वाली जयंती नटराजन का दिल भी पार्टी से भर गया तो...पत्रों के जरिए अपने दिल का दर्द बयां कर रहीं हैं...दर्द नहीं सह पाई तो कांग्रेस को ही अलविदा कह दिया...नटराजन तो बिना नया ठिकाना ढूंढे पुराना घर छोड़ चलीं...उनका कद भी इतना छोटा नहीं है...कि कोई उन्हें पनाह देने से मना कर सके...कांग्रेस का मजबूत पाया हटा तो पूरी इमारत हिल गयी...अब सत्तारूढ़ बीजेपी कांग्रेसी किला ढहाने को तैयार है...जयंती पर अब सीबीआई का फंदा भी पड़ सकता है...कांग्रेस पर हमले को आतुर बीजेपी को मौका क्या मिला पूरी पार्टी एक साथ कांग्रेस पर हल्ला बोलकर पूर्व यूपीए सरकार के कार्यकाल में कामकाज के तरीकों पर सवाल उठा रही है...जयंती अब राहुल के गले की फांस बन गयी है... क्योंकि कांग्रेस की बची कुची इज्जत को भी बाजार में सरेआम कर दिया...वैसे भी पार्टी की कश्ती मझधार में हिलोरे ले रही है...अब तो लगता है कि कश्ती मझधार में ही रह जाएगी क्योंकि जिसके सहारे कश्ती थी एक एक कर दूर होते चले जा रहे हैं...और ये लेटर बम कितने लोगों को उठाता है...ये तो वक्त ही बताएगा...लेकिन राहुल गांधी पर जो आरोप लगा है...उससे बीजेपी को ऐसा अस्त्र मिल गया है जिससे वो चुनाव क्या, हर दिन-दिनदहाड़े कांग्रेस का कत्ल करेगी और कांग्रेस को बचाने के लिए न तो पुलिस होगी और न ही कचहरी...अवसरवाद के बिना राजनीति का वजूद अधूरा लगता है...यही वजह है कि कांग्रेस का पेड़ अपने सियासी बुढ़ापे की ओर क्या बढ़ा...कि पहले एक-एक कर उसके पत्ते गिरे तो अब टहनियां भी पेड़ का साथ छोड़ने लगी हैं. कांग्रेस के इस बगीचे और इन गिरते पेड़ों को संभालने की जिम्मेदारी जिस माली और बाग की देखभाल जिस चौकिदार के कंधों पर थी ... वो जिम्मेदार लोग ही देश के सबसे पुराने बगीचे को उजाड़ने में लगे हैं...अब बाग के चौकिदार राहुलको इस बाग की मकड़ी जंयती नटराजनने अपने मकड़जाल में फंसाया है...तो चौकिदार राहुल के कई चूहेदिग्विजय सिंहउस मकड़जाल को कुतरने कि कोशिश कर रहें हैं..लेकिन उस चूहे दिग्विजय सिंहके दांतों में वो दम नहीं हैं कि वो उस जाल को काट सकें... मकड़ी जंयती नटराजनको उस बाग में परेशानियां हुई तो उसने बाग को छोड़ने की रणनीति बनाई और एक मकड़जाल बनाया... मकड़ी के जाल से 130 साल पुराने बाग की बुनियाद तक हिल गयी...

Thursday 8 January 2015

कलम की आवाज: मीडियाः तब और अब

कलम की आवाज: मीडियाः तब और अब: तब दौर कलम कॉलम का था, भाव समर्पण का था अब दौर कंप्यूटर, टैब का है, भाव स्वार्थ का है तब कलम में जान थी, अब कलम बे-जान है तब पत्रक...

मीडियाः तब और अब

तब दौर कलम-कॉलम का था, भाव समर्पण का था
अब दौर कंप्यूटर-टैब का है, भाव स्वार्थ का है
तब कलम में जान थी, अब कलम बे-जान है
तब पत्रकारिता की नीयत थी, अब पैसों की नीयत है
तब सच लिखते-दिखाते थे, अब सच बेचते हैं
तब समाज का दर्पण था, अब सरकारों को समर्पण है
तब खबरों के पीछे भागते थे, अब खबर से भागते हैं
तब दौर इज्जत कमाने का था, अब दौर TRP पाने का है
तब दौर कामदारों का था, अब दौर कामचोरों का है
तब दौर पत्रकारिता का था, अब दौर चाटुकारिता का है

हिन्दुस्तान दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है, स्वस्थ लोकतंत्र का दिल है मीडिया। लेकिन अब न पहले जैसे तपस्वी पत्रकार हैं और न ही पत्रकारिता का समर्पण। राजनेता तो 100 फीसदी धर्मांतरण कर गए, तीनों के बीच एक-दूसरे की स्वार्थसिद्धि के लिए खुले आम खरीद-फरोख्त का खेल चल रहा है, ये रूकना चाहिए और मीडिया का सिविल सोसाइटी से जुड़ाव भी बढ़ना चाहिए, एक समय था जब मीडिया लोकतंत्र का जागरूक प्रहरी माना जाता था, आज इसकी स्थिति किसी सौतेले बेटे जैसी हो गयी है।

हर सरकार सार्वजनिक रूप से मीडिया को स्वीकार तो करती है, लेकिन उसके व्यवहार में दमन चक्र बंद नहीं होता, जितना भारी बहुमत, उतना ही बड़ा अहंकार और उतना ही भारी दमन चक्र। जनता के द्वारा, जनता का, जनता के लिए स्थापित लोकतंत्र चुनावी-घोषणाओं में ही दब कर रह जाता है, मीडिया साधन होता है सत्ता प्राप्ति का ? पर सत्ता मिलने के बाद मीडिया बोझ लगने लगता है, हालांकि जब मीडिया सरकार के आगे नतमस्तक हो जाती है तब सरकारें उस बोझ को कुछ हल्का महसूस करती हैं, नहीं तो आधिपत्य की स्वतंत्रता छीनने वाला मालूम पड़ता है।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने मंत्रिमण्डल के सदस्यों को शुरूआती सलाह में ये ज्ञान दिया था कि मीडिया के साथ अनावश्यक संवाद न बनाएं, बल्कि उचित दूरी भी रखें। अब सवाल ये है कि ऐसी स्थिति आखिर बनी क्यों और इससे बाहर निकलने का रास्ता क्या है? हां, कुछ बीमार ऐसे भी होते हैं, जिनको इलाज कराने में भी आनंद आने लगता है और वे बीमार रहने को असहज नहीं मानते, प्रेस की स्वतंत्रता और गुणवत्ता का अभाव उनको दु:खी नहीं करता, पिछली पीढ़ी में अधिकांश प्रेस मालिक स्वयं ही लिखते भी थे, सम्पादक थे, उनकी अपनी छवि थी।

आगे की पीढ़ियों में व्यापार का भाव प्रधान हो रहा है। अकेले मीडिया कर्म के भरोसे कोई घराना रातों-रात अरबपति भी नहीं हो सकता, ये आज की स्थिति है। सब धन के पीछे भागने वाले हो गए हैं, किसी भी युग में पत्रकार, साहित्यकार, कवि समृद्ध नहीं हुए, वे संकल्प के साथ जीते थे और लक्ष्य कर्म का होता था। पुरूषार्थी भी थे, मुफ्त का खाना उनको स्वीकार्य नहीं होता था, खुद्दार थे, देश सेवा, समाज सेवा उनकी प्राथमिकता थी। अपने अस्तित्व को सदा गौण ही रखते थे, ऐसे लोग ही बीज बनकर वृक्ष का रूप धारण कर लेते थे। उनके ही फल आज हम खा रहे हैं, इसके विपरीत आज का पत्रकार स्वयं अपने फल खाना चाहता है, जोकि प्रकृति के नियम-विरूद्ध है, लोकतंत्र के तीनों पाए अपने कर्मों के फल खुद ही खाना चाहते हैं।

मीडिया की अवधारणा इन्हीं पर निगरानी रखने के लिए बनी थी। समय का एक ऐसा झोंका आया कि, मीडिया भी चौथा पाया बनकर इन्हीं में शामिल हो गया, अब निगरानी करने वाला खो गया, उसने भी, अन्य तीनों पायों की तरह जनता से मुंह मोड़ लिया, आज का लोकतंत्र 'जनता का, जनता द्वारा तथा सरकारों के लिए' में रूपान्तरित हो गया है, जनता वोट देकर सत्ता सौंपती है, टैक्स देकर इनका पेट भी पालती है, काम करने की एवज में घूस भी देती है। फिर भी जनता का सम्मान नहीं होता। यही लोकतंत्र की नई परिभाषा है।

अमेरिका यात्रा को लेकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की अति कवरेज, मीडिया के विकास पर ट्राई की सिफारिशों की सरकार द्वारा अनदेखी और स्वयं सरकार द्वारा मीडिया की उपेक्षा-ऐसे मुद्दे हैं, जिन पर व्यापक चर्चा की जरूरत महसूस की गई है। सरकार और मीडिया में लेन-देन की लुकाछिपी का खेल तेजी से बढ़ता जा रहा है, सभी सरकारें पत्रकारों को खरीदने का मानो आघोषित अभियान चलाकर रखती हैं, क्या-क्या प्रलोभन नहीं दिए जाते। मीडिया समूह अपने कर्मचारियों को वेतन देगा और सरकारें इन संस्थानों को रिश्वत देकर उनको अपने पक्ष में काम करने के लिए तोड़ने लगीं, तब प्रबंधन ने भी छलांग लगाई और खबरों की कीमत वसूलना शुरू कर दिया।

आज का महावाक्य बन गया, क्या फर्क पड़ता है, पेड न्यूज! मीडिया का चेहरा काला हो गया, कोई बात नहीं, बस धन आना चाहिए! इस संघर्ष में बेचारा पाठक स्वत: ही खो गया है, मीडिया समूह व्यापारिक घराने बनते जा रहे हैं, स्वार्थ सिद्धि न होने पर दोनों पक्ष एक-दूसरे पर आक्रामक होने लगते हैं, समस्या तो सुरसा की तरह बड़ी होती ही जा रही है, मीडिया पर बिकाऊ होने का काला टीका लग चुका है, मीडिया ने भी धन के आगे घुटने टेकने शुरू कर दिए हैं, लोकतंत्र में ननिगेहबानी की भूमिका निभाने का एक ही मार्ग दिखाई देता है, जनता के बीच जाना। सिविल सोसाइटी के साथ भागीदारी, टीम के साथ टीम जुड़ जाएंगी तो परिणाम अच्छे आते ही जाएंगे।

इसी में पत्रकार का वैश्वीकरण भी होता जाएगा, मीडिया बिकाऊ के स्थान पर टिकाऊ होता चला जाएगा, लोकतंत्र की गुणवत्ता के लिए सूचना और संचार तकनीक बेहतर सहयोगी है, आम नागरिक, सक्रिय मीडिया और न्यू मीडिया को प्रोत्साहित कर रही है, इसका उपयोग नकारात्मक कम सकारात्मक अधिक है, अब फिर से उस युग में लौटना पड़ेगा, पत्रकार कलम और कॉलम का सिपाही होता है। जिसकी खबर ही भूख खबर ही प्यास खबर ही दिन खबर ही रात, हर वक्त बस खबर ही खबर, जिसकी भूख कभी खत्म नहीं होती, हर विभाग हर संस्था में हफ्ते भर काम नहीं करती। लेकिन मीडिया में सातों दिन 24 घंटे काम होता है।

जब लोग दीवाली, ईद, होली और क्रिसमस मनाते हैं तो पत्रकार खबरों की तलाश में दरबदर भटकता रहता है, वो पत्रकार जो दिखते नहीं, लेकिन उनके कलम की आवाज सियासत और समाज के कानों को भेदती है, जैसे सरहद पर सिपाही का काम दिखता है, वैसे ही कलम और कॉलम के सिपाही का काम बोलता है, याद रखना देश के सजग प्रहरी अगर सो गए तो वोट के पुजारी ये वतन बेच देंगे।