Search This Blog

Monday 27 April 2015

तबाही के तीन दिन

आज मन बहुत उदास है, दिल दुखी है, क्योंकि चारों ओर बस चीख ही चीख सुनाई पड़ रही है। लाशों का ढेर लगा है, मलबों से मुर्दे चीख रहे हैं। नजर जिधर पड़ती, बस तबाही के सिवा कुछ नहीं दिखता। मकान जमींदोज, मंदिर धराशाई और सड़कों में भूस्खलन। जो जिंदगी बची भी है। ना जाने किस कदम पर मौत के मुंह में समा जाए। क्योंकि हर कदम पर मौत की आहट सुनाई पड़ रही है। इस त्रासदी में इंसान तो इंसान भगवान भी खुद को नहीं बचा पाए। हे भगवान ये कैसा न्याय है।

शनिवार को कुपित शनिदेव ने तबाही का ऐसा खेल खेला कि जो गए सो गए, जो बचे हैं उस तबाही की चीख उनके कानों में ताउम्र सुनाई पड़ेगी। दिन में करीब 12 बजे भूकंप ने जो तांडव मचाया, उससे हजारों जिंदगियां मौत की आगोश में समा गयीं। हंसता, मुस्कराता काठमांडू कब्रिस्तान बन गया। इस जलजले में जो बचे भी वो राहत के अभाव में दम तोड़ गए। आर्थिक रूप से कमजोर छोटे से नेपाल के लिए कुदरत ही जालिम बन गयी। ऐसा मंजर किसी ने शायद ही देखा हो, क्योंकि 81 साल पहले इस तरह का जलजला आया था। लेकिन इस जलजले ने काठमांडू के खूबसूरत चेहरे को इतना बदसूरत बना दिया कि उसका नाम लेने मात्र से ही रूह तक कांप उठती है।

इस संकट से नेपाल की चीख जैसे ही हिंदुस्तान के कानों में पड़ी। पीड़ितों को बचाने के लिए भारत सरकार ने धरती से आसमान तक को एक कर दिया। जहां से और जैसे भी संभव हो मदद किया। ये मदद नहीं मानवता का धर्म कहिए, पड़ोसी होने का फर्ज कहिए, सच्ची दोस्ती की अच्छी तस्वीर कहिए। दोस्ती की नई परिभाषा कहिए, नेपाल की ओर मदद का हाथ बढ़ाने वाले पहले मुल्क हिंदुस्तान की दुनिया में जय जयकार हो रही है। प्रधानमंत्री की तत्परता का गुणगान हो रहा है। जबकि भारत की दरियादिली देख दुनिया के कई मुल्क शर्म से पानी पानी हैं और नेपाल की मदद को सामने आ रहे हैं, भूकंप के तुरंत बाद भारत सरकार ने फौरन NDRF के कई दस्तों को नेपाल रवाना किया, वायुसेना के हेलीकॉप्टर आसमान में उड़ने लगे। सरकारी और गैर सरकारी टेलीकॉम कंपनियों ने कम दर में और मुफ्त में नेपाल बात करने की छूट दी। यूपी सहित कई राज्यों ने सैकड़ों ट्रक राहत सामग्री भेजकर पीड़ितों की मदद की। त्रासदी पीड़ितों की रक्षा के लिए हिंदु, मुस्लिम, सिख, ईसाई सभी के हाथ दुआओं के लिए उठे। किसी ने पूजा की, तो किसी ने खुदा से रहम करने की गुजारिश की। खैर ये सब तो चलता रहा, और भूकंप लुका छिपी का खेल खेलता रहा। लोगों के दिलों में दहशत इस कदर समा गयी कि जो घर उन्हे स्वर्ग से भी सुंदर लगता था। वही कब्रिस्तान लगने लगा। प्रधानमंत्री हर दिन समीक्षा बैठक करते, हर समय फोन से जानकारी जुटाते रहते। सोमवार को जब संसद की कार्यवाही शुरू हुई। दोनों सदनों में सन्नाटा था, सबकी आंखें नम थी, सत्ता पक्ष और विपक्ष सब के सब त्रासदी पर मौन थे, मृतकों को श्रद्धांजलि देने के लिए। मौन टूटा, कार्यवाही शुरू हुई, तो तबाही के इस मंजर को सबने अपने अपने तरीके से बयां किया। सरकार की तरफ से संसदीय कार्यमंत्री वैंकैया नायडू ने सभी सांसदों से एक महीने की तनख्वाह पीड़ितों के नाम करने की अपील की। जिसका करीब सभी सदस्यों ने समर्थन किया। खैर ऐसा कम ही होता है, जब निजी स्वार्थ को छोड़कर, बिना शोर शराबे के किसी मुद्दे पर सभी सदस्य एकमत हों, लेकिन यहां सभी संसदों ने मानवता का फर्ज अपनी तनख्वाह देकर निभाया और ऐसा करके हिंदुस्तान ने अपनी ताकत का अहसास कराया कि हम फिर से विश्व गुरू बनकर रहेंगे। कहते हैं कि जाके पांव न फटी बिवाई वो का जाने पीर पराई। लेकिन ये तो हिंदुस्तान है जो सेवा को परम धर्म मानता है। इसलिए अपनों के साथ साथ औरों को भी संकट से उबारने में धरती आसमान एक कर दिया।

Friday 24 April 2015

सिर्फ फाइलों में सिसक कर दम तोड़ रही शिक्षा की सूरत

परिस्थितियां बदलीं, लोग बदले, क्या शिक्षा का वो स्वरुप बदला जिसके बल पर एक सामाजिक स्वरुप का ताना बाना बुनने की कल्पना किए बैठे हैं हम सभी? शायद नहीं ! आज के इस भौतिक, आधुनिकता रुपी वातावरण में शिक्षा का स्वरुप ही बदल चुका है। शिक्षा की परिभाषा ही बदल चुकी है। अगर हम शिक्षा के मूल स्वरुप की व्याख्या करें तो हमेशा से ही इसमें रोजी, रोटी और रोजगार के साथ-साथ मानवीय समाजिक कर्तव्य भी मुख्य रुप से समाहित रहा है, पर आज के इस उदारीकरण, निजीकरण, वैश्वीकरण रुपी परिवेश में हमने जिस शिक्षा की व्याख्या की उसमें केवल मात्र रोजी, रोटी एवं रोजगार को समाहित किया है और इसके मूल आधार जैसे व्यक्त्वि का विकास, नैतिकता, समाजिक दायित्व, मानवीय कर्तव्य आदि की पूर्णरुपेण अनदेखी कर दी। आज इस शिक्षा पद्धति का परिणाम हम सबों के सामने है।

शिक्षा का मूल मंत्र केवल आर्थिक संवृद्धि तक सिमट चुका है। आज के मां बाप अपने बच्चों को वैसी शिक्षा देने को आतुर नजर आते हैं। जिससे ये अधिक से अधिक आर्थिक संवृद्धि प्राप्त कर सकें, जिसके सहारे ये बच्चे अपनी सारी भौतिक सुख सुविधाओं का लाभ उठा सकें। अगर देखा जाऐ तो आखिर ये क्या है, शिक्षा के व्यवसायीकरण के सिवाय। अब हम सभी सहज ही अंदाजा लगा सकते हैं, कि ये बच्चे जब ऐसी शिक्षा प्राप्त कर समृद्धि की ओर कदम बढ़ाऐंगे तब इनका लक्ष्य एवं उद्देश्य क्या होगा? सिर्फ पैसा कमाना, ज्यादा से ज्यादा भौतिक सुख सुविधा की प्राप्ति। फिर ऐसी, शिक्षा प्राप्त युवाओं से आगे चलकर मौलिकता, नैतिकता, उत्तरदायित्व, समाजिक-सांस्कृतिक सरोकार आदि से आस लगाऐ रखना, ये कहां तक जायज होगा, किस हद तक सही माना जाऐगा, ये सोचने वाली बात है।

आज इतने समृद्ध होने के बावजूद इन युवाओं में अनैतिकता, अव्यवहारिकता देखने एवं सुनने को मिल रही है, तो इनमे इनका क्या दोष। हमने ऐसी ही पौध तैयार की है, हमने केवल मात्र व्यक्तिगत स्वार्थ की पूर्ति के आधार पर अपनी शिक्षा प्रणाली को परिभाषित किया है जो मानवीय विचारों को बहुकेंन्द्रित होने की जगह आत्मकेंन्द्रित कर रही है।

जो गरीब हैं, पिछड़े हैं उनकी बात छोड़िये उन बेचारों को वहीं लुंज-पुंज अव्यवस्थित सरकारी स्कूलों में पढ़ना पड़ता है, जहां ना कोई उद्देश्य है और ना कोई लक्ष्य, जो इनकी मजबूरी है। अगर इन स्कूलों से कोई बच्चा शिक्षित बनकर निकलता है तो ये उनका अहो भाग्य है। नहीं तो ज्यादातर साक्षर भी नहीं बन पाते इन स्कूलों में। फिर इनसे समाजिक, मानवीय कर्तव्य की कल्पना करना शायद उचित नहीं होगा।

लेकिन जो साधन संपन्न है, जिन्होंने आज के वातावण के अनुकूल व्यवसायिकता से परिपूर्ण रोजगार परक शिक्षा प्राप्त की है। वो मानवीय, समाजिक उत्तरदायित्व के दायरे में कहां तक आते हैं? आज इसका परिणाम सबके सामने है। भौतिकता, आधुनिकता से लवरेज ये युवा आज हैरान और परोशान क्यों हैं? साधन संपन्नता के बावजूद चेहरे पर वो मुस्कुराहट क्यों नहीं है? घर से लेकर दफ्तर तक क्यों मानसिक उलझन में फंसे दिखाई पड़ रहे हैं? महानगरों में रहने वाले ये युवा, सारी भौतिक इच्छाओं की पूर्ति करने में सक्षम ये युवा बात-बात पर क्यों आक्रोशित हो रहे हैं? बात-बात पर हिंसक हो रहे हैं, या तो वो खुद को नुकसान पहुंचाते हैं या फिर दूसरों को। युवओं की वो धैर्य, सहनशीलता, संघर्ष करने की क्षमता, आत्मविश्वास, ईमानदारी, स्पष्टता आखिर चली कहां गई? क्या कभी गौर किया है हम सभी ने इन बातों पर। बिल्कुल नहीं, क्योंकि हम सबों ने शिक्षा को सिर्फ व्यवसायिकता के सांचे में समाहित किया, इसे ही सर्वोपरि माना। क्योंकि एक प्रचलित कहावत है कि बोऐ पेंड़ बबूल का तो आम कहां से होय।

आज शिक्षा की यही संकुचित व्याख्या समाज को कमजोर कर रही है, समाजिक मूल्यों एवं नैतिकता के दायरे को समेटती चली जा रही है। लोग भौतिक सुख साधनों मे ही अपने-अपने समाजिक सरोकार, मानवीय संवेदनाएं, समाजिक भावनाएं ढ़ूंढ रहे हैं। यही सोच कहीं ना कहीं शिक्षित एवं साक्षर के बीच एक सीमा रेखा खींचती है।
आश्चर्य होता है, जब समाज के कुछ प्रबुद्ध वर्ग भौतिक शैक्षणिक पद्धति को समय की मांग के आधार पर जायज ठहराने की कोशिश करते नजर आते हैं। इनका तर्क होता है, कि आज का युवा हाईटेक हो गया है, बड़ी तीव्र गति के साथ आगे बढ़ रहा है।

ये बात सत्य है, युवा भौतिक रुप से हाईटेक दिख रहा है, पर क्या मानसिक रुप से भी है, वैचारिक रुप से, समाजिक-सांस्कृतिक रुप से, मानवीय रुप से ये युवा आज भी हाईटेक हो पाया है? खासकर शहरों में रहने वाले उन युवाओं के युवा रुपी परिवेश में दिन प्रतिदिन घटित हो रही घटनाओं पर नजर दौड़ाएंगे। तो साफ पता चल जाएगा। मैं इस लेख के माध्यम से इस प्रकार का प्रश्न संपूर्ण युवा रुपी सोच पर नहीं उठा रहा हूं। आज भी बहुत से युवा ऐसे हैं जो हाईटेक होने के साथ-साथ, आर्थिक संमृद्धि पाने के साथ-साथ अपने समाजिक सरोकारों को नहीं भूले, वो भली भांति अपने कर्तव्यों को मुस्कुराते हुए निभा रहे हैं। ये तो इनकी अपनी क्षमता है जिसके कारण व्यवसायिक, शैक्षणिक पद्धति में अपने सोच की व्यापकता को हमेशा बनाऐ रखा। पर सभी युवाओं में क्या ऐसी क्षमता हो सकती है, बिल्कुल नहीं, इसलिए महत्वपूर्ण प्रश्न खड़ा होता है इस शिक्षा पद्धति की दशा दिशा को लेकर।

शिक्षा का तात्पर्य है सर्वांगीण विकास अर्थात आर्थिक संवृद्धि के साथ-साथ समाजिकसांस्क़तिक संवृद्धि। किसी एक को छोड़ कर हम शिक्षा की सही परिभाषा नहीं गढ़ सकते हैं, अगर परिभाषित करने की कोशिश की तो इसमें विकृति आ जाएगी। जिसका परिणाम बड़ा भयावह होगा। जिसकी कल्पना करना शायद किसी के बस की बात ना हो।

आधुनिकता की व्याख्या आज हम ठीक इसी आधार पर करते दिख रहे हैं। क्या केवल मात्र भौतिक सुख साधन की प्राप्ति ही आधुनिकता है, बिल्कुल नहीं। आधुनिकता एक व्यापक शब्द है, जो मानवीय मानसिकता से जुड़ी होती है आपकी सोचने समझने की क्षमता, आपकी कल्पनाशीलता, दूरदर्शिता, अपने कर्तव्यों उत्तरदायित्वों को समझना, सही क्या है गलत क्या है संपूर्ण मानवीय परिवेश में महसूस करना, यही तो सच्ची आधुनिकता है। आधुनिकता को आप सभ्यता से जोड़ सकते हैं जो कभी नहीं बदलता पर भौतिक सुख साधन संस्कृति से जुड़ा प्रश्न है जो समय, स्थान, परिवेश के अनुसार बदलता रहता है पर दोनों एकदूसरे के बिना अधूरे हैं।

आज हम सबों को समझना होगा, शिक्षा के इस मूल मंत्र को। इसकी इनदेखी ही समाज में नैतिक मूल्यों में गिरावट के रुप में देखने को मिल रही है। समाज जात, धर्म, क्षेत्र, लिंग में बंटा दिख रहा है। भ्रष्टाचार शिष्टाचार का रुप धारण कर चुका है। जिसके परिणाम स्वरुप मंहगाई, बेरोजगारी, अव्यवस्था अपना मुंह बाएं खड़ी है।

आज हम इसी व्यवसायिक शिक्षा के आधार पर आर्थिक सम्पन्नता का आंकड़ा प्रस्तुत कर रहे हैं। कुछ मुट्ठी भर लोगों के आर्थिक हित को पूरे देश का आर्थिक हित बतलाते हैं। आज इसी का परिणाम है कि हम अपनी सोच को एक सीमित दायरे से बाहर नहीं निकाल पाते हैं। ज्ञान तो है काबिलियत तो है, पर वो शैक्षणिक परिवेश, वो शैक्षणिक ढ़ांचा नहीं है जिसके बल पर एक व्यापक दृष्टिकोण प्रस्तुत कर सकें।

आज जरुरत है फिर देश को संमूर्ण शिक्षा पद्धति पर गौर करने की, इसको लेकर एक व्यापक सहमति बनाने की एवं एक जरुरी कदम उठाने की। ताकि शिक्षित एवं साक्षर के बीच जो अंतर है वो समाप्त हो जाऐ। जिसके बल पर हम सभी एक संतुलित आर्थिक मानवीय परिवेश की स्थापना कर सकें।

आकुल व्याकुल मन में जगी जानने की अभिलाषा ।
भारतीय जन मानस में क्या है शिक्षा की परिभाषा ?
गुरु वचन को धारण कर बरसात में खेत को जाना ।
शिष्य खोज में व्याकुल होकर वत्स वत्स चिल्लाना ॥
जल धारा रोकने हेतु आरुणी का मेड़ पर लेट जाना ।
भक्ति भावना से आह्लादित शिष्य को गले लगाना ॥
गुरु के सानिध्य में प्रेम पूर्वक जहां बुझे जिज्ञासा ।
भारतीय जन मानस में शिक्षा की यही परिभाषा ॥