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Tuesday 30 September 2014

कलम की आवाज: दागियों का ढाल बनती बिकाऊ मीडिया

कलम की आवाज: दागियों का ढाल बनती बिकाऊ मीडिया: स्वस्थ लोकतंत्र का दिल है मीडिया , उसका दिल काला हो जाय तो पूरी कायनात को काला करने का माद्दा रखती है। लेकिन उसी मीडिया पर जब बाजारीकर...

कलम की आवाज: दागियों का ढाल बनती बिकाऊ मीडिया

कलम की आवाज: दागियों का ढाल बनती बिकाऊ मीडिया: स्वस्थ लोकतंत्र का दिल है मीडिया , उसका दिल काला हो जाय तो पूरी कायनात को काला करने का माद्दा रखती है। लेकिन उसी मीडिया पर जब बाजारीक...

दागियों का ढाल बनती बिकाऊ मीडिया


स्वस्थ लोकतंत्र का दिल है मीडिया, उसका दिल काला हो जाय तो पूरी कायनात को काला करने का माद्दा रखती है। लेकिन उसी मीडिया पर जब बाजारीकरण का रंग चढ़ा तो उस रंग में सभी सफेदपोशों के काले कारनामें भी मोती की तरह चमकने लगे। मीडिया के बाजारीकरण के साथ ही हर काले कारनामें को छुपाने का मीडिया ढाल बनता रहा। और चुनाव के समय तो भ्रष्टाचारी, बलात्कारी, हत्यारे, अपरणकर्ता नेताओं को मोटी रकम वसूलकर उन्हे सत्यवादी, राष्ट्रवादी, बेगुनाह और सबसे बड़ा धर्मात्मा बनाकर पेश करती है। जिससे जनता टेलीविजन की दुनिया का दीदार कर गच्चा खा जाती है। और हिंदुस्तान के मतदाता भी अब तक भेड़ों की चाल चलते रहे हैं। मतदाता सिर्फ अपना फायदा देखकर मतदान करता है। कि किसके समर्थन से वो अपना रुतबा बरकरार रख सकता है। कौन उसकी दबंगई को शह देगा। वो उसे ही वोट देंगा। भले ही वो देश को दीमक की तरह चाटकर खोखला कर दे। और जीतने के बाद उनका रसूख कायम रखने औऱ उनके काले कारनामों पर परदा डालने का काम मीडिया करता है। उसके लिए चाहे उसे न्यूज चैनल खोलना पड़े। समाचार पत्र निकाले या बड़े दलाल पत्रकारों की कीमत लगाकर उनका ईमान खरीद ले। इसी चाटुकारिता ने मीडिया में बर्चस्ववाद को बढ़ावा दिया। सरकार मीडिया के स्कोप देखकर तमाम संस्थान खोलती जा रही है। लेकिन उसे ये पता नहीं कि उस फैक्ट्री की उपज या तो दम तोड़ देते हैं या लोकतंत्र की दीवार को खोखला करने लगते हैं। जब सबकी जांच होती है तो मीडिया की क्यों नहीं? क्योंकि सरकार को भी डर होता है कि कहीं दूसरों को बेनकाब करने में खुद ही बेनकाब ना हो जाएं। जिससे दलाल मीडिया को मनमानी करने की छूट मिल जाती है। उसी छूट का लाभ उठाते हैं मीडिया के दिग्गज पुरोधा। जो खुद तो काली कमाई के बाद भी मोटी सेलरी लेते हैं लेकिन जब साक्षात्कार के दौरान ऐसा लगता है कि पैसा उन्हे ही अपनी जेब से देना है। और बनिए की दुकान की तरह मोल भाव करते हैं। आखिर में न्यूनतम मजदूरी से भी नीचे पहुंच जाते हैं क्योंकि खुद को मालिक का सबसे बड़ा वफादार दिखाना चाहते हैं। और मालिक का वफादार कुत्ता बनने के लिए ना जाने कितनों के इंसाफ का गला घोंट देते हैं। ऐसा करने वालों को ही सरकार भी लूट करने का प्रमाणपत्र देती है। सुप्रीम कोर्ट सरकार से जवाब मांगे कि अभी तक मजीठिया आयोग की रिपोर्ट कितने संस्थानों ने लागू किया और कितनों ने क्यों नहीं लागू किया। उनके खिलाफ क्या कार्रवाई होगी? क्योंकि कुछ चुनिंदा किरदारों को छोड़कर बाकी के हितों की अनदेखी की जाती है। बरसाती मेढकों की तरह मीडिया संस्थानों की बाढ़ आ रही है। उसके साथ ही मीडियाकर्मियों का शोषण भी बढ़ रहा है। ब्रॉडकास्टिंग मंत्रालय तो बस जनता की कमाई खाक करने का जरिया है। जरूरत है कि एक आयोग का गठन हो जो मीडिया संसथानों की जांच करे। और शिकायतों का निपटारा करे। क्योंकि न्यायालय के शिवा कोई रास्ता नहीं है जो मीडिया कर्मियों की पीड़ा सुनने का साहस दिखाए। और बड़े मीडिया संस्थान बड़े संस्थान खोलकर प्लेसमेंट के बहाने मोटी कमाई कर रहे हैं। और प्लेसमेंट के नाम पर बहुत किया तो उन्हे प्रशिक्षण के नाम पर चार छ महीने तक मुफ्त में शोषण करने के बाद फिर बाहर का रास्ता दिखा देते हैं ये कहते हुए कि उन्हे जॉब पर नहीं रख सकते।