Search This Blog

Tuesday 6 May 2014

नारे ठग लेंगे...

वादे...वादे...और बस वादे

नारे...नारे और सिर्फ नारे

ये दो शब्द नेताओं के करम., धरम, पाप, पुन्य की पूरी गाथा बयां कर देते है। सुनने में तो ये दो अक्षर के शब्द है। लेकिन इस शब्द में जो जादुई करिश्मा है। उसे समझना आम आदमी के बस में नही है। ये वो शब्द है जो भारत की राजनीति में सत्ता का ताला खोलते हैं। जिसे सजाने के लिए पार्टियां खुलेआम खजाना भी लुटाती हैं। जिसके चलते बड़े बड़े कलमिया पुरोधाओं का इमान भी डोल जाता है। और जनता को ठगने का हथियार नेताओं को सौंप देते हैं। फिर क्या...नेता इसी हथियार से हर बार जनता का सीना छलनी करते हैं। और इस जुर्म के आगे बेबस, लाचार जनता सहन करती रहती है। और नारों में विकास और स्वराज की पींगे हांकी जाती हैं। लेकिन जब जब मतदाताओं ने किसी दल को सबक सिखाने की ठानी तो। जादुई हथियार भी नेताओं को दगा दे गए। जबकि जनता की खामोशी में चुनावी शोर गुम होती चली गयी। और करिश्माई नेतृत्व के बाद भी वाजपेयी को जनता ने सत्ता से बेदखल कर दिया। और सत्ता जाते ही एनडीए की शाइनिंग अमावस की काली रात में गुम होती गयी। फिर क्या...पूनम की रात के इंतजार में दस साल गुजार दिए। लेकिन सपने तो बस सपने ही रह गए। एनडीए को नया अवतार क्या मिला, मानों सपनों के पंख लग गए। जिसके सहारे बीजेपी की नजरें पूनम की रात पर टिक गयी। जाहिर है कि एक पंचवर्षीय में आए मदों का शत प्रतिशत उपयोग हो। तो कुछ मदों को छोड़कर दस सालों तक कराने के लिए कोई काम ना बचे। लेकिन ऐसा होता नही, जनता के पास वोट की ताकत है। और उसके उपयोग की आजादी भी। अभाव है तो सिर्फ जागरूकता का, जिसके बिना नेताओं के चक्रव्यूह से बाहर निकलना मुश्किल है। ऐसे में जनता भावनाओं, लहरों, रूझानों के विपरीत अपने निर्णय और समझदारी से वोट का इस्तेमाल करें तो भविष्य में नेताओं की ठगी से बचना संभव है।
अंतिम घड़ी है अंतिम बेला
अंतिम रण भी है अलबेला
अंतिम वादे अंतिम नारे
शोर चुनावी भी है अंतिम
सोच समझकर लेना निर्णय
पांच साल की अंतिम बेला
अंतिम घड़ी है अंतिम बेला

No comments:

Post a Comment