Search This Blog

Friday 16 March 2018

कांच की गुड़िया की एक व्यथा

मैं शीशा हूं मेरी इज्जत नहीं, दर्द नहीं मै सह पाऊं
जो लगे एक भी ठोकर मुझको, टूटकर बिखर जाऊं
जो तराश दे कोई मुझको, महफिल की रंगत बन जाऊं
किसी गले में-किसी भवन में, चेहरे का दर्पण बन जाऊं
हर महफिल की रंगत, शीशे बिना अधूरी मैं पाऊं
जाम भी तब छलकता है, जब मैं गिलास बन जाऊं
बन गिलास आऊं दुनिया में, हर महफिल की शान बढ़ाऊं
मयखानों में बीयरबारों में, बस मैं ही मैं पुकारा जाऊं
काम हजारों है मेरा, फिर भी कहीं न इज्जत पाऊं
ए इंसान समझ मेरा मोल, ताकि मैं भी इज्जत पाऊं
नहीं चाहता दर्द मैं देना, न मान तो तेरा लहू निकाल दिखाऊं
छोटा-बड़ा नहीं कोई जग में, इज्जत देता ताकि मैं भी इज्जत पाऊं
इतनी औकात हमारी है, बिन हीरे के मैं न काटा जाऊं
तू भी खुद को कहता इंसान, बिन मेरे सजकर दिखलाए
मेरे बिना संवरना मुश्किल, दम है तो दुनिया दिखलाए
मेरे बिन दुनिया अंधों की, इक दूजे का सौंदर्य बताएं
खुद की नजरों से ओझल चेहरा, चैन भला किसको आए
दिन में दस बार जो देखे चेहरा, बिन देखे कैसे रह पाए
धरती के हर इक प्राणी को, चेहरा देखन को तरसाऊं
किसी को दाग नजर न आए, मैं दर्पण बन दाग दिखाऊं
मैं शीशा हूं मेरी इज्जत नहीं, दर्द नहीं मैं सह पाऊं।

एक करोड़ की नौकरी छोड़ शिक्षा की अलख जगाने निकले हैं पूर्वांचल के सपूत

No comments:

Post a Comment