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Thursday 15 March 2018

...तो क्या अपनों ने ही योगी को हरवा दिया?

उत्तर प्रदेश में बीजेपी के करीब तीन दशक पुराने अति सुरक्षित किले में बुआ-भतीजे की जोड़ी ने सेंध लगा दी और बीजेपी के सियासी सूरमा हाथ मलते रह गए, लेकिन मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की स्थिति 'काटो तो खून नहीं' जैसी हो गयी है, हालांकि ये जीत बे-जान पड़ी बसपा के लिए चिता पर पड़े शव में आग लगने से पहले धड़कने चलने जैसी रही, जबकि समाजवादियों की तो पूछो ही मत वो तो मारे खुशी के पागल हुए जा रहे हैं। वहीं कांग्रेस सपा-बसपा को जीत की बधाई देकर अपना दर्द छिपाने की कोशिश कर रही है और अंदर ही अंदर अपने फैसले पर पश्चाताप भी कर रही है क्योंकि इस जीत में शामिल होने से कांग्रेस को बीजेपी पर हमला करने का मौका मिल जाता। कांग्रेस इसे भी गवां दी। अब कांग्रेस, सपा-बसपा के लिए तालियां ही बजाती रहेगी या अपनी सियासी किस्मत चमकाने के लिए कोई अलादीन का चिराग ढूंढ़ कर लाएगी?
इस जीत की खुशी जितनी विपक्षी दलों में है, कमोबेश उतनी ही खुशी सत्ता पक्ष में भी है क्योंकि बीजेपी के कुछ नेताओं के गले में ये खुशी इस कदर अटकी पड़ी है, जिसका वे खुलकर न तो इजहार कर पा रहे हैं और न ही उसे पचा पा रहे हैं। कहते हैं निरंकुश राजा हो तो प्रजा निकम्मी हो जाती है, पर राजा तानाशाह हो जाए तो प्रजा को बागी बनने में देर नहीं लगती। ये दोनों उदाहरण तब और अब की सरकारों पर लागू होते हैं क्योंकि 2014 में मिले प्रचंड बहुमत के बाद बीजेपी में तानाशाही का युग आ गया, इसके पहले भी एक दौर था जब ये कहा जाता था कि इंदिरा इज इंडिया-इंडिया इज इंदिरा, खाता न बही जो केसरी कहें वही सही। केसरी कांग्रेस के लंबे समय तक कोषाध्यक्ष रहें और 3 जनवरी 1997 को तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष पीवी नरसिंह राव को रिप्लेस कर दिए थे। उससे पहले भी इंदिरा और राजीव का अहंकार भी सातवें आसमान पर रहा।

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राजनीतिक पंडितों की मानें तो 2014 में प्रचंड बहुमत के साथ सत्तारूढ़ हुई बीजेपी एक संगठन के बदले एक व्यक्ति की पार्टी बनकर रह गई, तब से लेकर अब तक कमल का एक पत्ता भी बिना उसकी इजाजत के हिलता तक नहीं, यहां तक कि उसी अहंकार का नतीजा रहा कि जिन लोगों ने बीजेपी को खड़ा करने में अपना खून-पसीना बहाया था, वो अब हाथ जोड़कर अपने बुढ़ापे का सहारा मांग रहे है, ऐसे कई नेता हैं, जो इस कदर हाशिए पर हैं। आडवाणी हों, मुरली या यशवंत चाहे शत्रुघ्न हों, सब के सब हाशिए पर चल रहे हैं, जो हाशिए पर हैं, इस हार के बाद उनके मन में भी खुशी के लड्डू फूट रहे हैं, जबकि शत्रुघ्न ने तो अपनी कड़कती आवाज से एक ही झटके में बीजेपी को खामोश कर दिया क्योंकि उन्होंने ट्वीट कर साफ कर दिया कि अहंकार और अति आत्मविश्वास इंसान का सबसे बड़ा दुश्मन है। वहीं सुब्रमण्यम स्वामी ने तो यहां तक कह दिया कि अपनी सीट तक न बचा पाने वाले को इतना बड़ा पद देना लोकतंत्र में आत्महत्या करने जैसा है तो आजमगढ़ से सांसद रह चुके रमाकांत यादव ने कहा कि दलितों और पिछड़ों को नजरअंदाज करने से पार्टी का ये हस्र हुआ है।

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हालांकि, उससे पहले योगी ने खुद इस बात को स्वीकार किया था कि अति आत्मविश्वास और विपक्ष की रणनीति समझने में हुई चूक हार का मुख्य कारण है, पर एक बात यहां समझना जरूरी है कि कहीं योगी खुद हार गए या हरवा दिए गए। अतीत के पन्नों को पलटने पर तो यही लगता है कि बीजेपी में योगी का बढ़ता कद पार्टी के कुछ नेताओं को रास नहीं आ रहा था, इसके पीछे एक वजह और भी हो सकती है कि वरिष्ठ नेता पहले ही मोदी के बढ़े हुए कद के सामने खुद को बौना महसूस कर रहे थे, ऐसे में उनके लिए एक और बोझ सहना बेहद नागवार लग रहा था, जिसके चलते बीजेपी का अति सुरक्षित किला एक ही झटके में जमींदोज हो गया और बीजेपी में योगी का कद भी घट गया, हालांकि केशव प्रसाद मौर्या के चेहरे की हवाइयां भले ही उड़ी हुई हैं, पर अंदर से तो उनके मन में भी लड्डू फूट रहे हैं क्योंकि अब उनकी सीट गयी तो योगी की कुर्सी पर भी खतरा मंडराने लगेगा, बस यही बात केशव के हारने के घाव पर मरहम का काम कर रहा है।

1 comment:

  1. मैं गोरखपुर की वास्तविक हकीकत तो नहीं जानता लेकिन हो सकता है, स्थानीय बीजेपी नेता योगी के अलावा किसी और को उत्तराधिकारी देखना नहीं चाहते हो, क्योंकि एमपी में भी देखा गया है कि बीजेपी स्थानीय नेताओं की छवि बहतर न होने से उपचुनाव जीतने में नाकामयाब रही है

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