बढ़ती तकनीक के साथ साथ इंसान भी कितना तकनीकी होता जा रहा है, जो हर स्थिति-परिस्थिति को दिखावटी-बनावटी रूप में पेश करता है। हर त्योहार के महत्व को कुछ शब्दों के संदेश में समेटता जा रहा है, जबकि संदेश का हर एक शब्द भावना विहीन होता जा रहा है, आधुनिक होती दुनिया की यही सच्चाई है। वरना हजारों हजार मित्र सोशल मीडिया पर होने के बावजूद इंसान तन्हा नहीं होता। घर में जीवित लोगों के बीच बैठकर निर्जीव खिलौने से खेल न रहा होता।
इसके पीछे दिखावे की प्रवृत्ति हावी होती मालूम पड़ती है क्योंकि आधुनिकता के दौर में हर कोई आगे निकलने की होड़ में है, एक दौर था, जब हर एक त्योहार पर अपने से बड़ों का पैर छूकर आशीर्वाद लेते थे, आज की पीढ़ी को तो जैसे पैर छूने में शर्म ही आती है, कभी हिम्मत जुटाकर या डर से किसी का पैर छूना भी पड़े तो उसके पहले अगडे़-पिछड़े और ऊंच-नीच का खयाल मन में आता है, जबकि आप जिस किसी का भी पैर छुएंगे, उसके दिल से आपके लिए दुआ ही निकलेगी, भले ही आपसे उसकी दुश्मनी ही क्यों न हो.
आजकल सभी त्योहारों का महत्व एक संदेश से अधिक कुछ नहीं रह गया है. शुभकामना संदेश भेजकर हम भी अपने कर्तव्यों से मुक्त हो जाते हैं. हमे याद है 2013 की बात है, दीपावली के मौके पर हमने भी मेल पर गिरीश उपाध्याय सर को शुभकामना संदेश भेजा था, तब संदेश के बाद हमने लिखा था कि सर हमे नहीं मालूम कि ये शुभकामनाएं देना कितना सही है क्योंकि आधुनिकता हमारे अधिकारों का क्षरण करती जा रही है. अब तो किसी त्योहार के मौके पर भी किसी बड़े का पैर छूकर आशीर्वाद लेने की परंपरा खत्म होती जा रही है, एक दौर था जब त्योहारों के बहाने बड़ों का आशीर्वाद लेने का मौका मिलता था, होली के दिन का खासतौर पर इंतजार रहता था, दो-चार साल में कभी एक बार होली घर पर मनाने का मौका मिलता था, उस दिन जो भी अपने से बड़ा मिला, भले ही वह नीची जाति का क्यों न हो, उसका पैर छूकर आशीर्वाद जरूर लिया. अब वह मौका भी हाथ से निकल चुका है.
फादर्स-डे पर सोशल मीडिया पर जितना प्यार उमड़ रहा है, यदि ये हकीकत होता तो पूरे देश में वृद्धाश्रमों की जरूरत नहीं पड़ती, लेकिन दुर्भाग्य है कि जितने मां-बाप अपने घरों में रहते हैं, उतने ही वृद्ध आश्रमों में रहने को मजबूर हैं क्योंकि जिन अनपढ़ मां-बाप की परवरिश के बलबूते बेटा अफसर बनता है, उसके बाद उसी मां-बाप को बात-बात पर वह पिछड़ा और फिजूल साबित करने पर लगा रहता है. भले ही मां-बाप अपने चार-छह बच्चों को पढ़ा लिखाकर काबिल बना देते हैं, लेकिन वही चार-छह बच्चे मिलकर मां-बाप का पेट नहीं भर पाते।
चार अक्षर अंग्रेजी बोलकर और छोटे कपड़े पहनकर हम खुद के आधुनिक होने का मुगालता पाल बैठे हैं, जबकि ये कपड़ों के साथ छोटी होती हमारी सोच की तस्दीक है. जब तुम दुनिया में आये थे, तब पहली बार उसी अनपढ़ में मां ने तुम्हे सबकुछ सिखाया था, जिन कंधों को तुमने बेसहारा छोड़ दिया, वही कंधे जब तुम नहीं चलते थे, या चलकर थक जाते थे, तब तुम्हारा भार उठाते थे।
इसके पीछे दिखावे की प्रवृत्ति हावी होती मालूम पड़ती है क्योंकि आधुनिकता के दौर में हर कोई आगे निकलने की होड़ में है, एक दौर था, जब हर एक त्योहार पर अपने से बड़ों का पैर छूकर आशीर्वाद लेते थे, आज की पीढ़ी को तो जैसे पैर छूने में शर्म ही आती है, कभी हिम्मत जुटाकर या डर से किसी का पैर छूना भी पड़े तो उसके पहले अगडे़-पिछड़े और ऊंच-नीच का खयाल मन में आता है, जबकि आप जिस किसी का भी पैर छुएंगे, उसके दिल से आपके लिए दुआ ही निकलेगी, भले ही आपसे उसकी दुश्मनी ही क्यों न हो.
आजकल सभी त्योहारों का महत्व एक संदेश से अधिक कुछ नहीं रह गया है. शुभकामना संदेश भेजकर हम भी अपने कर्तव्यों से मुक्त हो जाते हैं. हमे याद है 2013 की बात है, दीपावली के मौके पर हमने भी मेल पर गिरीश उपाध्याय सर को शुभकामना संदेश भेजा था, तब संदेश के बाद हमने लिखा था कि सर हमे नहीं मालूम कि ये शुभकामनाएं देना कितना सही है क्योंकि आधुनिकता हमारे अधिकारों का क्षरण करती जा रही है. अब तो किसी त्योहार के मौके पर भी किसी बड़े का पैर छूकर आशीर्वाद लेने की परंपरा खत्म होती जा रही है, एक दौर था जब त्योहारों के बहाने बड़ों का आशीर्वाद लेने का मौका मिलता था, होली के दिन का खासतौर पर इंतजार रहता था, दो-चार साल में कभी एक बार होली घर पर मनाने का मौका मिलता था, उस दिन जो भी अपने से बड़ा मिला, भले ही वह नीची जाति का क्यों न हो, उसका पैर छूकर आशीर्वाद जरूर लिया. अब वह मौका भी हाथ से निकल चुका है.
फादर्स-डे पर सोशल मीडिया पर जितना प्यार उमड़ रहा है, यदि ये हकीकत होता तो पूरे देश में वृद्धाश्रमों की जरूरत नहीं पड़ती, लेकिन दुर्भाग्य है कि जितने मां-बाप अपने घरों में रहते हैं, उतने ही वृद्ध आश्रमों में रहने को मजबूर हैं क्योंकि जिन अनपढ़ मां-बाप की परवरिश के बलबूते बेटा अफसर बनता है, उसके बाद उसी मां-बाप को बात-बात पर वह पिछड़ा और फिजूल साबित करने पर लगा रहता है. भले ही मां-बाप अपने चार-छह बच्चों को पढ़ा लिखाकर काबिल बना देते हैं, लेकिन वही चार-छह बच्चे मिलकर मां-बाप का पेट नहीं भर पाते।
चार अक्षर अंग्रेजी बोलकर और छोटे कपड़े पहनकर हम खुद के आधुनिक होने का मुगालता पाल बैठे हैं, जबकि ये कपड़ों के साथ छोटी होती हमारी सोच की तस्दीक है. जब तुम दुनिया में आये थे, तब पहली बार उसी अनपढ़ में मां ने तुम्हे सबकुछ सिखाया था, जिन कंधों को तुमने बेसहारा छोड़ दिया, वही कंधे जब तुम नहीं चलते थे, या चलकर थक जाते थे, तब तुम्हारा भार उठाते थे।
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