1981 में लावारिस
फिल्म के लिए...अंजान के लिखे गीत कब के बिछड़े हुए हम, आज कहां आ के मिले...इस
गाने की चंद लाइन महाराष्ट्र के सियासी मैदान में बिल्कुल सटीक बैठती है...महाराष्ट्र
में इसी साल 25 सितंबर को जब 25 साल पुरानी दोस्ती टूटी तो...महाराष्ट्र का सियासी
मैदान भी हैरत में पड़ गया...क्योंकि इस बार मुकाबला दोतरफा नहीं चौतरफा होने वाला
था...इस मुकाबले में भी बीजेपी सब पर भारी पड़ी...लेकिन बहुमत से महरूम रही...चुनाव
में जनता का दिल जीतने के लिए शिवसेना ने बीजेपी को अफजल खान की सेना बताकर हमला
बोला...इतना ही नहीं दामोदर दास की औकात तक आंकने लगे उद्धव...लेकिन नतीजों ने तो
उन्हे बैकफुट पर ला दिया...कहते हैं कि रस्सी जल जाती है पर बल नहीं जाता...वही
हाल शिवसेना का रहा...जनता ने सबक सिखाया फिर भी आंखें नहीं खुली...सदन में कभी
विपक्ष की कुर्सी पर बैठे...कभी सदन के बाहर हंगामा...कभी बहुमत पर सवाल उठाकर
अपना अलग रंग दिखाया...तो फड़नवीस सरकार ने भी खरी- खरी सुना दी...अंत में थक
हारकर शिवसेना को बीजेपी की बात माननी पड़ी और बिना डिप्टी सीएम के सरकार में
शामिल होना पड़ा...लेकिन इस दोस्ती में अब नया ट्वीस्ट आ गया है...और नया जोश भी है...लिहाजा
हर चुनाव में मिलकर कदम बढ़ाएंगे...क्योंकि अब बीजेपी अफजल खान की सेना नहीं
रही...और न ही श्राद्ध का कौवा...इसीलिए शिवसेना भी अब साथ है...अवसरवाद ही सियासत का दूसरा रूप है...और बिना अवसरवाद के
राजनीति का रंग फीका पड़ जाता है...शिवसेना अब अपने ही बुने जाल में फंस गयी
है...लेकिन अवसरवाद के कवच से शिवसेना ने खुद को बचा लिया..अब जनता को अफसोस होगा
कि ये जनता का भला कर रहे हैं...या खुद का भला कर रहे हैं...ये जो PUBLIC है
ये सब जानती है...फिर भी हर बार ठगी जाती है...क्या करेंगे साहब यही तो है जनता का
मुकद्दर...कि जागीर उनकी लेकिन मालिक कोई और बन जाता है..
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