राजस्थान विधान
सभा ने जिस तरह का ऐतिहासिक फैसला लिया है। उसे कहीं ना कहीं लोकतंत्र की जीत के
रूप में देखा जा सकता है। जो हमारे रहनुमाओं का स्वागत योग्य कदम है। लेकिन दूसरों के लिए कानून बनाने वाले वही रहनुमा अपनी
बारी आने पर उस तरह की शख्ती नही दिखाते हैं। तो क्या ये मान लिया जाए कि जनप्रतिनिधियों
की हुकूमत ही चलेगी। या उन्हे भी किसी कायदे कानून से गुजरने की जरूरत
है। विषेषाधिकार समिति की अवमानना की दोषी गांधी नगर थाना प्रभारी रत्ना गुप्ता को एक माह कठोर कारावास की सजा सुनाई है। जिसे राजस्थान विधानसभा के इतिहास का इकलौता और पहला मामला माना जा रहा है। लेकिन
वहां मौजूद अवमानना के हनन पर अपनी सहमति देने वाले हमारे कितने रहनुमा अपने दामन
को बचाने में कामयाब रहें है। ये तो वही हाल है कि दूसरों को नसीहत और खुद मियां
फजीहत। दरअसल 19 जुलाई 2010 को
विधानसभा की महिला एंव बाल कल्याण समिति अध्यक्ष सुर्यकान्ता व्यास गांधी नगर थाने
का औचक निरीक्षण करने पहुंची। तो रत्ना ने उन्हे कोई जानकारी नही दी। जिसकी शिकायत विधानसभा विषेषाधिकार समिति से की गई। समिति के समन के बाद गुप्ता
ने कोर्ट में चुनौती देने का रास्ता चुना। जो हमारे रहनुमा के लिए प्रतिष्ठा का सवाल बन गया। विधानसभा में पहली बार जैसी सख्ती दिखाते हुए अधिकारों का प्रयोग किया गया। ऐसे ही फैसले यदि दागी और दबंग रहनुमाओं पर लिया जाता। या खुद के लिए भी बनाया जाता। तो उसे बेहतर परिणाम के रूप में देखा जाता। लेकिन ऐसी कार्रवाई से किसी तरह के बदलाव के बजाय टकराव की आहट मिलती है। यानि रहेंगे वही ढाक के तीन पात ।
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