दीपावली यानी दीपों की
पंक्तियां दीवाली के दिन हर घर दीपों की पंक्तियों से शोभायमान रहता है
मोमबत्तियों और बिजली की रोशनी से घर का कोना-कोना जगमगाता है इसलिए दीपावली को
रोशनी के पर्व के नाम से भी जाना जाता है लेकिन बदलते परिवेश ने त्योहारों के रंग
को भी इस कदर बदल दिया है कि त्योहारों के रंग उनमें खोते जा रहे हैं यानि पहले की
दीवाली अब बीते जमाने की बात होती जा रही है। त्योहारों का नाम आते ही मन में
लड्डू फूटने लगते हैं बच्चे नए कपड़े पाने को आतुर दिखते हैं तो परिजन बजट बनाने
में मशगूल नजर आते हैं ग्राहकों को लुभाने के लिए बाजारों में नए नए उत्पाद अपना
जलवा बिखेरते हैं। आधुनिक दौर में त्योहारों पर बाजारों का रंग इस कदर चढ़ता जा
रहा है कि त्योहारों की मिठास घर के बजाय बाजारों पर निर्भर होती जा रही है।
दीपावली का नाम सुनते ही
दिल बागबाग हो जाता है रोशनी में नहाए शहर गांव और कस्बे बाजारों में सजी दुकानें
घरों में बनते पकवानों के साथ पटाखों की गूंज और इसी बहाने घरों की रंगाई पुताई
साफ सफाई दोस्त दुश्मन सभी को दीपावली की शुभकामनाएं देने का दौर जिसका इंतजार बड़ी
बेसबरी से हर हिंदुस्तानी करता था लेकिन ऐसा लगता है मानो ये बीते जमाने की बात हो
गयी है पाश्चात्य सभ्यता का रंग इनके रंग को फीका करता जा रहा है उपर से ये
त्योहार बाजारों तक सिमटते जा रहे हैं हर त्योहार में बाजार कारोबार का नया
रिकॉर्ड कायम करना चाहता है जिसके चलते बाजारों में खरीददारी के लिए उपहार और छूट
का बाजार भी गर्म हो जाता है।
एक ऐसा दौर था जब दीवाली
के दीदार का सबको इंतजार होता था ये दिन देश के सबसे बड़े त्योहार के रूप में
मनाया जाता था। हमारी संस्कृति में उत्सव और आनंद का महत्वपूर्ण स्थान है।
आचार्य रजनीश ने भारतीय समाज की प्रवृत्ति को समझाया था, कि उत्सव हमारी जाति है और आनंद
हमारा गोत्र। लेकिन पिछले कुछ सालों से हमारी उत्सवधर्मिता में काफी सारे बदलाव
नजर आने लगे हैं आत्मीय जुड़ाव का स्थान बाजार के कोलाहल ने ले लिया है। अब पास
पड़ोस के बजाय बाजार की गतिविधियां इस तरह के त्योहारों को ज्यादा प्रभावित करती
हैं। आज हमारे आसपास ऐसे हजारों लोग ये कहते हुए मिल जाएंगे कि दिवाली पर अब वो
आनंद नहीं रहा तो आखिर क्या हो गया हमारे आनंद को? किसकी
नजर लगी ऐसा क्या हो गया कि जो त्योहार आत्मीयता से सराबोर हुआ करते थे वे अब
मैकेनिकल हो गए हैं?
दीवाली के पकवानों की
तैयारी अब बाजारों पर निर्भर हो गई है आसपास के पर्यावरण को साफ सुथरा रखने के लिए
दीवाली के सफाई अभियान की अनिवार्यता भी खत्म होती दिख रही है। इसके लिए अभी
बाजार या सोशल मीडिया से कोई दिशा निर्देश जारी नहीं हुआ है। कुल मिलाकर हमारे त्योहारों
से आनंद...उल्लास...उत्सव और आत्मीयता का अंश हर साल कम होता जा रहा है। और
बाजार का दिखावा उसकी जगह काबिज होता जा रहा है। दीवाली के अच्छी तरह मनाने या
मनाए जाने का पैमाना भी अब बाजार ही हो गया है। फिर भले ही आपने घर में कितनी अच्छी
या मीठी गुझिया बनाए हो बाजार के आगे गुझिया की मिठास फीकी ही लगेगी।
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