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Monday, 1 October 2018

'चाणक्य' की बेरुखी बदल न दे चुनावी चाल! राहुल को सिंधिया-कमलनाथ पर ही ऐतबार?

भोपाल। मध्यप्रदेश में चुनावी बिगुल बजने भर की भले ही देर है. लेकिन, सत्ता पक्ष और विपक्ष चुनाव प्रचार की दुंदुभी बजा चुके हैं, 25 सितंबर को बीजेपी ने कार्यकर्ता महाकुंभ के जरिए शक्ति प्रदर्शन किया और चुनाव प्रचार का आगाज किया तो उसके ठीक एक दिन के अंतराल पर राम की तपोभूमि चित्रकूट में भगवान कामतानाथ से वनवास खत्म करने का राहुल गांधी ने आशीर्वाद मांगा.

दरअसल, कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने 27 सितंबर को मिशन विंध्य की शुरूआत की और दिन भर जमीनी थाह ली, रोड शो किये, जनसभा की, भीड़ भी खूब जुटी. जिसके लिए सिंधिया कमलनाथ ने जनता को थैंक यू भी बोला. लेकिन, इस भीड़ में एक चेहरा बहुत कम ही नजर आया, बस कांग्रेस की सबसे बड़ी परेशानी यही है कि वह अपने ही नेताओं को एक मंच पर लाने में कहीं न कहीं चूक जाती है, जिसका फायदा बीजेपी को मिल जाता है.

राहुल गांधी के दिन भर के कार्यक्रम में कांग्रेस के चाणक्य मंच पर दिखे. लेकिन, रथ पर नहीं, न ही दिग्विजय सिंह ने कोई ट्वीट किया न तो कोई तस्वीर शेयर की, जबकि प्रदेश अध्यक्ष कमलनाथ और चुनाव प्रचार समिति के अध्यक्ष ज्योतिरादित्य सिंधिया युवराज के दायें-बायें नजर आये. जिसकी वजह दिग्विजय सिंह की नाराजगी माना जा रहा है, अब नाराजगी की वजह तो कांग्रेस ही जाने, पर यही नाराजगी बीजेपी की खुशी में चार चांद लगा सकती है.

गौरतलब है कि इससे पहले 6 जून को जब राहुल गांधी मंदसौर गये थे, तब भी दिग्विजय की अनदेखी की गयी थी, उन्हें न तो भाषण देने का मौका मिला था और न ही राहुल के आस पास देखा गया था. हां, मंच पर उनकी उपस्थिति जरूर दिखी थी. पर राहुल के इर्द गिर्द सिंधिया और कमलनाथ साये की तरह मौजूद रहे, राहुल गांधी ने भी इस ओर ध्यान नहीं दिया, जबकि राहुल को भी इस बात को समझना पड़ेगा कि मुट्ठी बांधने के लिए पांचों उंगलियों को एकजुट करना होगा, यदि एक भी उंगली बगावत करती है तो फिर मुट्ठी के मायने बदल जायेंगे.

मध्यप्रदेश में सिंधिया का प्रभाव सिर्फ ग्वालियर-चंबल अंचल में माना जाता है, जबकि कमलनाथ सिर्फ छिंदवाड़ा तक ही सीमित हैं, विंध्य में अजय सिंह तो खरगोन में अरुण यादव का प्रभाव है, पर दिग्विजय सिंह का प्रभाव कमोबेश पूरे प्रदेश में माना जाता है. यही वजह है कि कांग्रेस जब तक अपने नेताओं को एक मंच पर नहीं ला पायेगी, तब तक चुनाव में बेहतर प्रदर्शन करना नामुमकिन है क्योंकि नेताओं की गुटबाजी का नतीजा कार्यकर्ताओं पर भी पड़ता है और कार्यकर्ता भी खेमों में नजर आते हैं.

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