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Friday 8 May 2020

Lockdown: निवाले को प्याले पर शिफ्ट करने के लिए खोले गए ठेके!

आंखों से न दिखने वाला छोटा सा वायरस पूरी दुनिया को दिन में तारे दिखा रहा है, इस वायरस के सामने दुनिया की बड़ी से बड़ी ताकत घुटने टेक चुकी हैं, पूरी दुनिया में अब तक करीब 276863 लोगों की जान कोरोना वायरस ले चुका है, जबकि 3937813 लोग इसकी चपेट में हैं, इसके अलावा बिना किसी ऊर्जा के ये दिन-रात सरपट दौड़ रहा है, इस वायरस ने दुनिया के ज्यादातर हिस्सों को खुली जेल बना दिया है, इसी वायरस ने न केवल पूरी दुनिया का गुरुर तोड़ा है, बल्कि विज्ञान और तकनीक के सामने भी बड़ी चुनौती खड़ी कर दी है।

भारत में करीब 59662 लोग कोरोना वायरस की चपेट में हैं, जबकि 1981 मरीजों की जान जा चुकी है, हालांकि 130 करोड़ की आबादी वाले हिंदुस्तान ने सतर्कता तो बरती, पर कुछ निजी स्वार्थ के चक्कर में इस वायरस को यहां फलने फूलने का मौका मिल गया क्योंकि सरकार कोरोना वायरस से निपटने के लिए उचित इंतजाम करने की बजाय वाहवाही लूटने में लगी और इसका ठीकरा दूसरों के सिर पर फोड़ने की सोचती रही और अपनी कमजोरी को छिपाने के लिए इसकी टोपी उसके सिर उसकी टोपी इसके सिर पहनाती रह गई।

पहले तो सरकार विदेशों में फंसे भारतीयों को वापस ले आई और उनको मामूली चेकअप के बाद छोड़ दिया गया, जिसके चलते संक्रमण का प्रसार शुरू हुआ, इस बीच निजामुद्दीन मरकज में बड़ी संख्या में जमा जमातियों के संक्रमित होने और अन्य राज्यों में संक्रमण के संवाहक बनने की खबरें सुर्खियों में रही, यहां तक कि सरकार के हर प्रेस कॉन्फ्रेंस में अलग से जमातियों का जिक्र किया जाने लगा, मीडिया भी कोराना से निपटने की तैयारियों पर चर्चा न करके जमातियों पर इस कदर टूट पड़ी, जैसे बारात में फेंके गए खाने पर कुत्ते टूट पड़ते हैं। शायद उनको लगता हो कि जमातियों के सिर पर कोरोना फैलाने का ठीकरा फोड़ देने से कोरोना डरकर भाग जाएगा।

इसके बाद सरकार मजदूरों को घर वापस लाने की तैयारी करने लगी, इसके लिए श्रमिक स्पेशल ट्रेनें भी चलाई, जो ऊंट के मुंह में जीरा साबित हुई, बल्कि मजदूरों के लिए और परेशानी ही बढ़ गई क्योंकि इतनी जटिल प्रक्रिया को पूरा करना अनपढ़ मजदूरों के लिए आसान नहीं है, जिसके चलते मजदूर हजारों मील पैदल साइकिल या ट्रेन की पटरी पर भी चलने से गुरेज नहीं कर रहे हैं, जिस ट्रेन पर मजदूरों को चढ़ने से सरकार ने रोक दिया, वही ट्रेन औरंगाबाद में मजदूरों के ऊपर से चढ़कर गुजर गई, जिसमें 16 मजदूरों की मौके पर ही मौत हो गई और ट्रैक पर छोड़ गए भूख की निशानी, खून लगी रोटी और खून के साथ बिखरी चटनी।

लॉकडाउन के करीब 40 दिन बाद सरकारें जागी और वादों की ट्रेनें-बसें मजदूरों को उनकी मंजिल तक पहुंचाने के लिए दौड़ने लगी, पर शर्तें इतनी कठिन जोड़ दी गईं, जिससे पार पाना इनके लिए आसान नहीं था, इससे बचे तो किराये का इंतजाम करना भारी पड़ रहा था, लिहाजा सिर पर गरीबी की गठरी लिए भूख नंगे पांव दिन रात चलती जा रही है, न बदन पर पड़ती चिलचिलाती धूप उसका रास्ता रोक पा रही है, न हुक्मरान, न प्रशासन। भूख है तो सब्र कब तक करता और फिर मौत से वो डरे भी क्यों? मरना तो उसे है ही वजह चाहे भूख हो या कोरोना वायरस, उसे क्या फर्क पड़ता है।

ऐसा लगता है सरकार इस मामले में कोई भी जिम्मेदारी अपने ऊपर नहीं लेना चाहती है, 40 दिन बाद सरकार सोच पाई कि मजदूरों को उनके घर वापस भेजना चाहिए, रोटी के लिए मजदूर आए दिन सड़क पर संग्राम कर रहे थे, जिससे संक्रमण का खतरा बढ़ने की आशंका थी। अब सरकार आर्थिक नुकसान का हवाला देकर शराब के ठेके खुलवा दी, इससे एक तो मोटा राजस्व आएगा, दूसरे ट्रोलर इस बात को प्रचारित करेंगे कि शराब के लिए पैसे हैं तो रोटी के लिए क्यों नहीं, जैसा कि अभी हो भी रह है। इससे सरकारों की जिम्मेदारी पर उठने वाले सवाल हल्के हो जाएंगे और सरकार आसानी से निवाले को प्याले पर शिफ्ट कर सकती है।

क्या सरकार को ये नहीं पता था कि लॉकडाउन इतना लंबा खिंचने वाला है, इसके बावजूद सरकार मजदूरों को आश्वासन का घूंट देकर रोके रखी, सरकारी इंतजाम भी किए गए, पर को नाकाफी साबित हो रहे थे, जबकि चाहिए ये था कि धीरे-धीरे सरकार मजदूरों को उनके घर वापस पहुंचा देती, लेकिन सरकार को डर था कि मजदूर एक बार घर चले गए तो वापस नहीं आएंगे, इसलिए भी मजदूर जहां थे, वहीं पर रोके रखा गया, लेकिन मजदूरों का सब्र तब जवाब देने लगा, जब लॉकडाउन में फंसे नवाबजादों को सरकारें निकालने लगी, तब मजदूरों के बागी तेवर सरकारों को परेशान करने लगी और मजबूरन उन्हें घर भेजने का इंतजाम करना पड़ रहा है, पर ये इंतजाम भी हाथी का दांत साबित हो रहा है।

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