Saturday 16 February 2019

'40 के बदले 400 लाशें-भितरघतियों के 4000, भले ही एक वक्त की रोटी कम कर दो'

पुलवामा। 14 फरवरी तारीख पर दर्ज वो काला दिन है जिसे याद कर हर देशभक्त का खून खौल उठेगा, बार-बार गद्दार पड़ोसी से हम दोस्ती का हाथ बढ़ाते हैं और वो कमीना पीछे से पीठ पर वार करता है, उरी के बाद पुलवामा में हुए आतंकी हमले ने हर देशवासी के खून की गर्मी को बढ़ा दिया है, तिरंगे में लिपटे भारत मां के 40 सपूतों को देखकर भला किसका दिल नहीं पसीजा होगा, पर कुछ आस्तीन के सांप ऐसे हैं, जिनके चेहरे पर खुशी दिख रही है, पर अब समय आ गया है पाकिस्तान से पहले इन गद्दारों को जन्नत भेजना होगा क्योंकि ये गद्दार नहीं होंगे तो पाकिस्तान खुद ही अपाहिज हो जायेगा, भीख के टुकड़ों पर पलने वाला ये गद्दार मुल्क जो अपनी अवाम का भी पेट नहीं भर पाता, उसकी क्या बिसात जो भारत जैसी महाशक्ति से टकराये. जितनी बार टकराया है उतनी बार अंजाम पाया है, शिमला समझौता न हुआ होता तो आज इसका नामोनिशां न होता, 90 हजार सैनिकों का आत्मसमर्पण हो या पाकिस्तान के दो टुकड़े करना, लेकिन इस कमबख्त का टूटकर भी गुरूर नहीं गया. उरी के बाद भारतीय सेना ने सर्जिकल सट्राइक किया, लेकिन इस बार सर्जिकल स्ट्राइक पाकिस्तान से पहले कश्मीर में करना होगा और यहां की खाकर वहां का गुणगान करने वाले गद्दारों को हूरों के पास भेजें.

इस हमले ने दिल को अंदर तक झकझोर दिया है, समझ नहीं आता कि इस कायराना तांडव के बाद कैसे मां भारती के वीरों की मिट्टी को समेटा गया होगा, कैसे उन्हें तिरंगे में लपेटा गया होगा और कैसे उनके घरवालों को संतोष हुआ होगा, जो बचपन से अपने सीने से लगाकर पाली थी वो मां कैसे अपने लाल की मिट्टी से लिपटी होगी क्योंकि जिस बस में विस्फोटक भरी कार टकरायी थी, सिर्फ उसमें ही एक ड्राइवर को लेकर चालीस जवान थे, धमाके के बाद उनके जिस्म के चीथड़े उड़ गये, न तो उन्हें संभलने का मौका मिला, न ही जवाबी कार्रवाई के लिए संभलने का वक्त, लेकिन भारत सरकार के पास जवाब देने के लिए मुकम्मल वक्त है और संसाधन भी.

इस हमले के वक्त हमने अपने आसपास गद्दारों की हंसी को महसूस किया, कहने के लिए मीडिया में सवर्णों का वर्चस्व है, मीडिया संस्थानों पर बनियो का कब्जा है, लेकिन ये दावे सफेद हाथी से कम कुछ भी नहीं है और बस खुश रहने के लिए ये ख्याल अच्छा है. जिस वक्त हमने खुद अपने कानों से जवानों के शहीद होने का एनाउंसमेंट सुना, क्रोध पर अचानक 42 डिग्री का देसी नशा चढ़ गया, दिल किया कि क्यों न नौकरी छोड़कर बागी बन जाऊं और चुन चुनकर इन गद्दारों को मौत के घाट उतार दूं, लाला लाजपत पाय, वीर सावरकर, भगत सिंह, सुभाष चंद्र बोस, चंद्रशेखर आजाद, रामप्रसाद बिस्मिल जैसे नौजवानों ने बगावत नहीं की होती तो आज ये कमीने आजादी और अधिकार की बात नहीं कर रहे होते, बल्कि अंग्रेजों के बूट अपनी थूक से साफ कर रहे होते.

खासकर जो उच्च शिक्षित वर्ग है, उनकी सोच-समझ पर तरस आता हैं ये गद्दार इतना पढ़ लिखकर खुद को प्रबुद्ध मानते हैं और जिनके खून पसीने की कमाई से ये कमीने खुद को प्रबुद्ध बना पाते हैं, उन्हीं की पीठ में छुरा घोंपते हैं.  स्टूडियो में बैठे एंकर भी इस हमले में बराबर के दोषी हैं और जितना दोष सरकार का है, उतना ही दोष सीआरपीएफ के वरिष्ठ अधिकारियों का भी है जिन्होंने इंटेलिजेंस की चेतावनी को नजरअंदाज किया, जिसकी वजह से 40 जवानों को बिना दुश्मन का सीना छलनी किये ही मां भारती के रज में मिल जाना पड़ा क्योंकि पहली गलती तो उस वक्त हुई, जब खुफिया चेतावनी को वरिष्ठ अफसरों ने नजर अंदाज किया वो भी उस समय जब एक साथ सीआरपीएफ के 2547 जवान मूव कर रहे थे, इसे लापरवाही नहीं कहा जा सकता बल्कि, इसे सीधे-सीधे अधिकारियों द्वारा 40 जवानों को मौत के मुंह में धकेलना हुआ, जबकि जो जवान अभी अस्पताल में जिंदगी की जंग लड़ रहे हैं, उनमें से कितने दोबारा देश की रक्षा में तैनात रह पाते हैं, इस पर भी संदेह है.

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