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Saturday 11 July 2020

इंसानी बस्ती में जानवरों में बसती इंसानियत, कोरोना ने हटाई झूठ की स्याह परत

आधुनिक होते समाज में रिश्तों की अहमियत कम होती जा रही है, बल्कि अब जरूरत के रिश्ते गढ़े जाने लगे हैं, अब दूर के रिश्ते हो या करीब के, सभी जरूरत पूरी होने के साथ ही खत्म हो जाते हैं। कहते हैं हर इंसान को अपनी जान सबसे ज्यादा प्यारी होती है, संपन्नता मित्रता और रिश्ते बढ़ाती है पर विपदा उसकी परख करती है, पर रिश्ते और मित्रता में एक अंतर होता है कि मित्र बदलने की गुंजाइश हमेशा बनी रहती है, जबकि रिश्ते बदलने की कोई गुंजाइश नहीं होती है, ठीक उसी तरह जैसे चाहकर भी आप अपना पड़ोसी नहीं बदल सकते।

साल 2019 के आखिरी महीने में जब कोरोना वायरस का नाम सुनाई पड़ा था, तब किसी को ये आभास नहीं था कि ये महामारी बनकर एक दिन पूरी दुनिया को अपनी अंगुली पर नचाएगा, पर ये वायरस अब तक लाखों जिंदगियों को मौत की नींद सुला चुका है, करोड़ों लोग इसके संक्रमण से जूझ रहे हैं, जबकि दुनिया का हर इंसान इस बीमारी के खौफ में जी रहा है। इस महामारी ने अच्छे-खासे रिश्तों को भी जब विश्वास की कसौटी पर कसा तो पूरा सोना पीतल हो गया। जो फकीर थे उन्हें कौन पूछता, पर जो अमीर थे, उनकी भी अहमियत फकीर जैसी ही हो गई।

महामारी के इस दौर में अपना कोई नहीं रहा क्योंकि एक पत्रकार होने के नाते ढेरों खबरों से रोजाना सामना होता है, पर इस खबर ने अचानक से अंदर तक झकझोर दिया। इंसान इतना भी स्वार्थी हो सकता है क्या? जिसने परिवार के लिए पूरी जवानी खपा दी। पाई-पाई जोड़कर बच्चों को काबिल बनाया और बच्चे भी बच्चों के बाप बन गए, एक समय में इनकी भी परिवार में बड़ी पूछ परख थी क्योंकि हर महीने उनको करीब ₹50000 पेंशन मिलती थी, यही वजह थी कि उनसे पूछे बिना घर का पत्ता भी नहीं हिलता था, यानी कि बच्चे बीवी बहू सब इतने संस्कारी थे कि हर काम उनसे पूछकर ही किया करते थे, सब कुछ ठीक चल रहा था, बुढ़ापे के दिन भी अच्छे से कट रहे थे, तभी एक तूफान आया और झूठ के साथ दिखावे को भी अपने साथ उड़ा ले गया और जब झूठ का पर्दा हटा तो उसे अपनी आंखों पर भी यकीन नहीं हो रहा था

पर जो सच होता है, उसे ज्यादा वक्त तक नजर अंदाज करना संभव नहीं रहता है। हां, उस पर कुछ समय के लिए पर्दा जरूर डाला जा सकता है। और उसमे दिखे कोरोना के लक्षण ने उसे अचानक से तन्हा कर दिया। जो दिन भर उनके इर्द-गिर्द घूमा करते थे, वे सभी अब बहुत दूर किसी अजनबी की तरह खड़े थे, उसके पास कोई था तो कुछ सियाचिन में ड्यूटी करने वाले सेना के जवानों जैसे लिबास में कुछ स्वास्थ्यकर्मी थे, जिनके पास एक वाहन भी था, जिससे मरीजों को अस्पताल ले जाया जाता है और अगर इलाज के दौरान मरीज की मौत हो जाती है तो उसके शव को श्मशान पहुंचाने के भी काम यह वाहन आता है। थोड़ी ही देर में स्वास्थ्यकर्मी उसे उसी वाहन में बैठाकर गेट बंद कर दिए, उसके साथ उसकी कुछ जरूरत की चीजें भी रख दी गईं।

अभी एंबुलेंस वहां से गई भी नहीं थी कि परिवार के लोग उस जगह की साफ-सफाई में लग गए, जिस कमरे में वह रहता था ,परिवार के एक भी सदस्य का ध्यान न तो उसकी तरफ था और न ही किसी को उसकी फिक्र थी, वह सोच रहा था कि एक बीमारी ने उसे इस कदर तनहा कर दिया कि जो उसके अपने थे वह भी गैरों जैसा सुलूक करने लगे, दूर से उसे खाना देना, खिड़की से उसे खाना देना या दूर से फेंककर या दूर से धकेल करके देना, ये सारी बातें उसके दिल-दिमाग में गूंजती रही, उसे यह बात समझ में आ गई कि उसकी फिक्र करने वाला अब यहां कोई नहीं है।

हालांकि, उसकी फिक्र करने वाला वहां पर सिर्फ उसका कुत्ता था, जो एकटक उसे ही देखे जा रहा था उदास और आस भरी नजरों से, इस बीच कुछ ही देर में एंबुलेंस अस्पताल की ओर रवाना हो गई, लेकिन जब तक वह एंबुलेंस में बैठा रहा, तब तक सोचता रहा कि उसके कमरे आदि को इस तरह शुद्ध किया जा रहा है, जैसे न जाने वहां कितने जन्मों का पाप जमा हो, यह नजारा देख मन ही मन सोचने लगा कि हम किस और किन लोगों के लिए अपनी खुशियों से समझौता करते रहे, इससे तो अच्छा मैं अकेला ही होता तो बेहतर होता, पर इस कुत्ते को आज भी मुझसे कितना प्यार है, नि:स्वार्थ लगाव है, जबकि यह तो हमारी संपत्ति का वारिस भी नहीं है, उसकी संपत्ति के असली वारिस तो उसकी बीवी-दो बेटे और बहुएं हैं, जिनमें आगे चलकर उसकी संपत्ति बंट जानी थी, बीमारी के पहले तक बहुएं भी इतनी संस्कारी थी कि खाना भी उनकी पसंद पूछकर ही बनाती थी।

उसकी समाज में भी खूब इज्जत थी, अमीरी और रसूख का, पर एक बीमारी ने रेत पर बनी मीनार को एक झटके में ही जमींदोज कर दिया, वो मन ही मन सोच रहा था कि काश ज्यादा बेहतर होता जो इंसानों के बदले जानवरों को पाल लेता क्योंकि उसे यह बात समझ में आने में बहुत देर लग गई कि जिस इंसानों की बस्ती में रहता है, वहां इंसानियत का कोई मोल नहीं है, कहने के लिए यह समाज इंसानों का है, लेकिन यहां जानवरों से भी बदतर इंसान पाए जाते हैं।

खैर! आंखों में आंसू लिए एंबुलेंस में बैठा रहा और उसके अरमानों पर बाल्टी बाल्टी पानी भर कर फेंके जा रहे थे, जो उसकी आंखों से उसका तिरस्कार बनकर बहे जा रहे थे। इस दृश्य को देख वह न जाने किस दुनिया में खो गया कि उसे पता ही नहीं चला कि वह कब अस्पताल पहुंच गया।

अस्पताल में करीब 15 दिन तक इलाज चला और जब वह अस्पताल से घर लौटा तो बीमारी से पूरी तरह ठीक हो चुका था, पर उसके मन में जो घाव हुआ था, उसका इलाज किसी भी डॉक्टर के पास नहीं था, घर पहुंचकर वह अपने सर्वेंट रूम में गया और वहां से कुछ सामान लिया और फिर बाहर जाने लगा, तभी बीवी-बच्चों ने पूछा कि आप कहां जा रहे हैं, पर किसी ने न तो हाल पूछा और न रोकने की कोशिश की। पर वह फिर वहां रुका भी नहीं। जाते हुए उसके साथ सिर्फ उसका कुत्ता था, जिसकी डोर वो अपने एक हाथ में पकड़े हुए था, जो कुछ देर में लौटकर आने की बात कहकर निकला, पर आज तक लौटकर उस घर नहीं आया। वह वहां से न जाने कितनी दूर चला गया कि अब उसकी आहट भी नहीं सुनाई पड़ती है।

इस तरह कोरोना वायरस ने सच्चे रिश्तों पर पड़ी स्वार्थ और दिखावे की स्याह परत को हटाया जो बदनुमा दृश्य दिखा वो किसी की भी रूह कंपाने के लिए काफी था, जैसे कितना भी खूबसूरत बदन हो, पर एक बार खाल उतार जाए तो उस शरीर को देखकर कोई भी डर सकता है। उसी तरह इस कहानी में एक बात तो साफ हो गई है कि इंसानी बस्ती में भी इंसानियत नहीं बसती है, जबकि जानवरों में आज भी इंसानियत बाकी है जो नासमझ और मूक होकर भी इंसानों से ज्यादा समझदार और वाचाल है।

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