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Sunday, 23 June 2019

जिसे हम तरक्की समझते हैं वही असल गुलामी-लाचारी

सुबह नींद खुलते ही मोबाइल उठाया और निर्जीव खिलौने के साथ खेलने लगा, सोचा अभी चार्ज में लगाएगा, पर जैसे ही चार्जिंग पॉइंट से मोबाइल को कनेक्ट किया, बत्ती गुल हो गयी. जब तक मोबाइल चला, तब तक उससे खेलता रहा, लेकिन जैसे ही वह खिलौना शांत हुआ, वह बेचैन हो उठा, बिजली का इंतजार करने लगा और बिजली विभाग को कोसने लगा. बेचैनी में वह हॉल से कमरे में और कमरे से हॉल में फिर हॉल से बाहर गैलरी में चक्कर काटता रहा क्योंकि ऑफिस जाने का समय भी हो रहा था, लेकिन समय का सही अंदाजा उसे नहीं लग पा रहा था.

बिजली आने के इंतजार में वह पड़ा रहा, थोड़ी देर बाद बाहर निकला, इस उम्मीद में कि शायद कोई मिल जाये, जिससे वह समय पूछ ले. पहली बार उसे लगा कि तकनीक ने उसे किस कदर अपाहिज बना दिया है. एक समय था जब न घड़ी की जरूरत थी, न मोबाइल की क्योंकि तब सूरज की रोशनी से पड़ती परछाईं देखकर अंदाजा लग जाता था कि कितना समय हो रहा होगा, लेकिन बढ़ती तकनीक ने पुराने नुस्खों को पुराना कर दिया और उसकी जगह नई तकनीक ने ले ली. इंसान जितनी चाहे तरक्की कर ले, लेकिन प्रकृति की बनाई चीजों का मुकाबला नहीं कर सकती.

तकनीक ने चीजों को जितना आसान किया है, उससे कहीं ज्यादा मुश्किलें खड़ी कर दी है, जिस इंटरनेट को दुनिया तरक्की का पैमाना मान रही है, उसने कामयाबी तो दिलाई, लेकिन युवा पीढ़ी को पूरी तरह बर्बाद कर गयी है. आज की पीढ़ी के सबसे करीब इंटरनेट युक्त मोबाइल है. नींद की गहरी झपकी आने तक और नींद खुलने के तुरंत बाद सबसे पहले मोबाइल पर हाथ जाता है, कई बार तो इंसान नींद में भी मोबाइल को ही टटोलता रहता है. देश के जाने माने उद्योगपति दिवंगत धीरू भाई अंबानी ने हर हाथ मोबाइल पहुंचाने का सपना देखा था, जिसे उन्होंने पूरा भी किया, लेकिन उनके बेटे मुकेश अंबानी ने तो जियो देकर जैसे युवा पीढ़ी को चरस का नशा ही दे दिया है.

बूढ़े, जवान, महिला, पुरुष के अलावा छोटे बच्चे भी मोबाइल के आदी होते जा रहे हैं, जो बच्चा एक साल का है, वह भी मोबाइल पाकर चुप हो जाता है, या तो मोबाइल में चलते चित्र या उससे निकलती ध्वनि को सुनकर वह खुश हो जाता है. कई बार तो बच्चे मोबाइल के बिना चुप ही नहीं होते. इस तकनीक का युवा पीढ़ी पर कितना बुरा असर पड़ रहा है, इसका अंदाजा भले ही अभी किसी को नहीं लग रहा, लेकिन आने वाली पीढ़ी मोबाइल-इंटरनेट की एडिक्ट होकर ही पैदा होगी.

अब बच्चों में खेलकूद से इतर वीडियो गेम और मोबाइल गेम का चस्का लगता जा रहा है और तकनीक उनके लिए लुभावना बाजार भी तैयार कर रहा है. किसी भी शहर के किसी भी मॉल में आप चले जाइये, आपके बच्चों को लुभाते बाजार नजर आ जायेंगे और आपको न चाहते हुए भी अपने बच्चों के लिए ऐसी बाजार का भोगी बनना पड़ेगा. बचपन में खेलकूद से शरीर चुस्त-फुर्त रहता था, पर अब तकनीक ने हर किसी को इस कदर आलसी बना दिया है कि कोई भी एक झटके से टूट सकता है.

इसी बाजारवाद के चलते आत्महत्या के मामले भी बढ़ रहे हैं. अब न तो वो आत्मविश्वास है और न ही वो मजबूती, जो विषम परिस्थितियों में भी खुद को खड़ा रखने की ताकत देती थी, रही सही कसर बाजार पूरी कर दे रहा है, कई बार मन माफिक चीजें नहीं मिलने या दोस्तों से बराबरी करने के चक्कर में ऐसे कदम उठाने की बात सामने आती रहती है. कुल मिलाकर तकनीक ने चीजों को जितना आसान किया है, इंसान को उतना ही कमजोर, बेबस और लाचार बना दिया है, यही वजह है कि जिसे हम तरक्की समझ बैठे हैं, वही असल में गुलामी है. इसी बाजारवाद ने पूरी दुनिया को गुलाम बना लिया है.

Sunday, 16 June 2019

पितृ दिवस: दिखावा नहीं मां-बाप को बच्चों का असली प्यार चाहिए

बढ़ती तकनीक के साथ साथ इंसान भी कितना तकनीकी होता जा रहा है, जो हर स्थिति-परिस्थिति को दिखावटी-बनावटी रूप में पेश करता है। हर त्योहार के महत्व को कुछ शब्दों के संदेश में समेटता जा रहा है, जबकि संदेश का हर एक शब्द भावना विहीन होता जा रहा है, आधुनिक होती दुनिया की यही सच्चाई है। वरना हजारों हजार मित्र सोशल मीडिया पर होने के बावजूद इंसान तन्हा नहीं होता। घर में जीवित लोगों के बीच बैठकर निर्जीव खिलौने से खेल न रहा होता।

इसके पीछे दिखावे की प्रवृत्ति हावी होती मालूम पड़ती है क्योंकि आधुनिकता के दौर में हर कोई आगे निकलने की होड़ में है, एक दौर था, जब हर एक त्योहार पर अपने से बड़ों का पैर छूकर आशीर्वाद लेते थे, आज की पीढ़ी को तो जैसे पैर छूने में शर्म ही आती है, कभी हिम्मत जुटाकर या डर से किसी का पैर छूना भी पड़े तो उसके पहले अगडे़-पिछड़े और ऊंच-नीच का खयाल मन में आता है, जबकि आप जिस किसी का भी पैर छुएंगे, उसके दिल से आपके लिए दुआ ही निकलेगी, भले ही आपसे उसकी दुश्मनी ही क्यों न हो.

आजकल सभी त्योहारों का महत्व एक संदेश से अधिक कुछ नहीं रह गया है. शुभकामना संदेश भेजकर हम भी अपने कर्तव्यों से मुक्त हो जाते हैं. हमे याद है 2013 की बात है, दीपावली के मौके पर हमने भी मेल पर गिरीश उपाध्याय सर को शुभकामना संदेश भेजा था, तब संदेश के बाद हमने लिखा था कि सर हमे नहीं मालूम कि ये शुभकामनाएं देना कितना सही है क्योंकि आधुनिकता हमारे अधिकारों का क्षरण करती जा रही है. अब तो किसी त्योहार के मौके पर भी किसी बड़े का पैर छूकर आशीर्वाद लेने की परंपरा खत्म होती जा रही है, एक दौर था जब त्योहारों के बहाने बड़ों का आशीर्वाद लेने का मौका मिलता था, होली के दिन का खासतौर पर इंतजार रहता था, दो-चार साल में कभी एक बार होली घर पर मनाने का मौका मिलता था, उस दिन जो भी अपने से बड़ा मिला, भले ही वह नीची जाति का क्यों न हो, उसका पैर छूकर आशीर्वाद जरूर लिया. अब वह मौका भी हाथ से निकल चुका है. 

फादर्स-डे पर सोशल मीडिया पर जितना प्यार उमड़ रहा है, यदि ये हकीकत होता तो पूरे देश में वृद्धाश्रमों की जरूरत नहीं पड़ती, लेकिन दुर्भाग्य है कि जितने मां-बाप अपने घरों में रहते हैं, उतने ही वृद्ध आश्रमों में रहने को मजबूर हैं क्योंकि जिन अनपढ़ मां-बाप की परवरिश के बलबूते बेटा अफसर बनता है, उसके बाद उसी मां-बाप को बात-बात पर वह पिछड़ा और फिजूल साबित करने पर लगा रहता है. भले ही मां-बाप अपने चार-छह बच्चों को पढ़ा लिखाकर काबिल बना देते हैं, लेकिन वही चार-छह बच्चे मिलकर मां-बाप का पेट नहीं भर पाते।

चार अक्षर अंग्रेजी बोलकर और छोटे कपड़े पहनकर हम खुद के आधुनिक होने का मुगालता पाल बैठे हैं, जबकि ये कपड़ों के साथ छोटी होती हमारी सोच की तस्दीक है. जब तुम दुनिया में आये थे, तब पहली बार उसी अनपढ़ में मां ने तुम्हे सबकुछ सिखाया था, जिन कंधों को तुमने बेसहारा छोड़ दिया, वही कंधे जब तुम नहीं चलते थे, या चलकर थक जाते थे, तब तुम्हारा भार उठाते थे।

Tuesday, 11 June 2019

एक शब्द भी अपने खिलाफ नहीं सुनने वाली बीजेपी इस पोस्टर पर अवार्ड देगी?

एक शब्द भी अपने खिलाफ बर्दाश्त नहीं कर पाने वाली बीजेपी इस पोस्टर पर अवार्ड देगी? किसी के दावे को दिखाने-बताने पर पत्रकारों को हथकड़ी लगवाने वाली बीजेपी एक महिला मुख्यमंत्री की गरिमा भंग करने पर कार्रवाई करेगी? महिला मुख्यमंत्री हो या साधारण नागरिक, इस तरह दबोचना और उसे प्रचारित करना महिला जाति का महिमामंडन है? समाज के ऐसे 'जानवरों' को जेल में जगह नहीं मिलने पर जंगल में छोड़ देना चाहिए?

जिस बात पर पत्रकारों की गिरफ्तारी की गयी है, उसमें किसी ने अपनी तरफ से कुछ जोड़ा नहीं है, बल्कि उस महिला की बात को ही आगे बढ़ाया है. महिला ने कथित तौर पर खुद को मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से प्रेम संबंध होने का दावा किया था, साथ ही ये भी कहा था कि पिछले एक साल से वह वीडियो कॉलिंग के जरिये योगीजी से बात कर रही है, लेकिन अब वह उनसे मिलकर अपनी बात कहना चाह रही थी, जिसके लिए उसने सीएम से मिलने की अनुमति भी मांगी थी.


हालांकि, योगीजी के चरित्र पर किसी को संदेह नहीं हो सकता है, लेकिन महिला किन परिस्थितियों में मीडिया के सामने आयी, क्या उसकी मानसिक स्थिति ठीक नहीं है, या किसी के उकसावे या बहकावे में आकर उसने ऐसा किया, इस बात की जांच करने की बजाय उत्तर प्रदेश सरकार और पुलिस उस वीडियो को शेयर करने वालों पर शिकंजा कसने लगी, जबकि योगीजी को भी इस साजिश की जांच करानी चाहिए कि कहीं उनके अपने ही तो नहीं उनकी पीठ में छुरा घोंपने में लगे हैं.

ये कोई नई बात नहीं है, ऐसे आरोपों से कम लोग ही बच पाते हैं, कुछ समय पहले ही कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी पर भी एक महिला ने आरोप लगाया था कि राहुल ने उससे शादी करने का आश्वासन दिया था और वह उनसे शादी करके घर बसाना चाहती थी, राहुल गांधी के बच्चे की मां बनना चाहती थी, ये खबर मीडिया की सुर्खियां बनीं, सोशल मीडिया को तो मानो खजाना ही मिल गया था, लेकिन इस खबर पर किसी ने आपत्ति नहीं जताई। मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह की निजी तस्वीरें किसने शेयर की, पर इन सबसे किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि सत्ता के आगे किसी का आत्मसम्मान मायने नहीं रखता।

कहते हैं जाकी पांव न फटी बिवाई सो का जाने पीर पराई। सोनिया गांधी को बार डांसर, मायावती को वैश्या, नेहरू को अय्याश, गांधी को देशद्रोही बताने वाले कौन लोग हैं, क्या सरकार को ऐसे लोगों के खिलाफ कार्रवाई नहीं करनी चाहिए, या शासन को अपने अलावा और किसी के आत्म सम्मान की चिंता नहीं है। यदि पहले ऐसे आरोपों पर कार्रवाई हुई होती तो आज कोई भी इस वीडियो को शेयर करने की हिम्मत नहीं करता. पर ऐसा संभव इसलिए नहीं था क्योंकि ये लोग सत्ता में नहीं थे, अभी हाल ही में बीजेपी की महिला कार्यकर्ता ने पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का मीम शेयर किया था, जिसके चलते उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया था. तब कौन चिल्ला रहा था।


योगी के चरित्र पर किसी को शक नहीं है और होना भी नहीं चाहिए, लेकिन पिछले कुछ सालों में जिस तरह के खुलासे हुए हैं, उससे किसी बात को कोई आसानी से गले नहीं उतार सकता. चाहे आसाराम हों, या उनके बेटे नारायण साईं, राम रहीम हों या रामपाल, सिर्फ इनके नाम का जिक्र करने भर की देरी है, इसके बाद हर किसी के जेहन में इनके कारनामों का काला चिट्ठा हवा में तैरने लगेगा, सत्ता में रहने पर सबने इस तरह की पाबंदी लगाई और विपक्ष में रहने वाला ऐसी कार्रवाई को तानाशाही और आवाम की आवाज दबाने वाली कार्रवाई बताता है, जबकि सत्ता में आने के बाद वह भी वही करता है. यूपीए की सरकार में भी नेहरू का कार्टून बनाने के चलते असीम त्रिवेदी को गिरफ्तार किया गया था।


कई बार ऐसा लगता है कि धर्म की आड़ में अधर्म का ही व्यापार चल रहा है, मंदिर-मस्जिद, चर्च जैसी धार्मिक इमारतें अधर्म का अड्डा बन गयी हैं और उनके संरक्षक पंडित, मौलवी, पादरी बन गये हैं, जिनके संरक्षण में ये व्यापार दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की कर रहा है और हर मुद्दे को धर्म का चोला ओढ़ा दिया जा रहा है। पिछले कुछ सालों से ऐसा ही हो रहा है, हर जख्म पर धर्म का रंग चढ़ाया जा रहा है, हर घटना को हिन्दू-मुसलमान बनाया जा रहा है. बस मानवता का रंग छोड़कर बाकी हर रंग समाज में  बहुतायत में उपलब्ध है।

Sunday, 9 June 2019

पहली ही मुलाकात में बना दिया कर्जदार?

वह शाम भी कितनी हसीन थी, मैं भी बहुत उत्साहित था क्योंकि एक दोस्त से मुलाकात जो होनी थी। घड़ी पर बार-बार नजरें टिकती और मैं जल्दी-जल्दी समय बीतने का इंतजार करता, पर समय तो जैसे बीत ही नहीं रहा था। हालांकि, कुछ देर बाद इंतजार खत्म हुआ और दोस्त से मुलाकात हुई, करीब 1.30 घंटे बाद जब वापस जाने लगा, तभी एक लड़की को फोन किया, जिससे कुछ दिन पहले ही मुलाकात हुई थी, शाम का वक्त था, लिहाजा वह भी अपने घर पर थी, पर दर्द से कराह रही थी, इस वजह से सोचा मिलता चलूं, जबकि वह खाना बनाना तो दूर किचन तक जा भी नहीं सकती थी, पर किसी के आ जाने की आहट मिलते ही वह उठकर बैठ गयी और अगले ही पल उसका आलस खर्राटे भरने लगा और वह सीधा किचन में जाकर कुछ पकाने लगी, अमूमन ऐसा सिर्फ मां ही कर सकती है क्योंकि बच्चों का पेट भरे बिना मां का पेट कभी भरता नहीं, मां जब तक अपने बच्चे को अपने सीने से नहीं लगाती, तब तक वह उसे सुरक्षित महसूस नहीं करती और बच्चे को भी मां का वो आंचल पूरे ब्रह्माण्ड से प्यारा लगता है। हालांकि, जितनी देर तक वह खाना बनाती रही, उतनी देर तक वह उसी के आसपास टहलता रहा क्योंकि वहां बैठने की कोई जगह नहीं थी, जो जगह थी, वहां बैठना मुश्किल था क्योंकि टाइट कपड़ों से कसे बदन में जमीन पर बैठना एवरेस्ट फतह करने से कम नहीं था।

इसी वजह से वह उससे बातें करता रहा और वह खाना बनाती रही, करीब 45 मिनट बाद खाना बनकर तैयार हो गया, तभी उसने उससे कहा कि खाना खा लो, पर वह उसके साथ कुछ और समय बिताना चाहता था, इस वजह से भोजन में देरी कर रहा था, जबकि समय के साथ-साथ आशंकाएं भी बढ़ती जा रही थी कि अकेली लड़की की मौजूदगी में घर में किसी अनजान लड़के को देखकर लोग न जाने क्या-क्या सोच बैठेंगे। इस वजह से जल्दी ही खाना खा लिया। अब उससे विदा लेने की बारी थी, पर वह जाना नहीं चाहता था, वह बार-बार रुकने की कोशिश कर रहा था क्योंकि वह उसके चेहरे को पढ़ना चाहता था, जो दर्द उसके चेहरे पर साफ तौर पर झलक रहा था, लेकिन उसको नहीं पता था कि वह उसके चेहरे का दर्द पढ़ रहा है, बार-बार वह उसको पुराने खयालों में ले जाता ताकि वो अपना दर्द उससे बांट ले, पर वो तो ममता और समर्पण की मूरत थी।

जिसे देखकर उसका दर्द आदि सब गायब हुआ था, वो उसका बहुत करीबी भी नहीं था, बस एक साधारण सी मुलाकात हुई थी, जिसमें थोड़ी-बहुत बातचीत हुई थी, जिससे एक बात तय हो गयी थी कि दोनों एक ही परिस्थिति के मारे थे, दोनों का दर्द कमोबेश एक जैसा ही था, यही वजह थी कि दोनों कम समय में ही एक दूसरे के करीब आ गये, फिर भी जितनी दूरी बची थी वो किसी खाईं से कम नहीं थी क्योंकि दोनों का दर्द एक होने का ये मतलब नहीं कि आप बिना आधार के कुछ भी अनुमान लगाने लगें। दर्द एक सा होने के बावजूद दोनों की सोच बिल्कुल अलग थी, वह असमंजस में थी कुछ कह नहीं पाती थी इस डर से कि मैंने अपनी परेशानियों का जिक्र तो कर दिया, जिसके चलते मुझे डूबते वक्त एक तिनका मिला है, उसी के सहारे मैं खुद को डूबने से बचा सकती हूं, पर मेरे दिल-दिमाग की स्थिति महासागर से उठती गिरती ऊंची-ऊंची लहरों जैसी हो रही है, यदि उसका जिक्र गलती से भी मेरी जुबां पर आया तो ये सहारा भी मुझसे छिन जायेगा। बस यही बात समझने की वह कोशिश करता रहा और वह छिपाने की। करीब एक घंटे की मुलाकात में दोनों कुछ न कुछ छिपाते रहे, लेकिन वह तो उतनी देर में उसके मन की बात पढ़ लिया। जिसे वह उससे छुपा रही थी।

उससे विदा लेने के बाद वह और ज्यादा बेचैन हो उठा क्योंकि उस वक्त तक वह उसके दिल-दिमाग को पढ़ लिया था, फिर खुद को वह मजबूत किया और सोशल मीडिया के जरिए उसको संदेश भेजा कि मैंने तुम्हारे चेहरे का दर्द पढ़ लिया है और तुम्हारे दिल-दिमाग में चल रही हर उलझन को भी समझने का प्रयास किया। जहां तक मैं समझ पाया हूं कि तुम मजबूरीवश मेरी हां में हां मिलाती हो, पर हकीकत तो ये है कि साथ छोड़ना भी नहीं चाहती। तुम्हारे मन में जो कुछ भी हो, बेझिझक कह सकती हो, मैं तुम्हारा दोस्त हूं, कोई किराये का हमदर्द नहीं। तुम्हारी खुशियों के लिए मैं अपनी खुशियां कुर्बान करने को तैयार हूं, बस एक बार कहकर तो देखो, तुम्हारी हर खुशी के लिए मैं पूरी जान लगा दूंगा। तुम किसी और को चाहो, किसी से भी दोस्ती करो, उसके लिए भी मैं तुम्हे कभी नहीं रोकूंगा। पर इसके साथ ही उसके मन-मस्तिष्क में एक बात और गूंज रही थी कि आखिर उस रोटी का कर्ज भी तो चुकाना पड़ेगा, जिसे वह सिर्फ उसके लिए बनाई थी, वो भी उस हाल में जब वह खुद अपने लिए नहीं बना सकी थी, उसके इसी बेबाक और निःस्वार्थ समर्पण ने उसका दिल जीत लिया और उसे उसका कर्जदार भी बना दिया।

उस कर्ज के चलते उसके कदम भी थमने लगे थे, वह तो महज इत्तेफाक था जो वह उसके पास चला गया था क्योंकि वह भी शाम के वक्त उसी के घर के करीब से एक दोस्त से मिलकर लौट रहा था, वहां से जब वह खाली हुआ तो काफी वक्त हो चुका था, फिर भी वह उसे फोन किया, तब पता चला कि वह घर पर तो है, पर सो रही है, क्योंकि उसे तबीयत कुछ नासाज लग रही थी, तभी वह उससे कहा कि ठीक है तुम आराम करो, वो तो मैं इधर से गुजर रहा था, इस वजह से फोन कर लिया, तभी उसने कहा कि नहीं...नहीं...आ जाओ मैं कमरे पर ही हूं, पर मैने कहा कि मैं अभी खाना भी नहीं खाया हूं, तो उसने जवाब दिया कि आ जाओ मैं आपको खाना खिलाती हूं, पर मैंने पूछा कि तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं है तो खाना कैसे बनाओगी तो उसने कहा कि तुम तो बस आ जाओ मैं फटाफट खाना तैयार कर दूंगी। फिर मुझे लगा कि वह इतने प्यार से बुला रही है तो जाना चाहिए और मैं उसके पास गया तो दरवाजा नोक किया, दूसरी बार नोक किया तो वह दरवाजा खोलते हुए मुझे अंदर आने का इशारा की और मैं कमरे में दाखिल हुआ, फिर अगले ही पल गप्पेबाजी शुरू।

ये महज इत्तेफाक ही था कि मैं चला था दोस्त के घर से अपने घर, पर पहुंच गया उसके पास, 10 अप्रैल 2018 को लिखी इस कहानी पर अचानक नजर पड़ी तो सोचा इसे ब्लॉग पर ही डाल दूं. कम से कम इसी बहाने वह कभी कभार याद आती रहेगी और कर्जदार होना और उसे चुकाना भी याद रहेगा क्योंकि कर्ज फर्ज मर्ज कभी भूलना नहीं चाहिए।

Thursday, 16 May 2019

दरबारी प्रथा के स्वर्णिम युग में पत्रकारिता

इतिहास-भूगोल में एक मामूली सा अंतर होता है, लेकिन ये अंतर नदी के दो किनारों की तरह होता है, जो साथ चलकर भी कभी एक नहीं हो पाता. तारीख पर दर्ज एक-एक शब्द आने वाली पीढ़ियों को अतीत की सैर कराती हैं. उन्हें पुरानी नीतियों-रीतियों-परंपराओं से रुबरू कराती हैं. पर दरबारी प्रवृत्ति उन शब्दों पर चाटुकारिता का जो मसाला लगाती हैं, उससे तारीख का पूरा जायका ही खराब हो जाता है. दौर कोई भी रहा हो, राजशाही, मुगलशाही, राजपूतशाही या लोकतांत्रिक शासन प्रणाली. कभी दरबारियों की कमी नहीं रही, इन्हीं दरबारियों ने लोगों को इस कदर गुमराह किया है कि सही जानकारी न दर्ज कर उस दौर की शासन पद्धति के गुणगान में ही पूरा तारीख भर डाले.

जितनी बार तारीख का पन्ना पलटते हैं, उतनी बार अलग-अलग जानकारी मिलती है, या यूं कहें कि अपभ्रंश या विरोधाभाष देखने को मिलता है, जिससे पाठक गुमराह हो जाता है कि वह क्या सही माने और क्या गलत समझे. मसलन एक इतिहासकार अमुक बात लिखता है तो दूसरा उसका विरोध करता है, दूसरा जो लिखता है, उससे पहला इत्तेफाक नहीं रखता. यहीं से नई विचारधारा का जन्म होता है, और यही इतिहास पाठकों को विचारधाराओं के नाम पर खेमों में बांट देती है.

ऐसा ही मौजूदा सियासी दौर में भी चल रहा है. सब के सब संविधान और लोकतंत्र बचाने की दुहाई दे रहे हैं, जबकि वास्तविकता ये है कि किसी को संविधान या लोकतंत्र की चिंता नहीं है, बल्कि अपनी व पार्टी की चिंता सता रही है. इसके लिए रोजाना मर्यादा की आबरू उसे बचाने वाले ही लूट रहे हैं. इस काम में कोई पीछे नहीं है, एक सेर है तो दूसरा सवा सेर बनने की कोशिश कर रहा है. एक से बढ़कर एक बड़बोले सामने आ रहे हैं और वोट के लिए खून-खराबा करने से भी गुरेज नहीं कर रहे हैं.

17वीं लोकसभा के लिए होने वाला आम चुनाव अंतिम दौर में है, नेता गिरगिट की तरह रंग बदलकर जनता के सामने वोट के लिए गिड़गिड़ा रहे हैं और खुद को समाज का दर्पण बताने वाली मीडिया गिरगिट के रंग को भी अपने हिसाब से बदलकर प्रचारित कर रही है. पिछले कुछ दिनों में कई नामी पत्रकारों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का साक्षात्कार किया है. जिसकी पारदर्शिता-विश्वसनीयता पर सवाल उठे नहीं, बल्कि सवाल बरसे हैं. ज्यादातर साक्षात्कार में जवाब देने वाले के चेहरे पर तनाव दिखता है, और वो भी जब पांच साल के शासन का हिसाब देना हो तो चेहरे पर सिकन स्वाभाविक है, लेकिन किसी भी साक्षात्कार में ऐसा कुछ भी नहीं दिखा.

इन साक्षात्कारों में बड़े-बड़े पत्रकारों ने सवालों के स्तर को इतना गिरा दिया है, जितना कोई इंसान चाहकर भी नहीं गिर सकता. नरेंद्र मोदी के आम खाने से लेकर पर्स रखने, रोटी बेलने तक की बात पूछ लिये, बस अंडरवियर की बात पूछना भूल गये और ये पूछना भी भूल गये कि कितनी बार क्या-क्या खाते हैं और कितनी बार में कितना-कितना निकालते हैं. बस यूं ही मन में आ गया तो सोचा कि याद दिला दूं, शायद किसी बड़े पत्रकार की नजर इस लेख पर पड़ जाये और उसे जब भी प्रधानमंत्री से सवाल करने का मौका मिले तो वह इस सवाल को शामिल कर लेगा तो हम भी धन्य हो जाएंगे, भले ही बड़ा पत्रकार न बन पाएं, लेकिन बुढ़ापे में बच्चों को किस्से-कहानियां सुनाते समय 56 इंची सीना फुलाकर बता तो पाएंगे कि अमुक सवाल फलां पत्रकार को पूछने की सलाह हमने ही दी थी.

जब अगली पीढ़ियां अतीत के पन्ने पलटेंगी, या लाइब्रेरी में पुराने साक्षात्कार खंगालेंगी और संयोग से दो चार दिन के अंतराल में पक्ष-विपक्ष का साक्षात्कार देखेंगी तो तस्वीर साफ हो जायेगी कि उस दौर में भी पत्रकारिता किस कदर सत्ता के चरणों में पड़ी थी. उस वक्त जब युवा पीढ़ियां आपसे सवाल करेंगी तो आपके पास खुद से नजर मिलाने की भी ताकत नहीं होगी, फिर उन युवाओं का सामना करना कितना मुश्किल होगा, इसके बारे में आप भी सोचिए क्योंकि जो सवाल सरकार से पूछा जाना चाहिए, वो विपक्ष से पूछा जा रहा है और सरकार के खान-पान, मौज-मस्ती की बातें पूछी जा रही हैं.

चुनाव का क्या है ये तो आते-जाते रहेंगे, पांच साल में 25 दिन जनता के सामने गिड़गिड़ाने वाले बरसाती मेढक सियासी बारिश खत्म होते ही लापता हो जाएंगे, जब कभी उनका जनता से सामना हो भी जाता है तो वह गिरगिट जैसे रंग बदल लेते हैं, यानि 30 दिन चरण वंदन करने वाला नेता जनता से 330 दिन तक चरणवंदन करवाना चाहता है, लेकिन तारीख पर दर्ज दस्तावेज को कैसे मिटाएंगे. अपने दिल पर हाथ रखकर बोलिये कि क्या आपने जो किया वह सही है, अभी भी वक्त है, नहीं सुधरे तो बुढ़ापे में पश्चाताप के सिवा कुछ नहीं बचेगा और खुद के खोदे गड्ढे में अपनी अगली पीढ़ी को दफन होते देखकर कैसा लगेगा.

Saturday, 20 April 2019

24 साल बाद भरी दुश्मनी की खाई, एक मंच पर आये माया-मुलायम


मैनपुरी/भोपाल। 24 साल बाद दो दलों के बीच खिंची नंगी तलवारों को सियासत ने वापस म्यान में रखवा दिया है. अब दोनों दलों के नेता एक मंच पर आ गये हैं और एक साथ मिलकर तीसरे दुश्मन को पस्त करने की रणनीति बना रहे हैं, जबकि इन दोनों में से एक नेता पहले ही तीसरे दुश्मन को विजयी होने का आशीर्वाद दे चुका है. जीत का आशीर्वाद देने के बाद अब उसे ही हराने के लिए पुराने दुश्मन के साथ चल दिया है.


सियासत दूरियां बढ़ाती है तो जख्मी दिलों को भी मिलाती है. राजनीति रिश्तों की डोर तोड़ती है तो जोड़ती भी है. ऐसा इसलिए होता है कि जब दोस्त का दोस्त, दोस्त होता है तो दुश्मन का दुश्मन दोस्त बन जाता है. कई बार ऐसे समीकरण का असर आस-पड़ोस में भी देखने को मिल जाता है. न्यूटन का गति विषयक नियम है कि जब भी कोई वस्तु पानी में डूबती है तो वह अपने आकार के बराबर पानी को उपर उठाती है. ऐसा ही कुछ आजकल यूपी की राजनीति में हो रहा है, जिसका असर प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष तौर पर मध्यप्रदेश पर भी पड़ रहा है.

1993 में मायावती-मुलायम सिंह साथ मिलकर उत्तर प्रदेश में सरकार बनाए, लेकिन अचानक घटी एक घटना ने इस रिश्ते को एक झटके में बिखेर दिया. 5 जून 1995 को लखनऊ में हुए गेस्ट हाउस कांड ने इस रिश्ते के बीच में इतनी गहरी खाईं खोद दी, जिसे भरने में 24 साल लग गये. वो भी तब जब मुलायम सिंह की विरासत संभालने वाले उनके बेटे अखिलेश यादव ने बुआ की ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाया. 24 साल बाद आज दोनों एक साथ मंच पर दिखेंगे तो इसका असर यूपी की सीमा से सटे मध्यप्रदेश के लोकसभा क्षेत्रों पर भी पड़ेगा क्योंकि दोनों पार्टियां एक साथ मिलकर यूपी में चुनाव लड़ रही हैं और सीमाई इलाकों में सपा-बसपा दोनों की पकड़ मजबूत है. जिसके चलते इन संसदीय क्षेत्रों में बीजेपी-कांग्रेस को नुकसान उठाना पड़ सकता है.

दरअसल, गठबंधन के सवाल पर मायावती ने दो टूक कह दिया था कि कांग्रेस से गठबंधन पूरे देश में कहीं नहीं हो सकता क्योंकि कांग्रेस से गठबंधन करके कोई फायदा नहीं मिलने वाला है, लेकिन हर राज्य की परिस्थितियां अलग-अलग हैं. कहीं सपा-बसपा मजबूत है तो कही कांग्रेस. भले ही सपा-बसपा एक साथ कदमताल करके ज्यादा सीटें यूपी में जीत सकती हैं, लेकिन बाकी राज्यों में इनका वजूद इस कद का नहीं है कि इक्का-दुक्का सीटों से ज्यादा जीत सकें.

हालांकि, पिछले साल हुए विधानसभा चुनाव में भी मध्यप्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ आखिरी वक्त तक सपा-बसपा को मनाने में लगे रहे, पर बात नहीं बन पायी थी. अब जब मध्यप्रदेश में कांग्रेस का वनवास खत्म हो चुका है, कमल को कांग्रेस ने एमपी का नाथ बना दिया है. ऐसे में कमलनाथ के सामने मध्यप्रदेश की 29 लोकसभा सीटों में से ज्यादातर पर जीत दर्ज करने का दबाव है. ऐसा करके कमलनाथ को कांग्रेस की कसौटी पर खरा उतरना है. ताकि दिग्विजय सिंह और ज्योतिरादित्य सिंधिया से उनका कद भी कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की नजरों में बढ़ सके.

Saturday, 16 February 2019

'40 के बदले 400 लाशें-भितरघतियों के 4000, भले ही एक वक्त की रोटी कम कर दो'

पुलवामा। 14 फरवरी तारीख पर दर्ज वो काला दिन है जिसे याद कर हर देशभक्त का खून खौल उठेगा, बार-बार गद्दार पड़ोसी से हम दोस्ती का हाथ बढ़ाते हैं और वो कमीना पीछे से पीठ पर वार करता है, उरी के बाद पुलवामा में हुए आतंकी हमले ने हर देशवासी के खून की गर्मी को बढ़ा दिया है, तिरंगे में लिपटे भारत मां के 40 सपूतों को देखकर भला किसका दिल नहीं पसीजा होगा, पर कुछ आस्तीन के सांप ऐसे हैं, जिनके चेहरे पर खुशी दिख रही है, पर अब समय आ गया है पाकिस्तान से पहले इन गद्दारों को जन्नत भेजना होगा क्योंकि ये गद्दार नहीं होंगे तो पाकिस्तान खुद ही अपाहिज हो जायेगा, भीख के टुकड़ों पर पलने वाला ये गद्दार मुल्क जो अपनी अवाम का भी पेट नहीं भर पाता, उसकी क्या बिसात जो भारत जैसी महाशक्ति से टकराये. जितनी बार टकराया है उतनी बार अंजाम पाया है, शिमला समझौता न हुआ होता तो आज इसका नामोनिशां न होता, 90 हजार सैनिकों का आत्मसमर्पण हो या पाकिस्तान के दो टुकड़े करना, लेकिन इस कमबख्त का टूटकर भी गुरूर नहीं गया. उरी के बाद भारतीय सेना ने सर्जिकल सट्राइक किया, लेकिन इस बार सर्जिकल स्ट्राइक पाकिस्तान से पहले कश्मीर में करना होगा और यहां की खाकर वहां का गुणगान करने वाले गद्दारों को हूरों के पास भेजें.

इस हमले ने दिल को अंदर तक झकझोर दिया है, समझ नहीं आता कि इस कायराना तांडव के बाद कैसे मां भारती के वीरों की मिट्टी को समेटा गया होगा, कैसे उन्हें तिरंगे में लपेटा गया होगा और कैसे उनके घरवालों को संतोष हुआ होगा, जो बचपन से अपने सीने से लगाकर पाली थी वो मां कैसे अपने लाल की मिट्टी से लिपटी होगी क्योंकि जिस बस में विस्फोटक भरी कार टकरायी थी, सिर्फ उसमें ही एक ड्राइवर को लेकर चालीस जवान थे, धमाके के बाद उनके जिस्म के चीथड़े उड़ गये, न तो उन्हें संभलने का मौका मिला, न ही जवाबी कार्रवाई के लिए संभलने का वक्त, लेकिन भारत सरकार के पास जवाब देने के लिए मुकम्मल वक्त है और संसाधन भी.

इस हमले के वक्त हमने अपने आसपास गद्दारों की हंसी को महसूस किया, कहने के लिए मीडिया में सवर्णों का वर्चस्व है, मीडिया संस्थानों पर बनियो का कब्जा है, लेकिन ये दावे सफेद हाथी से कम कुछ भी नहीं है और बस खुश रहने के लिए ये ख्याल अच्छा है. जिस वक्त हमने खुद अपने कानों से जवानों के शहीद होने का एनाउंसमेंट सुना, क्रोध पर अचानक 42 डिग्री का देसी नशा चढ़ गया, दिल किया कि क्यों न नौकरी छोड़कर बागी बन जाऊं और चुन चुनकर इन गद्दारों को मौत के घाट उतार दूं, लाला लाजपत पाय, वीर सावरकर, भगत सिंह, सुभाष चंद्र बोस, चंद्रशेखर आजाद, रामप्रसाद बिस्मिल जैसे नौजवानों ने बगावत नहीं की होती तो आज ये कमीने आजादी और अधिकार की बात नहीं कर रहे होते, बल्कि अंग्रेजों के बूट अपनी थूक से साफ कर रहे होते.

खासकर जो उच्च शिक्षित वर्ग है, उनकी सोच-समझ पर तरस आता हैं ये गद्दार इतना पढ़ लिखकर खुद को प्रबुद्ध मानते हैं और जिनके खून पसीने की कमाई से ये कमीने खुद को प्रबुद्ध बना पाते हैं, उन्हीं की पीठ में छुरा घोंपते हैं.  स्टूडियो में बैठे एंकर भी इस हमले में बराबर के दोषी हैं और जितना दोष सरकार का है, उतना ही दोष सीआरपीएफ के वरिष्ठ अधिकारियों का भी है जिन्होंने इंटेलिजेंस की चेतावनी को नजरअंदाज किया, जिसकी वजह से 40 जवानों को बिना दुश्मन का सीना छलनी किये ही मां भारती के रज में मिल जाना पड़ा क्योंकि पहली गलती तो उस वक्त हुई, जब खुफिया चेतावनी को वरिष्ठ अफसरों ने नजर अंदाज किया वो भी उस समय जब एक साथ सीआरपीएफ के 2547 जवान मूव कर रहे थे, इसे लापरवाही नहीं कहा जा सकता बल्कि, इसे सीधे-सीधे अधिकारियों द्वारा 40 जवानों को मौत के मुंह में धकेलना हुआ, जबकि जो जवान अभी अस्पताल में जिंदगी की जंग लड़ रहे हैं, उनमें से कितने दोबारा देश की रक्षा में तैनात रह पाते हैं, इस पर भी संदेह है.